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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 101/ मन्त्र 11
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    म॒रुत्स्तो॑त्रस्य वृ॒जन॑स्य गो॒पा व॒यमिन्द्रे॑ण सनुयाम॒ वाज॑म्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒रुत्ऽस्तो॑त्रस्य । वृ॒जन॑स्य । गो॒पाः । व॒यम् । इन्द्रे॑ण । स॒नु॒या॒म॒ । वाज॑म् । तत् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । म॒म॒ह॒न्ता॒म् । अदि॑तिः । सिन्धुः॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा वयमिन्द्रेण सनुयाम वाजम्। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मरुत्ऽस्तोत्रस्य। वृजनस्य। गोपाः। वयम्। इन्द्रेण। सनुयाम। वाजम्। तत्। नः। मित्रः। वरुणः। ममहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः ॥ १.१०१.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 101; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    यो मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा सेनाधिपतिरस्ति तेनेन्द्रेणैश्वर्यप्रदेन सह वर्त्तमाना वयं यतो वाजं सनुयाम तन्मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्नोऽस्मान्मामहन्तां सत्कारहेतवः स्युः ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (मरुत्स्तोत्रस्य) मरुतां वेगादिगुणैः स्तुतस्य (वृजनस्य) दुःखवर्जितस्य व्यवहारस्य (गोपाः) रक्षकः (वयम्) (इन्द्रेण) ऐश्वर्य्यप्रदेन सेनापतिना सह वर्त्तमानाः (सनुयाम) संभजेमहि। अत्र विकरणव्यत्ययः। (वाजम्) संग्रामम् (तत्) तस्मात् (नः) अस्मान् (मित्रो वरु०) इति पूर्ववत् ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    न खलु संग्रामे केषांचित् पूर्णबलेन सेनाधिपतिना विना शत्रुपराजयो भवितुं शक्यः। नैव किल कश्चित् सेनाधिपतिः सुशिक्षितया पूर्णबलया साङ्गोपाङ्गया हृष्टपुष्टया सेनया विना शत्रून् विजेतुं राज्यं पालयितुं च शक्नोति। नैतावदन्तरेण मित्रादयः सुखकारका भवितुं योग्यास्तस्मादेतत्सर्वं सर्वैर्मनुष्यैर्यथावन्मन्तव्यमिति ॥ ११ ॥ अत्रेश्वरसभासेनाशालाद्यध्यक्षाणां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोद्ध्यव्यम् ॥इत्येकाधिकशततमं सूक्तं १०१ त्रयोदशो १३ वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (मरुत्स्तोत्रस्य) पवन आदि के वेगादि गुणों से प्रशंसा को प्राप्त (वृजनस्य) और दुःखवर्जित अर्थात् जिसमें दुःख नहीं होता उस व्यवहार का (गोपाः) रखनेवाला सेनाधिपति है, उस (इन्द्रेण) ऐश्वर्य के देनेवाले सेनापति के साथ वर्त्तमान (वयम्) हम लोग जिस कारण (वाजम्) संग्राम का (सनुयाम) सेवन करें (तत्) इस कारण (मित्रः) मित्र (वरुणः) उत्तम गुणयुक्त जन (अदितिः) समस्त विद्वान् मण्डली (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्यलोक (नः) हम लोगों के (मामहन्ताम्) सत्कार करने के हेतु हों ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    निश्चय है कि संग्राम में किसी पूर्ण बली सेनाधिपति के विना शत्रुओं का पराजय नहीं हो सकता और न कोई सेनाधिपति अच्छी शिक्षा की हुई पूर्ण बल, अङ्ग और उपाङ्ग सहित आनन्दित और पुष्ट सेना के विना शत्रुओं के जीतने वा राज्य की पालना करने को समर्थ हो सकता है। न उक्त व्यवहारों के विना मित्र आदि सुख करने के योग्य होते हैं, इससे उक्त समस्त व्यवहार सब मनुष्यों को यथावत् मानना चाहिये ॥ ११ ॥इस सूक्त में ईश्वर, सभा, सेना और शाला आदि के अधिपतियों के गुणों का वर्णन है। इससे इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह १०१ एकसौ एकवाँ सूक्त और १३ तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    मरुत्स्तोत्र व वृजन के रक्षक

    पदार्थ

    १. (मरुत् स्तोत्रस्य) = [मरुद्भ्यः सहितं स्तोत्रं मरुत्स्तोत्रम्] प्राणसाधना के साथ प्रभुस्तवन के और (वृजनस्य) = कामादि शत्रुओं के साथ संग्राम [Battle , fight या power , strength] के तथा अपनी शक्ति की (गोपाः) = रक्षा करनेवाले (वयम्) = हम (इन्द्रेण) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु से (वाजम्) = शक्ति को (सनुयाम) = प्राप्त करें । जो भी व्यक्ति प्राणायाम के साथ प्रभु - स्मरण करता है और जो इस जीवन - संग्राम में कामादि शत्रुओं के साथ संघर्ष को छोड़ नहीं देता , वह उस सखा प्रभु से शक्ति प्राप्त करता है । उस प्रभु से शक्ति प्राप्त करके ही यह संग्राम में विजयी होता है । 

    २. (नः) = हमारे (तत्) = उस ‘प्राणसाधना’ , प्रभुस्तवन व शक्तिरक्षण के संकल्प को (मित्रः) = मित्र (वरुणः) = वरुण (अदितिः) = स्वास्थ्य (सिन्धु) = प्रवाहमय रेतः कण (पृथिवीः) = शरीर (उत) = और (द्यौः) = मस्तिष्क (मामहन्ताम्) = आदृत करें । स्नेह की भावना [मित्र] , निर्द्वेषता [वरुण] , स्वास्थ्य , रेतःकण , दृढ़शरीर व दीप्त मस्तिष्क से हम प्राणसाधना , प्रभुस्तवन व शक्तिरक्षण के संकल्प को पूर्ण करनेवाले हों । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्राणों की साधना करें , प्रभु का स्मरण करें , कामादि शत्रुओं से युद्ध जारी रक्खें , प्रभु हमें शक्ति प्रदान करेंगे । 
     

    विशेष / सूचना


    विशेष - सूक्त का आरम्भ इन शब्दों से होता है - वे प्रभु शक्तिशाली व कुशलकर्मा हैं [१] । वे हमारे क्रोध , ईर्ष्या , स्वार्थ व काम का संहार करनेवाले हैं [२] । प्रभु ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अपनी शक्ति से नियमन कर रहे हैं [३] । वे अश्वपति व गोपति हैं[४] । वे ही दस्युओं का संहार करते हैं [५] । वे ही सबकी शरण हैं [६] । प्राणसाधना से ज्ञान व तेज प्राप्त करके हम प्रभु - सान्निध्यवाले होते हैं [७] । ये प्रभु ही हमारे जीवन - यज्ञ को चलाते हैं [८] । प्रभु - प्राप्ति के लिए सोम - रक्षण व हवि का सेवन आवश्यक है [९] । प्रभु का उपासन हमें मितभोजी , प्राणसाधक व ज्ञानी बनाएगा [१०] , प्रभु हमें शक्ति देंगे [११] । ‘इस शक्ति में ही आनन्द है’ - इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है - 
     

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    विषय

    इन्द्र के शिष्यों का रहस्य ।

    भावार्थ

    ( मरुत्स्तोत्रस्य ) वायु के वेगादि गुणों से स्तुति करने योग्य ( वृजनस्य ) शत्रुओं को वर्जन करने हारे सेनापति के ( गोपाः ) रक्षक हम लोग ( इन्द्रेण ) उस ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता के साथ रह कर ही ( वाजम् सनुयाम ) संग्राम करें और ऐश्वर्य का लाभ करें। ( तन्नः मित्रः० इत्यादि पूर्ववत् ) इति प्रयोदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आंगिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता । १, ४ निचृज्जगती । २, ५, ७ विराड् जगती ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् , ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ९,११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    युद्धात निश्चितपणे एखाद्या पूर्ण बलवान सेनाधिपतीशिवाय शत्रूंचा पराभव होऊ शकत नाही व एखादा सेनाधिपती चांगले शिक्षण व बल अंग-उपांगांसह आनंदी व पुष्ट सेना याशिवाय शत्रूंना जिंकण्यासाठी किंवा राज्याचे पालन करण्यास समर्थ बनू शकत नाही. या वरील व्यवहाराशिवाय मित्र इत्यादीचे सुख मिळू शकत नाही. यामुळे वरील संपूर्ण व्यवहार सर्व माणसांनी यथायोग्यरीत्या मानले पाहिजेत. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We are watchmen of the land of freedom and joy. We are singers of the song of Maruts in honour of Indra. May we, we pray, achieve success in our mission by the grace of Indra. May Mitra, universal friend, Varuna, our choice lord of justice and dispensation, the sun and moon, congregations of the learned, the rolling seas and flowing rivers, mother earth and generous skies, and the bright heavens help us in that yajnic mission.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May we wage battle and receive sustenance along with a commander of the army who is praised by all for speed and other attributes of the winds and brave soldiers and who is the protector of all dealings free from suffering. May friends, noble persons, earth, firmament, river and ocean, the light of sun etc. help us in advancement so that we may become respectable everywhere.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मरुत् स्तोत्रस्य) मरुतां वेगादिगुणैः स्तुतस्य = Praised by the speed and other attributes of the winds and brave soldiers. (वृजनस्य) दुःखर्वाजतस्य व्यवहारस्य = Of the dealing free from suffering.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is not possible to defeat enemies without a very mighty commander of the army. The Commander in-chief can not overcome foes and preserve the State without the aid of a well-trained strong army, equipped with all weapons and other requisite articles. Without this, friends and others cannot be the givers of perfect happiness. All this must be known well by all people.

    Translator's Notes

    This hymn is connected with the previous hymns as there is mention of God, presidents of the Assembly, army and educational institutions as before. इत्येकधिकशततं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः Here ends the one hundred first hymn of the first Mandala of the Rigveda and the thirteenth Verga.

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