ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 101/ मन्त्र 10
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मा॒दय॑स्व॒ हरि॑भि॒र्ये त॑ इन्द्र॒ वि ष्य॑स्व॒ शिप्रे॒ वि सृ॑जस्व॒ धेने॑। आ त्वा॑ सुशिप्र॒ हर॑यो वहन्तू॒शन्ह॒व्यानि॒ प्रति॑ नो जुषस्व ॥
स्वर सहित पद पाठमा॒द्य॑स्व । हरि॑ऽभिः । ये । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । वि । स्य॒स्व॒ । शिप्रे॑ । वि । सृ॒ज॒स्व॒ । धेने॒ इति॑ । आ । त्वा॒ । सु॒ऽशि॒प्र॒ । हर॑यः । व॒ह॒न्तु॒ । उ॒शन् । ह॒व्यानि॑ । प्रति॑ । नः॒ । जु॒ष॒स्व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मादयस्व हरिभिर्ये त इन्द्र वि ष्यस्व शिप्रे वि सृजस्व धेने। आ त्वा सुशिप्र हरयो वहन्तूशन्हव्यानि प्रति नो जुषस्व ॥
स्वर रहित पद पाठमादयस्व। हरिऽभिः। ये। ते। इन्द्र। वि। स्यस्व। शिप्रे। वि। सृजस्व। धेने इति। आ। त्वा। सुऽशिप्र। हरयः। वहन्तु। उशन्। हव्यानि। प्रति। नः। जुषस्व ॥ १.१०१.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 101; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सेनाध्यक्षः किं कुर्यादित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे सुशिप्र इन्द्र ये ते तव हरयः सन्ति तैर्हरिभिर्नोऽस्मान्मादयस्व। शिप्रे धेने विष्यस्व विसृजस्व च। ये हरयस्त्वा त्वामावहन्तु यैरुशन्कामयमानस्त्वं हव्यानि जुषसे तान् प्रति नोऽस्माञ्जुषस्व ॥ १० ॥
पदार्थः
(मादयस्व) हर्षयस्व (हरिभिः) प्रशस्तैर्युद्धकुशलैः सुशिक्षितैरश्वादिभिः (ये) (ते) तव (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त सेनाधिपते (वि, ष्यस्व) स्वराज्येन विशेषतः प्राप्नुहि (शिप्रे) सर्वसुखप्रापिके द्यावापृथिव्यौ। शिप्रे इति पदनाम०। निघण्टौ ४। १। (विसृजस्व) (धेने) धेनावत्सर्वानन्दरसप्रदे (आ) (त्वा) त्वाम् (सुशिप्र) सुष्ठुसुखप्रापक (हरयः) अश्वादयः (वहन्तु) प्रापयन्तु (उशन्) कामयमानः (हव्यानि) आदातुं योग्यानि युद्धादिकार्य्याणि (प्रति) (नः) अस्मान् (जुषस्व) प्रीणीहि ॥ १० ॥
भावार्थः
सेनाधिपतिना सर्वाणि सेनाङ्गानि पूर्णबलानि सुशिक्षितानि साधयित्वा सर्वान्विघ्नान्निवार्य्य स्वराज्यं सुपाल्य सर्वाः प्रजाः सततं रञ्जयितव्याः ॥ १० ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर सेना आदि का अध्यक्ष क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (सुशिप्र) अच्छा सुख पहुँचानेवाले (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त सेना के अधीश ! (ये) जो (ते) आपके प्रशंसित युद्ध में अतिप्रवीण और उत्तमता से चालें सिखाये हुए घोड़े हैं, उन (हरिभिः) घोड़ों से (नः) हम लोगों को (मादयस्व) आनन्दित कीजिये (शिप्रे) और सर्व सुखप्राप्ति कराने तथा (धेने) वाणी के समान समस्त आनन्द रस को देनेहारे आकाश और भूमि लोक को (विष्यस्व) अपने राज्य से निरन्तर प्राप्त हो (विसृजस्व) और छोड़ अर्थात् वृद्धावस्था में तप करने के लिये उस राज्य को छोड़दे, जो (हरयः) घोड़े (त्वाम्) आपको (आ, वहन्तु) ले चलते हैं, जिनसे (उशन्) आप अनेक प्रकार की कामनाओं को करते हुए (हव्यानि) ग्रहण करने योग्य युद्ध आदि के कामों को सेवन करते हैं, उन कामों के प्रति (नः) हम लोगों को (जुषस्व) प्रसन्न कीजिये ॥ १० ॥
भावार्थ
सेनापति को चाहिये कि सेना के समस्त अङ्गों को पूर्ण बलयुक्त और अच्छी-अच्छी शिक्षा दे, उनको युद्ध के योग्य सिद्ध कर, समस्त विघ्नों की निवृत्ति कर और अपने राज्य की उत्तम रक्षा करके सब प्रजा को निरन्तर आनन्दित करे ॥ १० ॥
विषय
‘मितभोगी , प्राणसाधक , ज्ञानी’
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ये) = जो (ते) = आपके इन्द्रियरूप अश्व हैं , उन (हरिभिः) = इन्द्रियाश्वों से (मादयस्व) = हमें हर्षित कीजिए । प्रभुकृपा से हमें उत्तम इन्द्रियाँ प्राप्त हों । इनके ठीक होने में ही ‘सु - ख’ है ।
२. (शिप्रे) = हमारे जबड़े [Jaws] व नासिका [nose] को (विष्यस्व) = पूर्ण [complete] बना दीजिए । जबड़ों की पूर्णता इसी में है कि हम उत्तम आहारवाले व मितहारी हों , हर समय खाते ही न रहें । नासिका की पूर्णता इसमें है कि हम प्राणसाधना से इसके दायें - बायें दोनों स्वरों को ठीक रखें ।
३. (धेने) = [धेना - वाङ्नाम - नि० १/११] दोनों वाणियों को अपराविद्या व पराविद्या को (विसृजस्व) = हमारे लिए विशेषरूप से दीजिए । प्रकृतिविद्या को प्राप्त करके हम सब प्राकृतिक देवों को अपना सहायक बना पाते हैं और आत्मविद्या से हम संसार के पदार्थों में उलझते नहीं ।
४. हे (सुशिप्र) = उत्तम जबड़ों व नासिका को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (हरयः) = हमारे ये इन्द्रियाश्व (त्वा आवहन्तु) = हमारे लिए आपको प्राप्त करानेवाले हों । संसार के भोगों में आसक्त न होनेपर ये हमें आपको प्राप्त करानेवाले होते हैं ।
५. हे प्रभो ! (उशन्) = हमारे हित की कामना करते हुए आप (नः) = हमारे लिए (हव्यानि) = हव्य पदार्थों को (प्रतिजुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन करानेवाले होओ । हमारी रुचि हव्य पदार्थों के लिए हो । इनका सेवन ही हमें आपके समीप प्राप्त कराएगा ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें मितभोजी , प्राणसाधक व ज्ञानी बनाने की कृपा करें ।
विषय
इन्द्र के शिष्यों का रहस्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन ! राजन् ! ( येते ) जो तेरे अधीन ( हरिभिः ) विद्वानूजन और अश्व, अश्वारोही गण हैं उन सहित तू ( मादयस्व ) तृप्त, संतुष्ट और प्रसन्न होकर रह । ( शिप्रे ) भोजन करने हारा जिस प्रकार अपने दोनों जबाड़ों को खोलता है उसी प्रकार तू भी राष्ट्र के भोग्य पदार्थों के भोग करने और शत्रु राज्यों को बल द्वारा प्राप्त करने के लिये ( शिप्रे ) दायें बायें की दोनों सेनाओं ( विष्यस्व ) विस्तृत कर और ( धेने ) जिस प्रकार भोजनकर्त्ता पुरुष खाते समय जीभ चलाता है उसी प्रकार हे राजन् ! राष्ट्र के ऐश्वर्यों के भोग करने के लिये (धेने) रसपान करने वाली जिह्वा के समान प्रजा शासन और शत्रु दमन करने वाली दो प्रकार की वाणियों को प्रकट कर । अथवा जिह्वा के समान अगली दो सेनाओं का संचालन कर । हे ( सुशिप्र ) उत्तम सुखप्रद राजन् ! ( त्वा ) तुझे ( हरयः ) अश्व और विद्वान् ( आ वहन्तु ) दूर २ तक ले जावें । हे ( अशन् ) प्रजाओं को चाहने वाले उनके प्रिय ! तू ( नः ) हम प्रजाजनों के ( हव्यानि ) अन्न आदि भोग्य पदार्थों को और युद्ध आदि राष्ट्रकार्यों को ( प्रति मुञ्च ) ग्रहण कर । आचार्य के पक्ष में—वह प्रिय शिष्यों के साथ प्रसन्न होकर रहे । वह ( शिप्रे धेने) ऐहिक और पारमार्थिक सुखों और ज्ञान-वाणियों को प्रकट करे । ( हरयः ) विद्वान् शिष्य तुझे धारण करें। तू हम गृहस्थ जनों के अन्नों को स्वीकार कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आंगिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता । १, ४ निचृज्जगती । २, ५, ७ विराड् जगती ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् , ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ९,११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सेनापतीने सेनेच्या संपूर्ण अंगांना पूर्ण बलयुक्त करून प्रशिक्षित करावे. त्यांना युद्धासाठी सिद्ध करून संपूर्ण विघ्नांची निवृत्ती करून आपल्या राज्याचे उत्तम रक्षण करावे व सर्व प्रजेला सदैव आनंदित करावे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of light, power and joy, come by the lights of the dawn, they are yours. Find the heaven and earth of freedom and open the flood-gates of song and joy. Lord of noble helmet, let your horses of the speed of lightning transport you hither. Come to us and, in a mood of love and ecstasy, celebrate and bless our gifts of action and homage in our yajna of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should Indra (a Commander of the army) do is taught further in the tenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (Commander of the Army. possessing great wealth of strength) and conveyor of good happiness), gladden us with thy well-trained good steeds. Make heaven and earth givers of all delight and like sweet speech, givers of the juice of all bliss and at the time of Banaprastha, give up everything to devote thyself to the worship of God. O bringer of good joy, let thy horses etc. bring thee who art desirous of our welfare to us and who accepts when occasion demands, battle and other suitable acts. Be source of happiness and joy to us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(हरिभिः) प्रशस्तैर्युद्धकुशलै: सुशिक्षितेरश्वादिभिः = By well trained good horses, experts in battles. (शिप्रे) सर्व सुख प्रापिके द्यावापृथिव्यौ शिप्रे इति पदनाम (निघ० ४.१ ) पद गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र प्राप्त्यर्थमादाय सर्व सुख प्रापिकै इति व्याख्यातं दयानन्दर्षिणा | तथैव (सुशिप्र) सुष्ठु सुख प्रापक = Conveyor of good delight. (हव्यानि) आदातुं योग्यानि युद्धादिकर्माणि । = Acceptable acts like the battles etc.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the commander in chief of the Army to gladden all people by organizing all parts or divisions of the army and making them mighty and trained. He should cast away all obstacles and should protect and preserve his Swarajya or own Government.
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