Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 101 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 101/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वा॒येन्द्र॒ सोमं॑ सुषुमा सुदक्ष त्वा॒या ह॒विश्च॑कृमा ब्रह्मवाहः। अधा॑ नियुत्व॒: सग॑णो म॒रुद्भि॑र॒स्मिन्य॒ज्ञे ब॒र्हिषि॑ मादयस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वा॒ऽया । इ॒न्द्र॒ । सोम॑म् । सु॒सु॒म॒ । सु॒ऽद॒क्ष॒ । त्वा॒ऽया । ह॒विः । च॒कृ॒म॒ । ब्र॒ह्म॒ऽवा॒हः॒ । अध॑ । नि॒ऽयु॒त्वः॒ । सऽग॑णः । म॒रुत्ऽभिः॑ । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे । ब॒र्हिषि॑ । मा॒द॒य॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वायेन्द्र सोमं सुषुमा सुदक्ष त्वाया हविश्चकृमा ब्रह्मवाहः। अधा नियुत्व: सगणो मरुद्भिरस्मिन्यज्ञे बर्हिषि मादयस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाऽया। इन्द्र। सोमम्। सुसुम। सुऽदक्ष। त्वाऽया। हविः। चकृम। ब्रह्मऽवाहः। अध। निऽयुत्वः। सऽगणः। मरुत्ऽभिः। अस्मिन्। यज्ञे। बर्हिषि। मादयस्व ॥ १.१०१.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 101; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तत्सङ्गेन किं कार्य्यं स चास्माकं यज्ञे किं कुर्यादित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र त्वाया त्वया सह वर्त्तमाना वयं सोमं सुसुम। हे सुदक्ष ब्रह्मवाहस्त्वाया त्वया सहिता वयं हविश्चकृम। हे नियुत्वोऽधाथा मरुद्भिः सहितः सगणस्त्वमस्मिन् बर्हिषि यज्ञेऽस्मान्मादयस्व ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (त्वाया) त्वया सहिताः (इन्द्र) परमविद्यैश्वर्ययुक्त (सोमम्) ऐश्वर्यकारकं वेदशास्त्रबोधम् (सुषुम) सुनुयाम प्राप्नुयाम। वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीतीडभावः। अन्येषामपीति दीर्घश्च। (सुदक्ष) शोभनं दक्षं चातुर्य्ययुक्तं बलं यस्य तत्सम्बुद्धौ। (त्वाया) त्वया सह संयुक्ताः (हविः) क्रियाकौशलयुक्तं कर्म (चकृम) विदध्याम। अत्राप्यन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (ब्रह्मवाहः) अनन्तधन वेदविद्याप्रापक (अध) अथ। अत्र वर्णव्यत्ययेन धकारो निपातस्य चेति दीर्घश्च। (नियुत्वः) समर्थ (सगणः) गणैर्विद्यार्थिनां समूहैः सह वर्त्तमानः (मरुद्भिः) ऋत्विग्भिः सहितः (अस्मिन्) प्रत्यक्षे (यज्ञे) अध्ययनाध्यापनसत्कारप्राप्ते व्यवहारे (बर्हिषि) अत्युत्तमे (मादयस्व) आनन्दय हर्षितो वा भव ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    नहि विदुषां सङ्गेन विना कश्चित् खलु विद्यैश्वर्य्यमानन्दं च प्राप्तुं शक्नोति तस्मात्सर्वे मनुष्या विदुषः सदा सत्कृत्यैतेभ्यो विद्यासुशिक्षाः प्राप्य सर्वथा सत्कृता भवन्तु ॥ ९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसके सङ्ग से क्या करना चाहिये और वह हम लोगों के यज्ञ में क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्रः) परम विद्यारूपी ऐश्वर्य से युक्त विद्वान् ! (त्वाया) आपके साथ हुए हम लोग (सोमम्) ऐश्वर्य करनेवाले के बोध को (सुसुम) प्राप्त हों। हे (सुदक्ष) उत्तम चतुराईयुक्त बल और (ब्रह्मवाहः) अनन्तधन तथा वेदविद्या की प्राप्ति करानेहारे विद्वान् ! (त्वाया) आपके सहित हम लोग (हविः) क्रियाकौशलयुक्त काम का (चकृम) विधान करें। हे (नियुत्वः) समर्थ ! (अधा) इसके अनन्तर (मरुद्भिः) ऋत्विज् अर्थात् पढ़ानेवालों और (सगणः) अपने विद्यार्थियों के गोलों के साथ वर्त्तमान आप (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) अत्यन्त उत्तम (यज्ञे) पढ़ने-पढ़ाने के सत्कार से पाये हुए व्यवहार में (मादयस्व) आनन्दित होओ और हम लोगों को आनन्दित करो ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    विद्वानों के सङ्ग के विना निश्चय है कि कोई ऐश्वर्य्य और आनन्द को नहीं पा सकता है, इससे नव मनुष्य विद्वानों का सदा सत्कार कर इनसे विद्या और अच्छी-अच्छी शिक्षाओं को प्राप्त होकर सब प्रकार से सत्कार युक्त होवें ॥ ९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सोम तथा हवि

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (त्वाया) = तेरी प्राप्ति के उद्देश्य से (सोमम्) = वीर्य को (सुषुमा) = हम अपने शरीरों में (सुत) = उत्पादित करते हैं । इस सोम के रक्षण से ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है और हम प्रभु - दर्शन के योग्य बनते हैं । 

    २. हे (सुदक्ष) = उत्तम दक्षता व उन्नितवाले प्रभो ! (ब्रह्मवाहः) = ज्ञान का वहन करनेवाले प्रभो ! (त्वाया) = आपकी प्राप्ति के हेतु से (हविः चकृम) = हम दानपूर्वक अदन [भक्षण] करते हैं । इस हवि के द्वारा प्रभु का आराधन तो होता ही है , हमें भी दक्षता वृद्धि व ज्ञान की प्राप्ति होती है । 

    ३. (अध) = अब हे (नियुत्वः) = वायु व आत्मा के इन्द्रियरूप अश्वोंवाले प्रभो ! (मरुद्धिः) = वायुओं व प्राणों से (सगणः) = गणों से युक्त आप (अस्मिन् यज्ञे) = हमारे इस जीवनयज्ञ में (बर्हिषि) = वासनाशून्य हृदय में (मादयस्व) = आनन्द से विराजिए । वायु के अश्व ‘नियुत्’ कहलाते हैं । वायु ‘आत्मा’ है । उसके अश्व ‘इन्द्रियाँ’ हैं । प्रभु इन इन्द्रियाश्वों को हमें प्राप्त कराते हैं । मरुत् ‘प्राण’ हैं । इन प्राणों की साधना हमें ‘सगण’ बनाती है । हमारे जीवन में एक ज्ञानेन्द्रियों का गण है , इसी प्रकार कर्मेन्द्रियों का दूसरा गण है । पञ्चभूतों के गण से तो शरीर बना ही है । अन्तःकरण - पञ्चक भी एक गण है - “हृदय , मन , बुद्धि , चित्त , अहंकार” इन सब गणों को ठीक रखने के लिए प्राणसाधना उपयोगी होती है । इस साधना से ये सब गण ठीक बनते हैं और हमारा हृदय पवित्र होकर प्रभु का आसन बन जाता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - प्राप्ति के लिए [क] सोम का सम्पादन , [ख] हवि का स्वीकरण तथा [ग] प्राणसाधना आवश्यक हैं । 

     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उनके सखित्व, प्रेम और सौहार्द की याचना ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र) राजन् ! सेनापते ! ( त्वाया ) तेरे सहित, हम लोग ( सोमं ) ऐश्वर्य को ( सु सुम ) प्राप्त करें । हे ( सुदक्ष ) उत्तम कार्यकुशल ! ( त्वाया ) तेरे साथ मिल कर हम ( हविः चकृम ) अन्न आदि पदार्थों को उत्पन्न करें। हे ( ब्रह्मवाहः ) बहुत बड़े ऐश्वर्य को धारण करने वाले ! ( अध ) और हे ( नियुत्वः ) सेनाओं, अश्वों और अश्वारोहियों के स्वामिन् ! सेनापते ! तू ( सगणः ) अपने गणों, मृत्यजनों और दल बल सहित ( मरुद्भिः ) वीर भटों और विद्वानों सहित ( अस्मिन् यज्ञे ) इस प्रजापालन रूप यज्ञ वा सुव्यवस्थित राष्ट्र ( बर्हिषि ) प्रजाजनों पर या राजसिंहासन पर स्थित होकर ( मादयस्व ) स्वयं तृप्त हो और औरों को आनन्दित कर । (२) आचार्य पक्ष में—हे (इन्द्र) विद्यावान् ! तेरे साथ मिल कर हम (सोमम्) शास्त्र ज्ञान को प्राप्त करें । हे ( ब्रह्मवाहः ) ब्रह्म ज्ञान के कराने वाले ! हे ( सुदक्ष ) उत्तम ज्ञानबल युक्त ! तेरे संग से हम ( हविः ) प्राप्त करने योग्य तथा शिष्यों को देने योग्य ज्ञान प्राप्त करें । हे ( नियुत्वः ) शक्तियों से युक्त अथवा शिष्यों से युक्त और ( मरुद्भिः सगणः ) वायु के समान आलस्य रहित अप्रमादी सहित ( यज्ञ बर्हिषि ) अध्ययन अध्यापन रूप यज्ञ में रहकर अति उत्तम सर्वोपरि पद पर विराजमान हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आंगिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता । १, ४ निचृज्जगती । २, ५, ७ विराड् जगती ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् , ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ९,११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांच्या संगतीशिवाय कोणी ऐश्वर्य व आनंद प्राप्त करू शकत नाही. त्यामुळे सर्व माणसांनी विद्वानांचा सत्कार सदैव करावा. त्यांच्याकडून विद्या, उत्तमोत्तम शिक्षण प्राप्त करून सर्व प्रकारे सत्कारयुक्त बनावे. ॥ ९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Gracious lord of versatile power, Indra, with you let us distil the soma of life’s joy and knowledge. Divine harbinger of universal wealth, let us create the means and materials of yajnic living with you. And then, lord of all-competence, allies and equipment, come with the Maruts, lightning carriers of fragrance, join, enjoy, and bless us on the holy seats of grass in the yajna.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O great scholar possessing the great wealth of wisdom, may we acquire the knowledge of the Vedas which makes us rich and prosperous, living with thee. O possessor of dexterity and strength, possessing infinite wealth of Vedic wisdom and its conveyor, may we perform technical and industrial works, while living with thee. O efficient supreme teacher, living with the band of students and surrounded by Priests come to attend this our noble Yajna in the form of studying, teaching and honoring deserving learned persons and gladden us being thyself delighted:

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्र) परमविद्यैश्वर्ययुक्त = Endowed with the great wealth of wisdom. (सोमम्) ऐश्वर्यकारकं वेदशास्त्रबोधम् = The knowledge of the Vedas and Shastras that leads to prosperity. (हवि:) क्रियाकौशलयुक्तं कर्म = Technical and industrial work. (मरुद्भिः) ऋत्विग्भिः सह = With priests. (बर्हिषि) अत्युत्तमे = Very good, excellent.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    No one can attain the wealth of wisdom and bliss without the association of learned persons. Therefore all should honor learned persons and having acquired knowledge and good education from them, let them be respected everywhere.

    Translator's Notes

    The word (Soma) सोम is derived from षु-प्रसवैश्बर्ययोः, therefore Rishi Dayananda has interpreted it ऐश्वर्य कारकं वेदशास्त्र बोधम् । The word हवि: (Havih) is derived from हु-दानादनयोः आदाने च In all technical works, there is the process of 'give and take.' So it has been taken in the sense of क्रिया कौशल युक्तं कर्म In the vedic Lexicon - Nighantu we read बर्हिषि इति महन्नाम ( निघ० ३.३ ) Therefore it has been interpreted by Rishi Dayananda Sarasvati as which means very good or great.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top