ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 101/ मन्त्र 7
रु॒द्राणा॑मेति प्र॒दिशा॑ विचक्ष॒णो रु॒द्रेभि॒र्योषा॑ तनुते पृ॒थु ज्रय॑:। इन्द्रं॑ मनी॒षा अ॒भ्य॑र्चति श्रु॒तं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥
स्वर सहित पद पाठरु॒द्रा॒णा॑म् । ए॒ति॒ । प्र॒ऽदिशा॑ । वि॒ऽच॒क्ष॒णः । रु॒द्रेभिः॑ । योषा॑ । त॒नु॒ते॒ । पृ॒थु । ज्रयः॑ । इन्द्र॑म् । म॒नी॒षा । अ॒भि । अ॒र्च॒ति॒ । श्रु॒तम् । म॒रुत्व॑न्तम् । स॒ख्याय॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रुद्राणामेति प्रदिशा विचक्षणो रुद्रेभिर्योषा तनुते पृथु ज्रय:। इन्द्रं मनीषा अभ्यर्चति श्रुतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठरुद्राणाम्। एति। प्रऽदिशा। विऽचक्षणः। रुद्रेभिः। योषा। तनुते। पृथु। ज्रयः। इन्द्रम्। मनीषा। अभि। अर्चति। श्रुतम्। मरुत्वन्तम्। सख्याय। हवामहे ॥ १.१०१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 101; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
विचक्षणो विद्वान् रुद्राणां पृथु ज्रय एति रुद्रेभिर्योषा तत् तनुते चातो यो विचक्षणो मनीषा श्रुतमिन्द्रमभ्यर्चति तं मरुत्वन्तं सख्याय वयं हवामहे ॥ ७ ॥
पदार्थः
(रुद्राणाम्) प्राणानामिव दुष्टान् रोदयताम् (एति) प्राप्नोति (प्रदिशा) प्रदेशेन ज्ञानमार्गेण। अत्र घञर्थे कविधानमिति कः सुपां सुलुगित्याकारादेशश्च। (विचक्षणः) प्रशस्तचातुर्यादिगुणोपेतः (रुद्रेभिः) प्राणैर्विद्यार्थिभिः सह (योषा) विद्याभिर्मिश्रिताया अविद्याभिः पृथग्भूतायाः स्त्रियाः। अत्र यु धातोर्बाहुलकात्कर्मणि सः प्रत्ययः। (तनुते) विस्तृणाति (पृथु) विस्तीर्णम्। प्रथिम्रदिभ्रस्जां संप्रसारणं सलोपश्च। उ० १। २८। इति प्रथधातोः कुः प्रत्ययः संप्रसारणं च। (ज्रयः) तेजः (इन्द्रम्) शालाद्यधिपतिम् (मनीषा) मनीषया प्रशस्तबुद्ध्या। अत्र सुपां सुलुगिति तृतीयाया एकवचनस्याकारादेशः। (अभि) (अर्चति) सत्करोति (श्रुतम्) प्रख्यातम् (मरुत्वन्तं०) इति पूर्ववत् ॥ ७ ॥
भावार्थः
यैर्मनुष्यैः प्राणायामैः प्राणान् सत्कारेण श्रेष्ठान् तिरस्कारेण दुष्टान् विजित्य सकला विद्या विस्तार्य्य परमेश्वरमध्यापकं वाभ्यर्च्योपकारेण सर्वे प्राणिनः सत्क्रियन्ते ते सुखिनो भवन्ति ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(विचक्षणः) प्रशंसित चतुराई आदि गुणों से युक्त विद्वान् (रुद्राणाम्) प्राणों के समान बुरे-भलों को रुलाते हुए विद्वानों के (प्रदिशा) ज्ञानमार्ग से (पृथु) विस्तृत (ज्रयः) प्रताप को (एति) प्राप्त होता है और (रुद्रेभिः) प्राण वा छोटे-छोटे विद्यार्थियों के साथ (योषा) विद्या से मिली और मूर्खपन से अलग हुई स्त्री उसको (तनुते) विस्तारती है, इससे जो विचक्षण विद्वान् (मनीषा) प्रशंसित बुद्धि से (श्रुतम्) प्रख्यात (इन्द्रम्) शाला आदि के अध्यक्ष का (अभ्यर्चति) सब ओर से सत्कार करता उस (मरुत्वन्तम्) अपने समीप पढ़ानेवालों को रखनेवाले को (सख्याय) मित्रपन के लिये हम लोग (हवामहे) स्वीकार करते हैं ॥ ७ ॥
भावार्थ
जिन मनुष्यों से प्राणायामों से प्राणों को, सत्कार से श्रेष्ठों और तिरस्कार से दुष्टों को वश में कर समस्त विद्याओं को फैलाकर परमेश्वर वा अध्यापक का अच्छे प्रकार मान-सत्कार करके उपकार के साथ सब प्राणी सत्कारयुक्त किये जाते हैं, वे सुखी होते हैं ॥ ७ ॥
विषय
ज्ञान + तेज
पदार्थ
१. (विचक्षणः) = ज्ञानी पुरुष (रुद्राणाम्) = कामादि शत्रुओं को रुलानेवाले प्राणों के (प्रदिशा) = मार्ग से (एति) = गति करता है । ज्ञानी प्राणसाधना के मार्ग पर चलता है । प्राणायाम से इन्द्रिय - दोष नष्ट हो जाते हैं , यही कामादि शत्रुओं का रोदन है , मानो वे अपने घर से निकाल दिये जाते हैं ।
२. (रुद्रेभिः) = इन कामादि शत्रुओं को रुलानेवाले प्राणों से ही (योषा) = वेदवाणी प्राप्त होती है [योषा हि वाक् - शत० १/४/४/४] । इन्हीं से (पृथुः) = विस्तृत (ज्रयः) = तेज को [ज्रि - to overpower , conquer] (तनुते) = मनुष्य विस्तृत करता है । प्राणसाधना से सोम - वीर्य की ऊर्ध्वगति होकर जहाँ शक्ति की वृद्धि होती है , वहाँ यह सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है , अर्थात् ज्ञान - वृद्धि का कारण बनता है । (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली परमात्मा को (मनीषा) = बुद्धि (अभ्यर्चति) = पूजती है । तीव्रबुद्धि से ही तो प्रभु का दर्शन होता है । यह बुद्धि (श्रुतम्) = ज्ञान का अर्चन करती है । बुद्धि से ज्ञानोपार्जन के द्वारा हम सृष्टि में प्रभु की महिमा को देखते हैं और इस (मरुत्वन्तम्) = प्राणों व वायुओंवाले प्रभु को (सख्याय) = मित्रता के लिए (हवामहे) = पुकारते हैं । इन प्राणों की साधना ही तो हमें प्रभु के समीप पहुँचानेवाली होती है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से ज्ञान और तेज की वृद्धि करके हम प्रभु के सान्निध्यवाले होते हैं ।
विषय
उनके सखित्व, प्रेम और सौहार्द की याचना ।
भावार्थ
जो (विचक्षणः) उत्तम चातुर्य आदि गुणों वाला, विविध विद्याओं तथा प्रजा के शासन कार्यों को देखने हारा, विद्वान् होकर ( रुद्राणाम् ) शत्रुओं को रुलाने वाले वीर पुरुषों के ( प्रदिशा ) उत्तम शासन तथा ( रुद्राणां ) ज्ञानोपदेष्टश जनों के ( प्रदिशा ) उत्तम अनु-शासन, प्रदेश या उपदेश से ( पृथुज्रयः ) बड़े भारी बल को प्राप्त कर लेता है और जैसे (योषा) स्त्री या भेद नीति की वाणी भी जिस प्रकार (रुद्रेभिः) वीर पुरुषों की सहायता से बड़ा शत्रु संहारक बल प्रकट कर सकती है उसी प्रकार जो राजा ( रुद्रेभिः ) शत्रुओं को रुलाने वाले वीरों के सहायता से ( पृथुज्रयः तनुते ) बड़ा बल बढ़ा लेता है और जिस ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् और बलवान् ( श्रुतं ) प्रसिद्ध पुरुष को ( मनीषा श्रुतम् ) गुरूपदिष्ट वेद-वचन को बुद्धि के समान ( मनीषा अभि अर्चति ) स्तुति वाणी साक्षात् स्तुति करती है उस ( मरुत्वन्तं संख्याय हवामहे ) वीर पुरुषों के स्वामी पुरुष को हम अपने मित्र भाव के लिये स्वीकार करते हैं । आचार्य के पक्ष में—आचार्य ( रुद्राणाम् ) शिष्यों के अनुशासन से अधिक बल प्राप्त करता है । ( योषा ) वाणी भी विदुषी स्त्री के समान ( रुद्रेभिः ) शिष्यों या प्राणों के द्वारा ही बड़ा बल बढ़ाती है । बुद्धि द्वारा ही विस्तृत होकर ( श्रुतं ) गुरुपदेश को भी ( इन्द्रं ) उस इन्द्र अर्थात् आचार्य का ही आदर करती है । उसी ( मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ) विद्यार्थियों के परम गुरु को हम भी स्वीकार करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आंगिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता । १, ४ निचृज्जगती । २, ५, ७ विराड् जगती ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् , ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ९,११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे प्राणायामाने प्राणांना, सत्काराने श्रेष्ठांना, तिरस्काराने दुष्टांना वशमध्ये ठेवतात, त्यांच्याकडून संपूर्ण विद्यांचा प्रसार होतो. परमेश्वर व अध्यापकाचा चांगला मान व सत्कार केला जातो. उपकारपूर्वक सर्व प्राण्यांचा सत्कार केला जातो. त्यामुळे ते सुखी होतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Lord of intelligence, Indra, acts by the paths of Rudras, that is, Maruts, powers of law and dispensation and the process of formation and reformation. With the Rudras, waves of Maruts’ energy, the dawn expands the lights of the day. Intelligence and mind invoke the famous powers of Indra, waves of Maruts, as they act in thought. That Indra, lord of the Maruts’ motion and energy in space, we invoke for support as divine friend and benefactor for progress and prosperity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
An expert learned person gets vast splendor following the directions of the scholars who are like the Pranas and who make wicked persons weep (out of repentance). A learned lady who is endowed with knowledge and free from ignorance develops that splendor with the practice of Pranayama and living along with young students. Therefore we invoke for friendship that Indra (President of the Educational Institute) with other scholars who honor that renowned scholar with noble intellect.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(रुद्राणाम्) दुष्टान् श्रेष्ठान् च रोदयतां प्राणानाम् इव = Like the Pranas which make people weep when leaving body. (प्रदिशा) प्रदेशेन-ज्ञानमार्गेण । अत्र घञर्थे क विधानम् इति कः सुपांसुलुक इत्याकारादेशश्च । = According to the directions of. (योषा) विद्याभिर्मिश्रिताया अविद्याभिः पृथक्भूतायाः स्त्रिया: । अत्र यु मिश्रणामिश्रणयोरिति धातोर्बाहुलकात् कर्मणि सः प्रत्ययः ॥ = Of a learned lady endowed with knowledge and free from ignorance. (जयः) तेज: = Splendor (इन्द्रम्) शालाद्यधिपतिम् = The President of the Educational Institute.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons enjoy happiness who conquer or have control of their Pranas (Vital breaths) with the practice of Pranayama, win good men with honor and overcome wicked persons with showing disrespect, who diffuse the knowledge of all sciences, adore God and noble preceptor and show respect to all beings by benevolent acts.
Translator's Notes
प्राणा वै रुद्राः | प्राणा होदं सर्वं रोदयन्ति ॥ (जैमिनीयोपनिषेद् ब्राह्मणम् ४. २. ६) । कतमे रुद्रा इति दशेमे पुरुष प्राणाः आत्मा एकादश: तेयदस्मान्मर्त्याच्छरीरादुत्क्रामन्त्यथ रोदयन्ति यद् रोदयन्ति तस्माद् रुद्रा इति (शतपथ ११. ६. ३. ७)
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