ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 101/ मन्त्र 8
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यद्वा॑ मरुत्वः पर॒मे स॒धस्थे॒ यद्वा॑व॒मे वृ॒जने॑ मा॒दया॑से। अत॒ आ या॑ह्यध्व॒रं नो॒ अच्छा॑ त्वा॒या ह॒विश्च॑कृमा सत्यराधः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वा॒ । म॒रु॒त्वः॒ । प॒र॒मे । स॒धऽस्थे॑ । यत् । वा॒ । अ॒व॒मे । वृ॒जने॑ । मा॒दया॑से । अतः॑ । आ । या॒हि॒ । अ॒ध्व॒रम् । नः॒ । अच्छ॑ । त्वा॒ऽया । ह॒विः । च॒कृ॒म॒ । स॒त्य॒ऽरा॒धः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वा मरुत्वः परमे सधस्थे यद्वावमे वृजने मादयासे। अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा त्वाया हविश्चकृमा सत्यराधः ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। वा। मरुत्वः। परमे। सधऽस्थे। यत्। वा। अवमे। वृजने। मादयासे। अतः। आ। याहि। अध्वरम्। नः। अच्छ। त्वाऽया। हविः। चकृम। सत्यऽराधः ॥ १.१०१.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 101; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शालाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे मरुत्वः सत्यराधो विद्वान् यद्यतस्त्वं परमे यद्यतो वाऽवमे वा वृजने व्यवहारे मादयासेऽतो नोऽस्माकमध्वरमच्छायाहि त्वाया सह वर्त्तमाना वयं हविश्चकृम ॥ ८ ॥
पदार्थः
(यत्) यतः (वा) उत्तमे (मरुत्वः) प्रशस्तविद्यायुक्त (परमे) अत्यन्तोत्कृष्टे (सधस्थे) स्थाने (यत्) यतः (वा) मध्यमे व्यवहारे (अवमे) निकृष्टे (वृजने) वर्जन्ति दुःखानि जना यत्र तस्मिन् व्यवहारे (मादयासे) हर्षयसे। लेट्प्रयोगोऽयम्। (अतः) कारणात् (आ) (याहि) प्राप्नुयाः (अध्वरम्) अध्ययनाध्यापनाख्यमहिंसनीयं यज्ञम् (नः) अस्माकम् (अच्छ) उत्तमरीत्या। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (त्वाया) त्वया सुपां सुलुगिति तृतीयास्थानेऽयाजादेशः। (हविः) आदेयं विज्ञानम् (चकृम) कुर्याम। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (सत्यराधैः) सत्यानि राधांसि विद्यादिधनानि यस्य तत्सम्बुद्धौ ॥ ८ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यो विद्वान् सर्वत्रानन्दयिता विद्याप्रदाता सत्यगुणकर्मस्वभावोऽस्ति तत्सङ्गेन सततं सर्वा विद्याः सुशिक्षाश्च प्राप्य सर्वदानन्दितव्यम् ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शाला आदि का अधिपति कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (मरुत्वः) प्रशंसित विद्यायुक्त (सत्यराधः) विद्या आदि सत्यधनोंवाले विद्वान् ! (यत्) जिस कारण आप (परमे) अत्यन्त उत्कृष्ट (सधस्थे) स्थान में और (यत्) जिस कारण (वा) उत्तम (अवमे) अधम (वा) वा मध्यम व्यवहार में (वृजने) कि जिसमें मनुष्य दुःखों को छोड़े (मादयासे) आनन्द देते हैं (अतः) इस कारण (नः) हम लोगों के (अध्वरम्) पढ़ने-पढ़ाने के अहिंसनीय अर्थात् न छोड़ने योग्य यज्ञ को (अच्छ) अच्छे प्रकार (आ, याहि) आओ प्राप्त होओ (त्वाया) आपके साथ हम लोग (हविः) ग्रहण करने योग्य विशेष ज्ञान को (चकृम) करें अर्थात् उस विद्या को प्राप्त होवें ॥ ८ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि जो विद्वान् सर्वत्र आनन्दित कराने और विद्या का देनेहारा सत्यगुण, कर्म और स्वभावयुक्त है, उसके संग से निरन्तर समस्त विद्या और उत्तम शिक्षा को पाकर सर्वदा आनन्दित होवें ॥ ८ ॥
विषय
प्रभु व जीवनयज्ञ
पदार्थ
१. हे (मरुत्वः) = प्राणों व वायुओंवाले प्रभो ! आप (यद्वा) = चाहे (परमे) = सर्वोत्कृष्ट (सधस्थे) = जीवात्मा व परमात्मा के मिलकर रहने के स्थान में अर्थात् हृदयकोश में (मादयासे) = आनन्दित होकर निवास करते हैं , (यद्वा) = अथवा (अवमे वृजने) = इस निचले आकाशप्रदेश में (मादयासे) = आनन्दपूर्वक निवास करते है , अतः उस सधस्थ हृदयदेश से अथवा इस (अवम) = आकाश प्रदेश से (नः) = हमारे (अध्वरं अच्छ) = जीवन - यज्ञ की ओर (आयाहि) = प्राप्त होओ । आपके द्वारा ही हमारा यह जीवन - यज्ञ सुन्दरता से पूर्ण होता है । हे (सत्यराधः) = सत्य को सिद्ध करनेवाले व सत्यधनवाले प्रभो ! (त्वाया) = आपकी प्राप्ति के हेतु से ही हम (हविः चकृमः) = दानपूर्वक अदन की वृत्ति को अपनाते हैं । हवि के द्वारा ही आपका पूजन होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - वे सर्वव्यापक प्रभु ही हमारे जीवन - यज्ञ को चलाते हैं । प्रभु - प्राप्ति के लिए हमें हवि का स्वीकार करना है ।
विषय
उनके सखित्व, प्रेम और सौहार्द की याचना ।
भावार्थ
हे ( मरुत्वः ) वीर सैनिक पुरुषों के अध्यक्ष ! ( यद् वा ) चाहे तू ( परमे सधस्थे ) सर्वोत्तम स्थान में (यद्वा) या ( अवमें ) निकृष्ट, शुद्ध ( वृजने ) घर या जीवन दुःखों के दूर करने के वृत्त्युपाय में ( मादयासे ) तृप्त होकर रहे तो भी तू ( नः ) हमारे (अध्वरं आयाहि) यज्ञ, या स्थिर राज्य शासन को ( आयाहि ) प्राप्त हो । ( त्वाया ) तेरी कामना से या तेरे सहित हम लोग ( सत्यराधः ) सत्य ऐश्वर्य युक्त एवं सत्य आराधन से युक्त (हविः) अन्नादि उत्तम पदार्थ (चकृम) प्राप्त करें । (२) इसी प्रकार विद्वान आचार्य भी चाहे ऊचे से ऊंचे स्थान या पद को प्राप्त हो या वह छोटी से छोटी स्थिति पर हो वह हमारे ( अध्वरं ) श्रेष्ठ कार्य में आवे उसके लिये हम सच्चे हृदय से अन्नादि दें, सत्कार करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आंगिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता । १, ४ निचृज्जगती । २, ५, ७ विराड् जगती ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् , ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ९,११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो विद्वान सर्वत्र आनंद पसरविणारा, विद्या देणारा, सत्य गुण, कर्म, स्वभावयुक्त आहे, त्याच्या संगतीने निरंतर विद्या व उत्तम शिक्षण प्राप्त करून माणसांनी नेहमी आनंदित राहावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of Maruts, tempestuous dynamics of divine energy, whether you are in the highest heaven of creation or at the lowest plane of space, there you rejoice and create joy for the play of life. Lord of light and the power of joy, come to our yajna of the will to live, and come well, happy and rejoicing. We are your own, lord of real wealth of success and giver of bliss. We are ready with holy and fragrant yajnic havi.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should be an Indra (President of the Educational Institute ) is taught in the 8th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person endowed with excellent knowledge, O giver of true wealth of wisdom, whether thou art pleased to dwell in stately mansion or in an humble dwelling or dealing which makes men get rid of suffering, come well to our non-violent and inviolable sacrifice of studying and teaching. Living with thee, we obtain most acceptable good knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मरुत्व:) प्रशस्तविद्यायुक्त = Endowed with excellent knowledge. (वृजने) वर्जन्ति दुःखानि जना यत्र तस्मिन् व्यवहारे । = In a dealing in which men get rid of all suffering or misery. (अध्वरम्) अध्ययनाध्यापनाख्यम् अहिंसनीयं यज्ञम् । = Inviolable sacrifice in the form of studying and teaching. (हवि:) अदेयं विज्ञानम् = Acceptable good knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should enjoy all bliss by the association of a learned person, who is giver of knowledge, gladdener of all and true in mind, word and deed. They should acquire all true knowledge from him.
Translator's Notes
ध्वरति हिंसा कर्मातत्प्रतिषेधः (निरुक़्ते २.७) हु-दानादनयोः आदाने च अत्र आदानार्थग्रहणं कृतमृषिणा दयानन्देन ।
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