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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 101/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    यो अश्वा॑नां॒ यो गवां॒ गोप॑तिर्व॒शी य आ॑रि॒तः कर्म॑णिकर्मणि स्थि॒रः। वी॒ळोश्चि॒दिन्द्रो॒ यो असु॑न्वतो व॒धो म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । अश्वा॑नाम् । यः । गवा॑म् । गोऽप॑तिः । व॒शी । यः । आ॒रि॒तः । कर्म॑णिऽकर्मणि । स्थि॒रः । वी॒ळोः । चि॒त् । इन्द्रः॑ । यः । असु॑न्वतः । व॒धः । म॒रुत्व॑न्तम् । स॒ख्याय॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अश्वानां यो गवां गोपतिर्वशी य आरितः कर्मणिकर्मणि स्थिरः। वीळोश्चिदिन्द्रो यो असुन्वतो वधो मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। अश्वानाम्। यः। गवाम्। गोऽपतिः। वशी। यः। आरितः। कर्मणिऽकर्मणि। स्थिरः। वीळोः। चित्। इन्द्रः। यः। असुन्वतः। वधः। मरुत्वन्तम्। सख्याय। हवामहे ॥ १.१०१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 101; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सभाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    य इन्द्रः सभाद्यध्यक्षोऽश्वानामधिष्ठाता यो गवां रक्षकः, यो गोपतिर्वश्यारितः सन् कर्मणिकर्मणि स्थितो भवेद्योऽसुन्वतो वीळोर्वधश्चिद्धन्ता स्यात् तं मरुत्वन्तं सख्याय वयं हवामहे ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (यः) सभाद्यध्यक्षः (अश्वानाम्) तुरङ्गानाम् (यः) (गवाम्) गवां पृथिव्यादीनां वा (गोपतिः) गवां स्वेषामिन्द्रियाणां स्वामी (वशी) वशं कर्त्तुं शीलः (यः) (आरितः) सभया विज्ञापितः (कर्मणिकर्मणि) क्रियाणां क्रियायाम् (स्थिरः) निश्चलप्रवृत्तिः (वीळोः) बलवतः (चित्) इव (इन्द्रः) दुष्टानां विदारयिता (यः) (असुन्वतः) यज्ञकर्त्तृविरोधिनः (वधः) वज्र इव। वध इति वज्रनामसु पठितम्। निघं० २। २०। (मरुत्वन्तं०) इति पूर्ववत् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यः सर्वपालको जितेन्द्रियः शान्तो यत्र यत्र सभयाऽज्ञापितस्तस्मिँस्तस्मिन्नेव कर्मणि स्थिरबुद्ध्या प्रवर्त्तमानो दुष्टानां बलवतां शत्रूणां विजयकर्त्ता वर्त्तते तेन सह सततं मित्रतां संभाव्य सुखानि सदा भोक्तव्यानि ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सभाध्यक्ष कैसा होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यः) जो (इन्द्रः) दुष्टों का विनाश करनेवाला सभा आदि का अधिपति (अश्वानाम्) घोड़ों का अध्यक्ष (यः) जो (गवाम्) गौ आदि पशु वा पृथिवी आदि की रक्षा करनेवाला (यः) जो (गोपतिः) अपनी इन्द्रियों का स्वामी अर्थात् जितेन्द्रिय होकर अपनी इच्छा के अनुकूल उन इन्द्रियों को चलाने (वशी) और मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार को यथायोग्य वश में रखनेवाला (आरितः) सभा से आज्ञा को प्राप्त हुआ (कर्मणिकर्मणि) कर्म-कर्म में (स्थिरः) निश्चित (यः) जो (असुन्वतः) यज्ञकर्त्ताओं से विरोध करनेवाले (वीळोः) बलवान् को (वधः चित्) वज्र के तुल्य मारनेवाला हो, उस (मरुत्वन्तम्) अच्छे प्रशंसित पढ़ानेवालों को राखनेहारे सभापति को (सख्याय) मित्रता वा मित्र के काम के लिये (हवामहे) हम स्वीकार करते हैं ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो सबकी पालना करनेवाला जितेन्द्रिय, शान्त और जिस-जिस कर्म में सभा की आज्ञा को पावे उसी-उसी कर्म में स्थिरबुद्धि से प्रवर्त्तमान बलवान् दुष्ट शत्रुओं को जीतनेवाला हो, उसके साथ निरन्तर मित्रता की संभावना करके सुखों को सदा भोगें ॥ ४ ॥

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    विषय

    अश्वपति , गोपति

    पदार्थ

    १. (यः) = जो इन्द्र (अश्वानाम्) = अश्वों का व कर्मेन्द्रियों का (वशी) = वश में करनेवाला है । प्रभु के स्मरण से ही इनका वशीकरण सम्भव होता है । (यः) = जो प्रभु (गवां गोपतिः) = प्रशस्त गौओं के व उत्तम ज्ञानेन्द्रियों के स्वामी हैं । प्रभु के आराधन से ज्ञानेन्द्रियाँ उत्तमता से अपना कार्य करनेवाली होती हैं । (वशी) = ये सबको वश में करनेवाले प्रभु वे हैं (यः) = जो (आरितः) = स्तुति के द्वारा गये हुए (कर्मणिकर्मणि) = प्रत्येक कर्म में (स्थिरः) = स्थिर होते हैं , अर्थात् जब हम स्तुति के द्वारा प्रभु को प्राप्त होते हैं , तब प्रभु हमें सब उत्तम कर्मों में स्थिरता प्राप्त कराते हैं । प्रभुभक्त की बुद्धि स्थिर होती है । स्थित - प्रज्ञता के कारण ही वह स्थिरता से प्रत्येक काम को करनेवाला बनता है , डाँवाडोल नहीं बना रहता । 

    २. (इन्द्रः) = प्रभु वे हैं (यः) = जो (वीळोः चित्) = अत्यन्त बलवान् भी (असुन्वतः) = अयज्ञशील पुरुष के (वधः) = वध करनेवाले हैं , उस (मरुत्वन्तम्) = प्राणोंवाले प्रभु को (सख्याय) = मित्रता के लिए (हवामहे) = हम पुकारते हैं । प्राणसाधना से हमारे दोष दूर होकर हमारी वृत्ति यज्ञिय बनती है । यज्ञिय वृत्ति होने पर हम प्रभु से रक्षणीय होते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुभक्त को उत्तम कर्मेन्द्रियाँ , उत्तम ज्ञानेन्द्रियाँ , कर्मों में स्थिरता व यज्ञशीलता प्राप्त होती है । 
     

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    विषय

    उनके सखित्व, प्रेम और सौहार्द की याचना ।

    भावार्थ

    यः ) जो ( वशी ) प्रजाओं और अपनी इन्द्रियों को वश में रखने में समर्थ, जितेन्द्रिय, ( गोपतिः ) पृथिवीपति होकर ( अश्वानां ) अश्वों का और ( गवां ) गौओं का भी स्वामी है और ( यः ) जो ( स्थिरः ) स्थायी रूप से ( कर्मणि कर्मणि ) राष्ट्र के प्रत्येक कार्य में ( आरितः ) प्रस्तुत किया जाता और आघोषित किया जाता है और ( यः ) जो ( असुन्वत ) यज्ञादि कार्य, अभिषेक और विद्याप्राप्ति आदि करने वालों से भिन्न ( बीडोः ) बलवान् शत्रु का ( चित् ) भी ( वधः ) मारने वाला है उस ( मरुत्वन्तं संख्याय हवामहे ) प्रबल सैनिक पुरुषों और विद्वानों के स्वामी पुरुष को हम मित्रभाव के लिये स्वीकार करते हैं । (२) इसी प्रकार जो ( अश्वानां गवां ) कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों और को वश करने वाला होकर गोपति है अर्थात् प्रत्येक कार्य में स्थिर ज्ञानवान् है । जो आसनादि के प्रबल बाधक विघ्नकारी दुष्ट पाप को भी नाश करता है, उस परमेश्वर आचार्य और आत्मा को हम अपना सखा बनावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आंगिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता । १, ४ निचृज्जगती । २, ५, ७ विराड् जगती ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् , ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ९,११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथे वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो सर्वांचे पालन करणारा, जितेंद्रिय, शांत व सभेच्या आज्ञेप्रमाणे कर्मात स्थिरबुद्धीने स्थित असणारा, बलवान, दुष्ट शत्रूंना जिंकणारा असेल तर त्याच्याबरोबर माणसांनी निरंतर मैत्री करून सदैव सुख भोगावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For our protection, friendship and support, we invoke and pray to Indra, lord ruler of the universe and humanity. He is the lord of horses. He is the lord of cows and controller of the moving earths and fluctuating mind and senses. Ever conscious and wide-awake, he is constant and active in every act and every movement that happens in nature and humanity. Mighty powerful is he, friend of the pious, and the very stroke of death for the selfish uncreators and violators of yajna.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is the President of the Assembly is taught in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We invoke Indra (President of the Assembly) for friendship who is surrounded by learned priests, who is the protector of the horses, the cattle and the earth, is the controller and master of his senses, is constantly and firmly engaged in doing noble acts as decided by the assembly and who is the slayer of even powerful wicked person that is an opponent of the performers of the Yajnas (non-violent philanthropic acts), with thunderbolt-like powerful weapons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (गोपतिः) गवां स्वेषामिन्द्रियाणां स्वामी =The master of his senses. (आरितः) सभया विज्ञापित: = Informed or ordered by the Assembly (ऋ-गतिप्रापणयोः) == (असुन्वतः) यज्ञकर्तृ विरोधिनः = Opponent of the performers of the Yajnas. (वध:) वज्र: इव, वध इति वज्रनामसु (निघ० २.२०)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should keep friendship with that Indra (President of the Assembly or the state) who is protector of all, controller of his senses, peaceful, firm in constantly doing the acts ordered by the Assembly and the conqueror of even the mighty wicked enemies. Having firm friendship with such a righteous person, men should enjoy all happiness.

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