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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 13
    ऋषिः - चातनः देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
    48

    न वा उ॒ सोमो॑ वृजि॒नं हि॑नोति॒ न क्ष॒त्रियं॑ मिथु॒या धा॒रय॑न्तम्। हन्ति॒ रक्षो॒ हन्त्यास॒द्वद॑न्तमु॒भाविन्द्र॑स्य॒ प्रसि॑तौ शयाते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । वै । ऊं॒ इति॑ । सोम॑: । वृ॒जि॒नम् । हि॒नो॒ति॒ । न । क्ष॒त्रिय॑म् । मि॒थु॒या । धा॒रय॑न्तम् । हन्ति॑ । रक्ष॑: । हन्ति॑ । अस॑त् । वद॑न्तम् । उ॒भौ । इन्द्र॑स्य । प्रऽसि॑तौ । श॒या॒ते॒ इति॑ ॥४.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न वा उ सोमो वृजिनं हिनोति न क्षत्रियं मिथुया धारयन्तम्। हन्ति रक्षो हन्त्यासद्वदन्तमुभाविन्द्रस्य प्रसितौ शयाते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । वै । ऊं इति । सोम: । वृजिनम् । हिनोति । न । क्षत्रियम् । मिथुया । धारयन्तम् । हन्ति । रक्ष: । हन्ति । असत् । वदन्तम् । उभौ । इन्द्रस्य । प्रऽसितौ । शयाते इति ॥४.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 13
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (सोमः) ऐश्वर्यवान् राजा (वृजिनम्) पापी को (न वै उ) न कभी भी (हिनोति) बढ़ाता है, और (न)(मिथुया) [प्रजा की] हिंसा (धारयन्तम्) धारण करनेवाले (क्षत्रियम्) क्षत्रिय [बलवान्] को। वह) रक्षः) राक्षस को (हन्ति) मारता है, और (असत्) झूँठ (वदन्तम्) बोलनेवाले को (हन्ति) मारता है, (उभौ) वे दोनों (इन्द्रस्य) राजा की (प्रसितौ) बेड़ी में (शयाते) सोते हैं ॥१३॥

    भावार्थ

    राजा दुष्टों का अपमान करके कारागार में रक्खे और नाश करे ॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(न) निषेधे (वै) अवधारणे (उ) निश्चये (सोमः) ऐश्वर्यवान् राजा (वृजिनम्) अ० १।१०।३। पापिनम् (हिनोति) वर्धयति (न) (क्षत्रियम्) क्षत्रं बलम् तद्वन्तम्। बलिनम् (मिथुया) अ० ४।२९।७। मिथु-विभक्तेर्याच्-पा० ७।१३९। मिथुं प्रजाहिंसनम् (धारयन्तम्) आचरन्तम् (हन्ति) (रक्षः) राक्षसम् (असत्) अनृतम् (वदन्तम्) कथयन्तम् (उभौ) (इन्द्रस्य) राज्ञः (प्रसितौ) अ० ८।३।—११। शृङ्खलायाम् (शयाते) वर्तेते ॥

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    विषय

    पाप व असत्य का विनाश

    पदार्थ

    १. (सोमः) = वे शान्त प्रभु (वृजिनम्) = पाप को-पाप करनेवाले को (न वा उ) = निश्चय से नहीं (हिनोति) = बढ़ाते हैं। (मिथुया धारयन्तम्) = मिथ्या से छलकपट से धारण करते हुए (क्षत्रियम्) = बलशाली पुरुष को भी न वे प्रभु नहीं बढ़ाते हैं। २. ये प्रभु (रक्षः हन्ति) = राक्षसीवृत्तिवालों को नष्ट करते हैं। (असत् वदन्तम्) = झूठ बोलनेवाले को भी (हन्ति) = नष्ट करते हैं। (उभौ) = वे दोनों राक्षसीवृत्तिवाले व झूठ बोलनेवाले (इन्द्रस्य) = इस सर्वशक्तिमान् प्रभु के (प्रसितौ शयाते) = बन्धन में निवास करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु की व्यवस्था में पापी व मिथ्याचारी का वर्धन नहीं होता। राक्षसीवृत्तिवाले ब झुठ बोलनेवाले का विनाश ही होता है।

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    भाषार्थ

    (सोमः) सेनाध्यक्ष (वै उ) निश्चय से (वृजिनम्) पाप और पापी को (न) नहीं (हिनाति) बढ़ाता या बढ़ने देता, तथा (मिथुया) मिथ्या अर्थात् असत्य को (धारयन्तम्) धारण करने वाले (क्षत्रियम्) क्षत्रिय को (न [हिनोति]) नहीं बढ़ाता या बढ़ने देता। (रक्षः) राक्षसस्वभाव वाले अर्थात् प्रजाभक्षक का (हन्ति) सोम हनन करता है, तथा (असत् वदन्तम्) असत्यवादी का (आ हन्ति) पूर्णतया हनन करता है। (उभौ) ये दोनों (इन्द्रस्य) सम्राट के (प्रसितौ) बन्धन अर्थात् बन्दीगृह में (शयाते) शयन करते हैं। प्रसितिः= प्र + षिञ् बन्धने + तिः।

    टिप्पणी

    [उभौ= पापी और मिथ्याचारी क्षत्रिय तथा रक्षः और असत्यवाद। शयाते= सम्भवतः दीर्घनिद्रा में शयन अर्थात् मृत्यु; अथवा बन्दीगृह।]

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    विषय

    दुष्ट प्रजाओं का दमन।

    भावार्थ

    (सोमः) सत्य का परिपालक राजा यथार्थ न्यायकारी (वृजिनम्) त्याग देने योग्य, पाप को या पापी को (नवा उ) भी नहीं (हिनोति) समर्थन करता और (मिथुया) मिथ्या, झूठ के पक्ष को (धारयन्तम्) धारण करने वाले (क्षत्रियम्) बलवान् पुरुष का भी वह (न हिनोति) पक्ष नहीं करता। प्रत्युत वह (रक्षः) ऐसे दुष्ट राक्षस को (हन्ति) मारता है और ऐसे (असत्) असत्य (वदन्तं) बोलने हारे को भी (हन्ति) मारता है। वे दोनों ही (इन्द्रस्य) राजा के (प्रसितौ) बन्धन में (शयाते) पड़ जाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Enemies

    Meaning

    Soma, lord of peace and harmony, does not call forth the crooked to the distinction between truth and untruth. Nor does he impel and support the Kshatriya, ruler administrator, who parades his power and valour falsely. But he does destroy the evil and the wicked and also the one who speaks the untruth, and both the wicked and the liar end up in the bonds of Indra, dispenser of justice.

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    Translation

    Love-divine encourages not the wicked, nor lie instigates, such a man of strength even, who deals in falsehood. He, verily, destroys the fiend and wicked and also thé one who speaks untruth. All such persons lie entangled in the chain of Lord of resplendence. (Also Rg. VII. 104.13)

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    Translation

    The just King never encourages the sin or sinner, he never gives shelter or encouragement to warrior or brave man who falsely claims his title. He kills the wicked, destroys the person speaking untruth and both of these two remain entangled in the noose of the King.

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    Translation

    God never tolerates sin, or a Kshatriya, who espouses untruth. He destroys the ignoble, and him who tells a lie: both lie entangled in the grip of God.

    Footnote

    Soma refers to God or a justice-loving King.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(न) निषेधे (वै) अवधारणे (उ) निश्चये (सोमः) ऐश्वर्यवान् राजा (वृजिनम्) अ० १।१०।३। पापिनम् (हिनोति) वर्धयति (न) (क्षत्रियम्) क्षत्रं बलम् तद्वन्तम्। बलिनम् (मिथुया) अ० ४।२९।७। मिथु-विभक्तेर्याच्-पा० ७।१३९। मिथुं प्रजाहिंसनम् (धारयन्तम्) आचरन्तम् (हन्ति) (रक्षः) राक्षसम् (असत्) अनृतम् (वदन्तम्) कथयन्तम् (उभौ) (इन्द्रस्य) राज्ञः (प्रसितौ) अ० ८।३।—११। शृङ्खलायाम् (शयाते) वर्तेते ॥

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