अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 12
ऋषिः - चातनः
देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
96
सु॑विज्ञा॒नं चि॑कि॒तुषे॒ जना॑य॒ सच्चास॑च्च॒ वच॑सी पस्पृधाते। तस्यो॒र्यत्स॒त्यं य॑त॒रदृजी॑य॒स्तदित्सोमो॑ऽवति॒ हन्त्यास॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽवि॒ज्ञा॒नम् । चि॒कि॒तुषे॑ । जना॑य । सत् । च॒ । अस॑त् । च॒ । वच॑सी॒ इति॑ । प॒स्पृ॒धा॒ते॒ इति॑ । तयो॑: । यत् । स॒त्यम् । य॒त॒रत् । ऋजी॑य: । तत् । इत् । सोम॑: । अ॒व॒ति॒ । हन्ति॑ । अस॑त् ॥४.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते। तस्योर्यत्सत्यं यतरदृजीयस्तदित्सोमोऽवति हन्त्यासत् ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽविज्ञानम् । चिकितुषे । जनाय । सत् । च । असत् । च । वचसी इति । पस्पृधाते इति । तयो: । यत् । सत्यम् । यतरत् । ऋजीय: । तत् । इत् । सोम: । अवति । हन्ति । असत् ॥४.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(चिकितुषे) ज्ञानी (जनाय) पुरुष के लिये (सुविज्ञानम्) सुगम विज्ञान है, [कि] (सत्) सत्य (च च) और (असत्) असत्य (वचसी) वचन (पस्पृधाते) दोनों परस्पर विरोधी होते हैं। (तयोः) उन दोनों में से (यत्) जो (सत्यम्) सत्य और (यतरत्) जो कुछ (ऋजीयः) अधिक सीधा है, (तत्) उसको (इत्) ही (सोमः) सर्वप्रेरक राजा (अवति) मानता है और (असत्) असत्य को (हन्ति) नष्ट करता है ॥१२॥
भावार्थ
विवेकी मर्मज्ञ राजा सत्य और असत्य का निर्णय करके सत्य को मानता और असत्य को छोड़ता है ॥१२॥
टिप्पणी
१२−(सुविज्ञानम्) विज्ञातुं सुशकं भवति (चिकितुषे) अ० ४।३०।२। विदुषे (जनाय) मनुष्याय (सत्) सत्यम् (च च) (असत्) असत्यम् (वचसी) वचने (पस्पृधाते) स्पर्ध संघर्षे-लटि शपः श्लुः, छान्दसं रूपम्। स्पर्धेते। परस्परं विरोधयतः (तयोः) सदसतोर्मध्ये (यत्) (सत्यम्) यथार्थम् (यतरत्) यत् किंचित् (ऋजीयः) ऋजु-ईयसुन्। सरलतरम् (तत्) (इत्) एव (सोमः) सर्वप्रेरको राजा (अवति) गृह्णाति (हन्ति) नाशयति (असत्) असत्यम् (हन्त्यासत्) छान्दसो दीर्घः ॥
विषय
सत्य [बनाम] असत्य
पदार्थ
१. (चिकितेषु जनाय) = एक समझदार व्यक्ति के लिए (सुविज्ञानम्) = यह बात सम्यग् जानने योग्य है कि (सत् च असत् च) = वचसी-सत्य और असत्य वचन (पस्पृधाते) = परस्पर स्पर्धावाले होते हैं, इनमें परस्पर विरोध है। इनके विरोध को समझदार तुरन्त जान लेता है। (तयोः) = उन दोनों में से (यत्) = जो (सत्यम्) = सत्य है, यतरत् ऋजीयः जो अधिक सरल है, (तत् इत्) = उसे ही (सोमः अवति) = वह शान्त प्रभु रक्षित करता है और (आसत् हन्ति) = असत्य को विनष्ट करता है।
भावार्थ
समझदार व्यक्ति सत्य और असत्य के विरोध को देखता हुआ सत्य को ग्रहण करता है और असत्य को छोड़ता है। प्रभु सत्यवादी का रक्षण करते हैं और असत्यवक्ता को विनष्ट करते हैं।
भाषार्थ
(चिकितुषे, जनाय) ज्ञानी जन के लिये (सुविज्ञानम्) सुगमता से ज्ञेय है कि (सत च, असत् च वचसी) सद्वचन [सत्यवचन] और असद् वचन [असत्यवचन] (पस्पृधाते) परस्पर स्पर्धा करते हैं। (तयोः) उन दोनों वचनों में (यत्) जो (सत्यम्) सत्य है, (यतरत्) जो कि (ऋजीयः) अपेक्षया अधिक ऋजु है, (तत् इत्) उस अधिक ऋजु की (सोमः) सोम (अवति) रक्षा करता है, और (असत्) असत् [असत्य] का (आ हन्ति) पूर्णतया हनन करता है ।
टिप्पणी
[मन्त्र (८) में अनृत वचनों का कथन हुआ है। अनृत वचनों की पहचान के लिये मन्त्र (१२) में अनृत और सत्य की पहचान का वर्णन हुआ है। ज्ञानी जन सुगमता से जान लेता है। "सत्" वह वस्तु है जिसकी वस्तुतः सत्ता है; उसे "सत्य" कहा है। और "असत्" वह है जिसकी वस्तुतः सत्ता नहीं; उसे असत्य कहा है, क्योंकि असत् को सत्ता कल्पित होती है, वस्तुतः सत्ता नहीं होती। इन दोनों में "सत्य" अधिक "ऋजु" होता है, सीधे मार्ग वाला होता है, और "अनृत" कुटिल अर्थात् टेढ़े मार्ग का होता है। सत्य के कथन के लिये कल्पित बातें नहीं बनानी होतीं, परन्तु असत्य के कथन के लिये कई कल्पित बातों का मिश्रण करना पड़ता है। इसलिये सत्य का मार्ग ऋजु है, और असत्य का मार्ग अनृजु है। राष्ट्र या साम्राज्य प्रकरण में सोम है सेनाध्यक्ष, जिससे कि शासन का वर्णन सूक्त (४) में हो रहा है। वह सेनाध्यक्ष, प्रजोन्नति की दृष्टि से सत्यवादी की तो रक्षा करता है, और असत्यवादी का पूर्णतया हनन। इस प्रकार सत्य की रक्षा और असत्य का हनन हो जाता है। ज्ञानीजन जब आत्मनिरीक्षण करता है तो वह अनुभव कर लेता है कि मैं जो कथन कर रहा हूं, वह सत्य है, या असत्य। लाभ और हानि की दृष्टि से सत्यवचन और असत्यवचन में परस्पर स्पर्धा होती रहती है, यह सर्वसाधारण अनुभूतियों का विषय है]।
विषय
दुष्ट प्रजाओं का दमन।
भावार्थ
(सु-विज्ञानम्) उत्तम विशेष ज्ञान की (चिकितुषे) मीमांसा या विवेचना करने वाले विवेकशील (जनाय) पुरुष के लिये (सत् च) सत्, सत्य और (असत्) असत्, असत्य (वचसी) वचन (पस्पृधाते) परस्पर स्वयं स्पर्धा करते हैं आपस में एक दूसरे से कलह करते हैं। विवेकी पुरुष के समक्ष सत्य और असत्य दोनों एक दूसरे का खण्डन करते, एक दूसरे से विवाद करते और एक दूसरे से प्रबल होना चाहते हैं, तो भी (तयोः) उन दोनों में से (यत् सत्यम्) जो सत्य है और (यतरत्) उन दोनों में से जो (ऋजीयः) सरल और श्रेष्ठ, छलहीन है (सोमः) न्यायाधीश (तत् इत्) उसकी ही (अवति) रक्षा करता है वा उसकी ओर झुकता है और (असत्) असत्य का (हन्ति) विनाश करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of Enemies
Meaning
Words of truth and words of untruth rival and contend with each other. Of these, the one that is true and to the extent that it is simple and natural, Soma, lord of peace, harmony and goodness, protects and preserves, the untrue, he destroys. This simple and straight natural knowledge, the lord reveals for the man who is keen to know the truth and reality of life.
Translation
A prudent person easily discriminates between truth and falsehood, since the two words are mutually at variance. Of these two, the love-divine cherishes truth and virtue. He, verily, destroys the falsehood. (Also Rg. VII. 104.12)
Translation
It is easy for a prudent man to distinguish truth and falsehood. The true and false speeches appose each other. Of these two the truth is incomplicated and the man of justice and righteousness protects the truth and obliterate the falsehood.
Translation
A prudent person finds it easy to distinguish the true and false, and know that these words oppose each other. Of these two that which is the true and honest God protects, and brings the false to nothing.
Footnote
Soma may mean a just Judge or King.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(सुविज्ञानम्) विज्ञातुं सुशकं भवति (चिकितुषे) अ० ४।३०।२। विदुषे (जनाय) मनुष्याय (सत्) सत्यम् (च च) (असत्) असत्यम् (वचसी) वचने (पस्पृधाते) स्पर्ध संघर्षे-लटि शपः श्लुः, छान्दसं रूपम्। स्पर्धेते। परस्परं विरोधयतः (तयोः) सदसतोर्मध्ये (यत्) (सत्यम्) यथार्थम् (यतरत्) यत् किंचित् (ऋजीयः) ऋजु-ईयसुन्। सरलतरम् (तत्) (इत्) एव (सोमः) सर्वप्रेरको राजा (अवति) गृह्णाति (हन्ति) नाशयति (असत्) असत्यम् (हन्त्यासत्) छान्दसो दीर्घः ॥
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