ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 101/ मन्त्र 6
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यः शूरे॑भि॒र्हव्यो॒ यश्च॑ भी॒रुभि॒र्यो धाव॑द्भिर्हू॒यते॒ यश्च॑ जि॒ग्युभि॑:। इन्द्रं॒ यं विश्वा॒ भुव॑ना॒भि सं॑द॒धुर्म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥
स्वर सहित पद पाठयः । शूरे॑भिः । हव्यः॑ । यः । च॒ । भी॒रुऽभिः॑ । यः । धाव॑त्ऽभिः । हू॒यते॑ । यः । च॒ । जि॒ग्युभिः॑ । इन्द्र॑म् । यम् । विश्वा॑ । भुव॑ना । अ॒भि । स॒म्ऽद॒धुः । म॒रुत्व॑न्तम् । स॒ख्याय॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यः शूरेभिर्हव्यो यश्च भीरुभिर्यो धावद्भिर्हूयते यश्च जिग्युभि:। इन्द्रं यं विश्वा भुवनाभि संदधुर्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठयः। शूरेभिः। हव्यः। यः। च। भीरुऽभिः। यः। धावत्ऽभिः। हूयते। यः। च। जिग्युभिः। इन्द्रम्। यम्। विश्वा। भुवना। अभि। सम्ऽदधुः। मरुत्वन्तम्। सख्याय। हवामहे ॥ १.१०१.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 101; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
य इन्द्रः शूरेभिर्हव्यो यो भीरुभिश्च यो धावद्भिर्हूयते यश्च जिग्युभिर्यमिन्द्रं विश्वा भुवनाभिसंदधुस्तं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥ ६ ॥
पदार्थः
(यः) सेनाध्यक्षः (शूरेभिः) शूरवीरैः (हव्यः) आहवनीयः (यः) (च) निर्भयैः (भीरुभिः) कातरैः (यः) (धावद्भिः) वेगवद्भिः (हूयते) स्पर्द्ध्यते (यः) (च) आसीनैर्गच्छद्भिर्वा (जिग्युभिः) विजेतृभिः (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यवन्तं सेनाध्यक्षम् (यम्) (विश्वा) अखिलानि (भुवना) लोकाः प्राणिनश्च (अभि) आभिमुख्ये (संदधुः) संदधति (मरुत्वन्तं०) इति पूर्ववत् ॥ ६ ॥
भावार्थः
यः परमात्मा सेनाधीशश्च सर्वांल्लोकान् सर्वतो मेलयति स सर्वैः सेवनीयः सुहृद्भावेन मन्तव्यश्च ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यः) जो परमैश्वर्यवान् सेना आदि का अधिपति (शूरेभिः) शूरवीरों से (हव्यः) आह्वान करने अर्थात् चाहने योग्य (यः) जो (भीरुभिः) डरनेवालों (च) और निर्भयों से तथा (यः) जो (धावद्भिः) दौड़ते हुए मनुष्यों से वा (यः) जो (च) बैठे और चलते हुए उनसे (जिग्युभिः) वा जीतनेवाले लोगों से (हूयते) बुलाया जाता वा (यम्) जिस (इन्द्रम्) उक्त सेनाध्यक्ष को (विश्वा) समस्त (भुवना) लोकस्थ प्राणी (अभि) सम्मुखता से (संदधुः) अच्छे प्रकार धारण करते हैं, उस (मरुत्वन्तम्) अच्छे पढ़ानेवालों को रखनेहारे सेनाधीश को (सख्याय) मित्रपन के लिये हम लोग (हवामहे) स्वीकार करते हैं, उसको तुम भी स्वीकार करो ॥ ६ ॥
भावार्थ
जो परमात्मा और सेना का अधीश सब लोकों का सब प्रकार से मेल करता है, वह सबको सेवन करने और मित्रभाव से मानने के योग्य है ॥ ६ ॥
विषय
शूरता व विजय
पदार्थ
१. (यम् इन्द्रम्) = जिस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (विश्वा भुवना) = सब लोक , सब लोकों में स्थित मनुष्य (अभिसन्दधुः) = अपने साथ जोड़ने का प्रयत्न करते हैं , (यः) = जो (शूरेभिः) = शूरवीर पुरुषों से (हव्यः) = पुकारने योग्य होता है (यः च) = और जो (भीरुभिः) = भीरु पुरुषों से भी (हव्यः) = पुकारने योग्य होता है , (धावद्भिः) = रण में घबराकर भाग खड़े होनेवाले पराजित पुरुषों से (यः) = जो प्रभु (हूयते) = पुकारे जाते हैं (च यः) = और जो (जिग्युभिः) = विजयशील पुरुषों से पुकारे जाते हैं , उस (मरुत्वन्तम्) = प्राणोंवाले प्रभु को (सख्याय) = मित्रता के लिए (हवामहे) = हम पुकारते हैं ।
२. उत्तम व्यक्ति तो प्रभु का स्मरण करते ही हैं , अन्य व्यक्ति भी कष्ट आने पर प्रभु को याद करते हैं । शूर , प्रभु के स्मरण से ही शूर हैं , भीरु भी व्याकुल होकर प्रभु के आर्तभक्त बनते हैं । विजेता प्रभु - स्मरण से विजयी बनते हैं , भाग खड़े होनेवाले पराजित पुरुष भी प्रभु - स्मरण के द्वारा अपने रक्षण की चिन्ता करते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट - निकृष्ट सभी प्रभु से अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं । हम भी प्राणसाधना के द्वारा प्रभु के मित्र बनें ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही सबकी शरण हैं । वे ही शूरता व विजय प्राप्त कराते हैं ।
विषय
उनके सखित्व, प्रेम और सौहार्द की याचना ।
भावार्थ
( यः ) जो परमेश्वर ( शूरेभिः हव्यः ) शूरवीर पुरुषों द्वारा स्तुति करने योग्य है और (यः च भीरुभिः ) जो भीरु, भयभीतों द्वारा भी प्रार्थना किया जाता है । ( यः धावद्भिः ) जो भागते हुए और जो ( जिग्युभिः ) विजय करते हुओं से भी ( हूयते ) आदर और प्रेम से स्मरण किया जाता है ( यं ) जिसको ( विश्वा भुवना ) समस्त प्राणी और लोक ( अभि संदधुः ) साक्षात् अपने भीतर धारण करते हैं उस (मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे) महान् शक्तियों और समस्त प्राणियों के स्वामी को हम मित्र भाव के लिये स्वीकार करें, उसे अपना परम सखा मानें । (२) इसी प्रकार वह वीर, राष्ट्रपति राजा हमारा परम मित्र हो जिसे (शूरेभिः हव्यः) शूरवीर ललकारें या अपना सहायक मित्र वरें । ( यः च भीरुभिः ) जिसे भीरु जन भी अपनी शरण स्वीकार करें। ( धावद्भिः जिग्युभिः हूयते ) जिसे मैदान छोड़ कर दौड़ने वाले और मैदान पर विजय पाने वाले दोनों प्रकार के लोग अपना शरण और सहायक मानें जिस राजा को सब प्रजाजन अपना साथी करके मानें अथवा जिससे सन्धि करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आंगिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता । १, ४ निचृज्जगती । २, ५, ७ विराड् जगती ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् , ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ९,११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो परमात्मा व सेनाधीश सर्व लोकांचा सर्व प्रकारे मेळ घालतो तो सर्वांनी अंगीकारण्यायोग्य व मित्रभावाने वागण्यायोग्य असतो. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra is invoked and worshipped by the brave, and he is called upon by the timid as well as by the fearless, and he is called upon by the victors as well us by those who flee. Him, all people and worlds in existence hold at the centre of their being. That Indra, lord of Marats, we invoke for support, sustenance and friendship.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) We invoke for friendship Indra (God) who is invoked by the brave and by the timid, by the vanquished and by victors, and whom all beings place before them (in their religious functions). (2) It is applicable also to the Commander of the army who is invoked and approached by all brave and timid persons, by the victors and by the vanquished and whom all consult regarding future action.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(जिग्युभिः) विजेतृभिः = By victors.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God and Commander of an army who unite all people, should be served and be regarded as friends,
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