Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 101 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 101/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    यो व्यं॑सं जाहृषा॒णेन॑ म॒न्युना॒ यः शम्ब॑रं॒ यो अह॒न्पिप्रु॑मव्र॒तम्। इन्द्रो॒ यः शुष्ण॑म॒शुषं॒ न्यावृ॑णङ्म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । विऽअं॑सम् । ज॒हृ॒षा॒णेन॑ । म॒न्युना॑ । यः । शम्ब॑रम् । यः । अह॑न् । पिप्रु॑म् । अ॒व्र॒तम् । इन्द्रः॑ । यः । शुष्ण॑म् । अ॒शुष॑म् । नि । अवृ॑णक् । म॒रुत्व॑न्तम् । स॒ख्याय॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना यः शम्बरं यो अहन्पिप्रुमव्रतम्। इन्द्रो यः शुष्णमशुषं न्यावृणङ्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। विऽअंसम्। जहृषाणेन। मन्युना। यः। शम्बरम्। यः। अहन्। पिप्रुम्। अव्रतम्। इन्द्रः। यः। शुष्णम्। अशुषम्। नि। अवृणक्। मरुत्वन्तम्। सख्याय। हवामहे ॥ १.१०१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 101; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सभासेनाध्यक्षः किं कुर्यादित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    य इन्द्रो जाहृषाणेन मन्युना दुष्टं शत्रुं व्यंसं न्यहन् यः शम्बरं न्यहन्। यः पिप्रुं न्यहन् योऽव्रतमवृणक् शुष्णमशुषं मरुत्वन्तमिन्द्रं सख्याय वयं हवामहे स्वीकुर्मः ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (यः) सभासेनाध्यक्षः (व्यंसम्) विगता अंसाः स्कन्धा यस्य तत् (जाहृषाणेन) सज्जनानां सन्तोषकेन। अत्र हृष तुष्टावित्यस्माल्लिटः कानच्। तुजादित्वाद्दीर्घश्च (मन्युना) क्रोधेन (यः) शौर्यादिगुणोपेतो वीरः (शम्बरम्) अधर्मसम्बन्धिनम्। अत्र शम्ब धातोरौणादिकोऽरन् प्रत्ययः। (यः) धर्मात्मा (अहन्) हन्यात् (पिप्रुम्) उदरम्भरम्। अत्र पृ धातोर्बाहुलकादौणादिकः कुः प्रत्ययः सन्वद्भावश्च। (अव्रतम्) ब्रह्मचर्यरीत्याचरणादिनियमपालनरहितम् (इन्द्रः) सकलैश्वर्ययुक्तः (यः) अतिबलवान् (शुष्णम्) बलवन्तम् (अशुषम्) शोकरहितं हर्षितम् (नि) (अवृणक्) वर्जयेत्। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (मरुत्वन्तं०) इति पूर्ववत् ॥ २ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यः प्रदीप्तेन क्रोधेन दुष्टान् हत्वा विद्योन्नतये ब्रह्मचर्यादि व्रतानि प्रचार्याविद्याकुशिक्षा निषिध्य सर्वेषां सुखाय सततं प्रयतते स एव सुहृन्मन्तव्यः ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सभा और सेना का अध्यक्ष क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यः) जो सभा सेना आदि का अधिपति (इन्द्रः) समस्त ऐश्वर्य को प्राप्त (जाहृषाणेन) सज्जनों को सन्तोष देनेवाले (मन्युना) अपने क्रोधों से दुष्ट और शत्रुजनों को (व्यंसम् नि, अहन्) ऐसा मारे कि जिससे कन्धा अलग हो जाए वा (यः) जो शूरता आदि गुणों से युक्त वीर (शम्बरम्) अधर्म से सम्बन्ध करनेवाले को अत्यन्त मारे वा (यः) धर्मात्मा सज्जन पुरुष (पिप्रुम्) जो कि अधर्मी अपना पेट भरता उसको निरन्तर मारे और (यः) जो अति बलवान् (अव्रतम्) जिसके कोई नियम नहीं अर्थात् ब्रह्मचर्य सत्यपालन आदि व्रतों को नहीं करता उसको (अवृणक्) अपने से अलग करे, उस (शुष्णम्) बलवान् (अशुषम्) शोकरहित हर्षयुक्त (मरुत्वन्तम्) अच्छे प्रशंसित पढ़नेवालों को रखनेहारे सकल ऐश्वर्ययुक्त सभापति को (सख्याय) मित्रों के काम वा मित्रपन के लिये हम लोग (हवामहे) स्वीकार करते हैं ॥ २ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जो चमकते हुए क्रोध से दुष्टों को मारकर विद्या की उन्नति के लिये ब्रह्मचर्यादि नियमों को प्रचरित और मूर्खपन और खोटी सिखावटों को रोकके सबके सुखके लिये निरन्तर अच्छा यत्न करे, वही मित्र मानने योग्य है ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ‘व्यंस , शम्बर , पिप्रु व शुष्ण’ का संहार

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (जाहृषाणेन) = [प्रवृद्धेन] अत्यन्त बढ़े हुए (मन्युना) = क्रोध से (व्यंसम्) = [विशिष्टोंऽसो यस्य = व्यंसः  , अंसलः = बलवान्] अत्यन्त प्रबल कोपासुर को (अहन्) = नष्ट करते हैं । प्रभु - स्मरण से क्रोध की वृत्ति दूर होती है । क्रोध भयंकर है । जब यह मनुष्य को आक्रान्त करता है तब उसकी चेतना लुप्त हो जाती है , होशो - हवाश ठिकाने नहीं रहते । इस प्रबल शत्रु को प्रभु ही नष्ट करते हैं । 

    २. (यः) = जो प्रभु (शम्बरम) = शान्ति को आवृत कर देनेवाले ईर्ष्या नामक शत्रु को (अहन्) = नष्ट करते हैं । ईर्ष्यालु मनुष्य का मन मृत - सा हो जाता है । इसे किसी प्रकार से शान्ति प्राप्त नहीं होती । यह दूसरे की उन्नति को देखकर जलता रहता है । 

    ३. (यः) = जो प्रभु , (पिप्रुम्) = [पॄ पालनपूरणयोः] सदा अपना ही पालन व पूरण करने में लगा रहता है , अत्यन्त स्वार्थमय आसुरीवृत्ति से चलता है और अतएव (अवतम्) = सब प्रकार के पुण्यकर्मों [नियमः पुण्यकं व्रतम्] से पृथक् हो जाता है , उस लोभासुर को [अहन्] नष्ट करते हैं । 

    ४. (इन्द्रः) = वे सर्वशक्तिमान् प्रभु (यः) = जो (शुष्णम्) = शोषण कर देनेवाले और (अशुषम्) = स्वयं कभी न सूखनेवाले इस कामासुर को (नि अवृणक्) = निश्चय से हमसे दूर करते हैं , उस (मरुत्वन्तम्) = वायुओं व प्राणोंवाले प्रभु को (सख्याय) = मित्रता के लिए (हवामहे) = पुकारते हैं , प्रार्थना करते हैं , उस प्रभु को मित्रता चाहते हैं । प्रभु की मित्रता से ही तो ‘व्यंस , शम्बर , पिप्रु व शुष्ण’ का विनाश होगा । इस मित्रता को प्राप्त करने का साधन मरुत्वन्तम् शब्द से संकेतित हो रहा है । हम मरुतों - प्राणों की साधना करेंगे , तभी इस मरुत्वान् प्रभु के मित्र बन पाएंगे । इससे प्राणायाम का महत्त्व स्पष्ट है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्राणसाधना द्वारा चित्तवृत्ति के निरोध से प्रभु के मित्र बनें । प्रभु हमारी आसुरवृत्तियों को समाप्त करेंगे । 
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उनके सखित्व, प्रेम और सौहार्द की याचना ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो राष्ट्रपति, वीर पुरुष ( जाहृषाणेन ) निरन्तर सबको सन्तुष्ट करने और प्रजाओं में हर्ष उत्पन्न करने वाले ( मन्युना ) क्रोध और शत्रुस्तम्भनकारी बल से ( वि अंसं ) विविध स्कन्धावार अर्थात् छावनी वाले शत्रु को ( अहन् ) विनाश करने में समर्थ हो, और ( यः तथा शम्बरम् ) जो वीर पुरुष शस्त्रास्त्र को धारण करनेवाले, प्रबल तथा खूब सुसंबद्ध, सुदृढ़ शत्रु को भी ( अहन् ) विनाश करने में समर्थ हो, और जो ( अव्रतम् ) व्रतों, नियमों और व्यवस्थाओं से रहित ( पिप्रुम् ) केवल अपना ही पेट पालने और भरनेवाले को भी ( अहन् ) नाश करे और (यः) जो ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता ( अशुषं ) अन्य शोषक अर्थात् बलनाशक विरोधी न होने के कारण ( शुष्णम् ) प्रजाओं का रक्त शोषण करने वाला हो उसको भी ( नि अवृणक ) सर्वथा परास्त करे उस ( मरुस्वन्तं ) वीर सुभटों सहित वीर पुरुष को हम प्रजाजन ( सख्या हवामहे ) सखा भाव के लिये स्वीकार करें। आचार्य, परमेश्वर और आत्मा पक्षमें—( जाहृषाणेन मन्युना ) निरन्तर आत्मशान्तिप्रद ज्ञान अज्ञान को ( वि-अंसं ) खण्ड २ कर नाश करे जो ( शम्बरं ) आत्मा को घेर लेने वाले ( पिप्रुम् ) केवल पेट भरने वाले व्रत, यम, नियम आदि सदाचार से रहित आचरण को नाश करे, न सूखने वाले, सदा बढ़ते ( शुष्णं ) रक्त शोषक लोभ को जो वर्जित करे और ( मरुत्वन्तं ) विद्वानों, शिष्यों और प्राणों सहित आत्मरूप इन्द्र को अपना मित्र बनावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आंगिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता । १, ४ निचृज्जगती । २, ५, ७ विराड् जगती ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् , ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ९,११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो अत्यंत क्रोधाने दुष्टांना मारून विद्यावृद्धीसाठी ब्रह्मचर्य इत्यादी नियमांचा प्रचार करतो व मूर्खपणा आणि खोट्या उपदेशांना रोखण्यासाठी तसेच सर्वांच्या सुखासाठी सदैव चांगला प्रयत्न करतो त्यालाच माणसांनी मित्र मानावे. ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For friendship and support, we invoke Indra, lord of justice, power and generosity, commander of the Maruts, tempestuous guarding soldiers of humanity, Indra who, with overwhelming passion and righteousness breaks the shoulders of Vrtra, dark demonic cloud of hoarded vapours, and releases the showers of rain, who destroys the selfish Shambara and Pipru, undisciplined demons of social unrighteousness, and who overthrows the mighty but callous and voracious eater of the nation’s wealth who causes a drought and famine of the people’s resources for life and progress.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the President of the Assembly or, Commander of an army do is taught in the Second Mantra,

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We accept for our friendship, Indra ( president of the Assembly or Commander of the army ) who with his indignation gladdening all good persons, slays wicked enemy, who kills a mutilated sinner and slays the associate of an un-righteous person and a selfish glutton who does not observe the vows of Brahimacharya ( continence, purity and self control ) truthfulness etc. We accept that mighty, delightful Indra free from grief as our friend, who is surrounded by great heroes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (जाहृषाणेन) सज्जनानां सन्तोषकेन अत्र हृष-तुष्टौ इत्यस्मात् लिट: कानच् तुजादित्वाद् दीर्घश्च । = Gladdening good persons. (शम्बरम्) अधर्मसम्बन्धिनम् अत्र शम्ब-सम्बन्धने इति धातोः औणादिको रन् प्रत्ययः || = Associate of an un-righteous person. (पिप्रुम् ) उदरम्भरम् | अत्र पृ-पालन पूरणयोः इति धातो: औणादिक: कु: प्रत्यय: सन्वद्भावश्च । (शुष्णम्) बलवन्तम् = Mighty. (अशुषम् ) शोकरहितं हर्षितम् = Delightful, free from grief.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should regard him only as friend, who slays the wicked with mighty indignation, preaches Brahmacharya and other vows for the advancement of knowledge and endeavors for bringing happiness to all, by dispelling ignorance and bad education.

    Translator's Notes

    It is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and othere to take Shambara, Pipru, Shushna as proper nouns instead of taking them as adjectives denoting the attributes of persons, according to the principles of the Vedic terminology as admitted by Sayanacharya in his Introduction. How can such selfcontradictory interpretations be taken as authentic ? Rishi Dayananda Sarasvati is therefore right in giving derivative meanings of the above words. The Vedic Lexicon clearly states. शुष्णम् इति बलनाम (निघ० २.६) Why then should it be taken to be the name of a particular Asura or demon ?

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top