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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 101/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    यो विश्व॑स्य॒ जग॑तः प्राण॒तस्पति॒र्यो ब्र॒ह्मणे॑ प्रथ॒मो गा अवि॑न्दत्। इन्द्रो॒ यो दस्यूँ॒रध॑राँ अ॒वाति॑रन्म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । विश्व॑स्य । जग॑तः । प्रा॒ण॒तः । पतिः॑ । यः । ब्र॒ह्मणे॑ । प्रथ॒मः । गाः । अवि॑न्दत् । इन्द्रः॑ । यः । दस्यू॑न् । अध॑रान् । अ॒व॒ऽअति॑रत् । म॒रुत्व॑न्तम् । स॒ख्याय॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्यो ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत्। इन्द्रो यो दस्यूँरधराँ अवातिरन्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। विश्वस्य। जगतः। प्राणतः। पतिः। यः। ब्रह्मणे। प्रथमः। गाः। अविन्दत्। इन्द्रः। यः। दस्यून्। अधरान्। अवऽअतिरत्। मरुत्वन्तम्। सख्याय। हवामहे ॥ १.१०१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 101; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सेनाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    यः प्रथम इन्द्रो ब्रह्मणे गा अविन्दत्। यो दस्यूनधरानवातिरत्। यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्वर्त्तते तं मरुत्वन्तं सख्याय वयं हवामहे ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (यः) सेनापतिः (विश्वस्य) समग्रस्य (जगतः) जङ्गमस्य (प्राणतः) प्राणतो जीवतः। अत्र षष्ठ्याः पतिपुत्र०। (अ० ८। ३। ५३। ) इति विसर्जनीयस्य सः। (पतिः) अधिष्ठाता (यः) प्रदाता (ब्रह्मणे) चतुर्वेदविदे (प्रथमः) सर्वस्य प्रथयिता। अत्र प्रथेरमच्। उ० ५। ६८। (गाः) पृथिवीरिन्द्रियाणि प्रकाशयुक्तान् लोकान् वा (अविन्दन्) प्राप्नोति (इन्द्रः) इन्द्रियवान् जीवः (यः) शौर्यादिगुणयुक्तः (दस्यून्) सहसा परपदार्थहर्त्तॄन् (अधरान्) नीचान् (अवातिरत्) अधःप्रापयति (मरुत्वन्त०) इति पूर्ववत् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    पुरुषार्थेन विना विद्याऽन्नधनप्राप्तिर्न जायते शत्रुपराजयश्च। यो धार्मिकः सेनाध्यक्षः सुहृद्भावेन स्वप्राणवत्सर्वान्प्रीणयति तस्य कदाचित्खलु दुःखं न जायते तस्मादेतत्सदाचरणीयम् ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब सेनाध्यक्ष कैसा होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यः) जो उत्तम दानशील (प्रथमः) सबका विख्यात करनेवाला (इन्द्रः) इन्द्रियों से युक्त जीव (ब्रह्मणे) चारों वेदों के जाननेवाले के लिये (गाः) पृथिवी, इन्द्रियों और प्रकाशयुक्त लोकों को (अविन्दत्) प्राप्त होता वा (यः) जो शूरता आदि गुणवाला वीर (दस्यून्) हठ से औरों का धन हरनेवालों को (अधरान्) नीचता को प्राप्त कराता हुआ (अवातिरत्) अधोगति को पहुँचाता वा (यः) जो सेनाधिपति (विश्वस्य) समग्र (जगतः) जङ्गमरूप (प्राणतः) जीवते जीवसमूह का (पतिः) अधिपति अर्थात् स्वामी हो, उस (मरुत्वन्तम्) अपने समीप पढ़ानेवालों को रखनेवाले सभाध्यक्ष को हम लोग (सख्याय) मित्रपन के लिये (हवामहे) स्वीकार करते हैं ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    पुरुषार्थ के विना विद्या, अन्न और धन की प्राप्ति तथा शत्रुओं का पराजय नहीं हो सकता, जो धार्मिक सेनाध्यक्ष सुहृद्भाव से अपने प्राण के समान सबको प्रसन्न करता है, उस पुरुष को निश्चय है कि कभी दुःख नहीं होता, इससे उक्त विषय का आचरण सदा करना चाहिये ॥ ५ ॥

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    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे मनुष्यो ! (यः)  जो सब (विश्वस्य जगतः) जगत् [स्थावर], जड़, अप्राणी का और (प्राणतः) चेतनावाले जगत् का (पतिः)  अधिष्ठाता और पालक है तथा (प्रथमः)  जो सब जगत् के प्रथम सदा से है और (ब्रह्मणे, गाः, अविन्दत्) जिसने यही नियम किया है कि ब्रह्म, अर्थात् विद्वान् के लिए पृथिवी का लाभ और उसका राज्य है और जो (इन्द्रः)  परमैश्वर्यवान् परमात्मा (दस्यून्) डाकुओं को (अधरान्) नीचे गिराता है तथा उनको (अवातिरत्) मार ही डालता है। (मरुत्वन्तं, सख्याय, हवामहे) आओ मित्रो ! भाई लोगो ! अपन सब सम्प्रीति से मिलके मरुत्वान्, अर्थात् परमानन्त बलवाले इन्द्रपरमात्मा को सखा होने के लिए प्रार्थना से अत्यन्त गद्गद होके बुलावें । वह शीघ्र ही कृपा करके अपन से सखित्व [परम मित्रता ] करेगा, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं ॥४४॥ 

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    विषय

    जीवन , ज्ञान व दस्यु - संहार

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (विश्वस्य) = सम्पूर्ण (जगतः) = गतिशील (प्राणतः) = प्राणधारी के (पतिः) = रक्षक व स्वामी हैं । वे प्रभु ही इस संसार को बनाते हैं । चराचर जगत् के निर्माता वे प्रभु ही सबका धारण भी करते हैं । कर्मानुसार वे सब जीवों को विविध योनियों में भेजते हैं । वे सब जीवों को गतिशक्ति व प्राणशक्ति प्राप्त कराते हैं । 

    २. इन जीवों में सर्वोत्कृष्ट स्थिति ब्रह्मा की है । प्राणी सात्विक , राजस् व तामस् तीन श्रेणियों में विभक्त हैं । इन तीनों की फिर तीन - तीन श्रेणियाँ हैं । सात्त्विकों में भी जो उत्तम श्रेणी , उस श्रेणी में भी उत्तम स्थान ब्रह्मा का है । प्रभु वे हैं (यः) = जोकि (प्रथमः) = सबसे प्रथम होते हुए (ब्रह्मणे) = इस ब्रह्मा के लिए (गाः) = वेदवाणियों को (अविन्दत्) = प्राप्त कराते हैं - “यो वै ब्रह्माणं विदधाति पूर्व वेदाँश्च सर्वान् प्रहिणोति तस्मै” । 

    ३. इस प्रकार (यः इन्द्रः) = जो सर्वशक्तिमान् प्रभु ज्ञान प्राप्त कराके (दस्यून्) = हमारी सब दास्यव वृत्तियों को (अधरान् अवातिरत्) = नीचे नष्ट कर देते हैं , पाँवों - तले कुचल देते हैं , उस (मरुत्वन्तम्) = प्राणोंवाले प्रभु को (सख्याय) = मित्रता के लिए (हवामहे) = हम पुकारते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु जीवन देकर वेदरूप ज्ञान देते हैं और इस ज्ञान द्वारा हमारी आसुरवृत्तियों को नष्ट करते हैं । 
     

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    विषय

    उनके सखित्व, प्रेम और सौहार्द की याचना ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो परमेश्वर ( जगतः ) जंगम ( प्राणतः ) प्राणधारी ( विश्वस्य ) समस्त संसार का (पतिः) पालनकर्ता है । और ( यः ) जो ( ब्रह्मणे ) महान् सामर्थ्यवान् वेदज्ञ विद्वान् को ( प्रथमः ) सब से प्रथम, आद्य गुरु होकर ( गाः ) वेदवाणियों का ( अविन्दत् ) उपदेश करता है । और ( यः ) जो ( इन्द्रः ) परमेश्वर ( दस्यून् ) सज्जनों और अन्य प्राणियों को नाश करनेवाले दुष्ट पुरुषों को ( अधरान् ) नीचे, दुःखदायी लोकों या जन्मों को ( अवातिरत् ) पहुंचाता है उस ( मरुत्वन्तम् ) समस्त प्राणधारियों के स्वामी परमेश्वर को हम ( सख्याय हवामहे ) अपने परम मित्र भाव के लिये स्वीकार करें, उसको हम अपना परम सखा मानें । राष्ट्रपति के पक्ष में—जो राष्ट्र के सब जंगम पशु और प्राणियों का पालक है, जो वेदज्ञ विद्वान् को भूमि और पशुओं का दान करे, दुष्टों को नीचे गिरावे वह हम प्रजाओं का मित्र हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आंगिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता । १, ४ निचृज्जगती । २, ५, ७ विराड् जगती ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् , ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ९,११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    पुरुषार्थाशिवाय विद्या, अन्न, धनाची प्राप्ती व शत्रूंचा पराभव होऊ शकत नाही. जो धार्मिक सेनाध्यक्ष सुहृदभावाने आपल्या प्राणाप्रमाणे सर्वांना प्रसन्न करतो त्या पुरुषाला कधीही दुःख होत नाही. त्यामुळे अशा प्रकारचे आचरण सदैव करावे. ॥ ५ ॥

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    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    हे मनुष्यांनो ! जो सर्व [स्थावर] जड आणि (प्राणतः) चेतनायुक्त जगाचा (पतिः) आधिष्ठाता आणि पालक आहे. तो संपूर्ण जग निर्माण होण्यापूर्वीपासून वर्तमान आहे आणि (ब्रह्मणे गाः अविन्दत्) ज्या परमेश्वराने हा नियम केला आहे की (ब्रह्म) त्याचे राज्य व पृथ्वीचा लाभ हा विद्वानांसाठी आहे आणि जो (इन्द्रः) अत्यंत ऐश्वर्य बाळगणारा परमेश्वर डाकूना (अधरान्) पराजित करतो, अपमानित करतो व त्यांना नष्ट करतो. (मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे) हे मित्रांनो बंधूनो! आपण सर्वांनी मिळून प्रेमाने (मरुत्वान्) अत्यंत बलवान अशा इंद्र परमात्यामाला सखा बनविण्यासाठी तन्मयतेने प्रार्थना करावी. तो तात्काळ आपल्यावर कृपा करील व आपल्याशी सख्यत्व जोडील. यात संशय नाही ॥४४॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra is the lord ruler, controller and sustainer of all the moving and breathing universe. He is the first, creator manifestive in expanding space who created the mind and senses and the moving earths for the living creatures. He is the lord of law and justice who throws down the wicked to the darkest caverns. We invoke and pray to Indra, lord of Maruts, for our protection and support as his dear ones and friends.

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    Purport

    O Men! God is the Supreme Ruler and Protector of the whole universe comprising the animate and inanimate. He exists from the very beginning of the world. He has chalked out the rule that the earth and His kingdom is only for the learned. The Bounteous Supreme God brings down the decoits and in the end He kills them. O brethren and friends! Come, let us join together with love and affaction and in a sobbing voice pray to Lord of infinite power to become our friend. He very soon will bless us with His divine friendship, there is no doubt about it.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We invoke for friendship that Indra (commander of the army) who is the best, controller of animate and inanimate things, giver of the land to the knower of all Vedas and who with his might, subdues wicked robbers and thieves.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ब्रह्मरणे) चतुर्वेदविदे = For the knower of the four Vedas. (प्रथम:) सर्वस्य प्रथयिता अत्र प्रथेरमच् उणा० ५.६८, (इन्द्र) इन्द्रियवान् जीवः = Soul. (दस्यून् ) सहसा परपदार्थहतृन् = Robbers and thieves. (अधरान्) नीचान् = Wicked.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Without exertion one cannot acquire knowledge, wealth and food and can not over come his adversaries. The commander of the Army who treats all his own self and gladdens them, does not suffer. Therefore all should behave in accordance with the above teaching.

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    नेपाली (1)

    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे मनुष्य गण ! यः= जुन सम्पूर्ण विश्वस्य जगतः = जगत् अर्थात् स्थावर, जड, अप्राणी को र प्राणतः = चेतनायुक्त जगत् को पतिः = अधिष्ठाता र पालक हो तथा प्रथमः = जुन सम्पूर्ण जगत् को =पहिलो जो सदा देखि छ र ब्राह्मणे, गाः, अविन्दत्:= जसले यही नियम बनाई राखेको छ कि ब्रह्म अर्थात् विद्वान् का लागि पृथिवी को लाभ र तेसको राज्य छ र जुन इन्द्रः = परम ऐश्वर्यवान् परमात्मा दस्यून् = डाँका हरु लाई अधरान्= तल खँदार्द छ र तिनलाई अवातिरत् = मारि नै हाल्द छ । मरुत्वन्तं, सख्याय, हवामहे आओ मित्रहरु तथा भाईहरु हो! हामी सबै सम्प्रीति ले मिलेर मरुत्वान् अर्थात् परम अनन्त बलशाली इन्द्र परमात्मा लाई सखा भई दिनु हुनका लागी गद्गद् भएर पुकारौं । वहाँ ले भट्टै नै कृपा गरेर हामीसंग सखित्व [परममित्रता] गर्नु हुर्ने छ, एसमा अलिकति पनि सन्देह छैन ॥४४॥ 

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