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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 123 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 123/ मन्त्र 10
    ऋषिः - दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवान् देवता - उषाः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    क॒न्ये॑व त॒न्वा॒३॒॑ शाश॑दानाँ॒ एषि॑ देवि दे॒वमिय॑क्षमाणम्। सं॒स्मय॑माना युव॒तिः पु॒रस्ता॑दा॒विर्वक्षां॑सि कृणुषे विभा॒ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒न्या॑ऽइव । त॒न्वा॑ । शाश॑दाना । एषि॑ । दे॒वि॒ । दे॒वम् । इय॑क्षमाणम् । स॒म्ऽस्मय॑माना । यु॒व॒तिः । पु॒रस्ता॑त् । आ॒विः । वक्षां॑सि । कृ॒णु॒षे॒ । वि॒ऽभा॒ती ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कन्येव तन्वा३ शाशदानाँ एषि देवि देवमियक्षमाणम्। संस्मयमाना युवतिः पुरस्तादाविर्वक्षांसि कृणुषे विभाती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कन्याऽइव। तन्वा। शाशदाना। एषि। देवि। देवम्। इयक्षमाणम्। सम्ऽस्मयमाना। युवतिः। पुरस्तात्। आविः। वक्षांसि। कृणुषे। विऽभाती ॥ १.१२३.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 123; मन्त्र » 10
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे देवि या त्वं तन्वा कन्येव शाशदानेयक्षमाणं देवं पतिमेषि पुरस्ताद् विभाती युवतिः संस्मयमाना वक्षांस्याविष्कृणुषे सोषरुपमा जायसे ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (कन्येव) कन्यावद्वर्त्तमाना (तन्वा) शरीरेण (शाशदाना) व्यवहारेष्वतितीक्ष्णतामाचरन्ती (एषि) प्राप्नोषि (देवि) कामयमाने (देवम्) विद्वांसम् (इयक्षमाणम्) अतिशयेन सङ्गच्छमानम् (संस्मयमाना) सम्यङ् मन्दहासयुक्ता (युवतिः) चतुर्विंशतिवार्षिकी (पुरस्तात्) प्रथमतः (आविः) प्रसिद्धौ (वक्षांसि) उरांसि (कृणुषे) (विभाती) विविधतया सद्गुणैः प्रकाशमाना ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा विदुषी ब्रह्मचारिणी पूर्णां विद्यां शिक्षां स्वसदृशं हृद्यं पतिं च प्राप्य सुखिनी भवति तथान्याभिरप्याचरणीयम् ॥ १० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (देवि) कामना करनेहारी कुमारी ! जो तूँ (तन्वा) शरीर से (कन्येव) कन्या के समान वर्त्तमान (शाशदाना) व्यवहारों में अति तेजी दिखाती हुई (इयक्षमाणम्) अत्यन्त सङ्ग करते हुए (देवम्) विद्वान् पति को (एषि) प्राप्त होती (पुरस्तात्) और सन्मुख (विभाती) अनेक प्रकार सद्गुणों से प्रकाशमान (युवतिः) ज्वानी को प्राप्त हुई (संस्मयमाना) मन्द-मन्द हँसती हुई (वक्षांसि) छाती आदि अङ्गों को (आविः, कृणुषे) प्रसिद्ध करती है, सो तूँ प्रभात वेला की उपमा को प्राप्त होती है ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विदुषी ब्रह्मचारिणी स्त्री पूरी विद्या शिक्षा और अपने समान मनमाने पति को पा कर सुखी होती है, वैसे ही और स्त्रियों को भी आचरण करना चाहिये ॥ १० ॥

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    विषय

    संस्मयमाना युवतिः

    पदार्थ

    १. उषा (कन्या इव) = छोटी अवस्था की कमनीय कन्या की भाँति (तन्वा) = शरीर से (शाशदाना) = [शाशद्यमाना - नि०६ । १६] स्पष्टता को प्राप्त होती है । जैसे एक अप्रगल्भ कन्या अपने शरीर को छिपाने का प्रयत्न नहीं करती, उसी प्रकार उषा अपने को छिपाती नहीं । २. प्रगल्भता को प्राप्त होने पर एक युवति जैसे पति को प्राप्त करती है, इसी प्रकार हे (देवि) = द्योतनशीले उषे! तू भी (इयक्षमाणम्) = संगतिकरण को चाहते हुए (देवम्) = द्योतनशील सूर्य को (एषि) = प्राप्ति होती है । यहाँ प्रसङ्गवश विवाह - सम्बन्ध की दो बातों का संकेत है - [क] युवति देवी - ज्ञानज्योतिवाली हो, युवा पुरुष भी देव हो, [ख] युवा युवति को चाहता हो तभी यह सम्बन्ध हो । ३. अब हे उषे| तू (संस्मयमाना) = सदा मुस्कराती हुई - सी (युवतिः) = बुराइयों को अलग करने तथा अच्छाइयों का मिश्रण करनेवाली पुरस्तात् - आगे बढ़नेवाली हो । विवाहित पत्नी को भी सदा प्रसन्न रहना चाहिए तथा घर से बुराइयों को दूर करके अच्छाइयों की स्थापना करनेवाली बनना चाहिए । ४. अब प्रौढ़ावस्था में हे उषे! तू (विभाती) = विशेष रूप से चमकती हुई (वक्षांसि) = [वक्षस् - रूप - सा०] दीप्त रूपों को (आविः कृणुषे) = प्रकट करती है । गृहपत्नी का भी यह कर्तव्य होता है कि वह उत्तम स्वभाव को प्रकट करनेवाली हो । आयुवृद्धि के साथ वह अधिक दीप्त हो, नकि कर्कश स्वभाववाली बन जाए ।

    भावार्थ

    भावार्थ - एक गृहपत्नी की भाँति उषा मुस्कराती हुई आती है और बुराइयों को दूर करके अच्छाइयों का हमारे साथ सम्पर्क करती है ।

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    विषय

    रात्रि दिन के दृष्टान्त से पति-पत्नी के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( कन्या इव ) कन्या जिस प्रकार ( तन्वा ) अपने शरीर से ( शाशदाना ) अपना स्वरूप प्रकट करती हुई ( इयक्षमाणम् ) अपने साथ संयुक्त ( देवं ) अपने योग्य एवं कामनाशील, प्रिय पति को प्राप्त होती है उसी प्रकार हे ( देवि ) तेजस्विनि ! तू भी (तन्वा शाशदाना ) अपने विस्तृत प्रभामय स्वरूपसे प्रकट होती हुई ( देवम् ) तेजस्वी ( इयक्षमाणं ) अपने से सुसंगत सूर्य को (एषि) प्राप्त होती है। और जिस प्रकार ( युवतिः ) जवान स्त्री ( संस्मयमाना ) भली प्रकार मुस्कराती हुई ( विभातीः ) विशेषगुणों से प्रकाशित होती हुई ( पुरस्तात् ) अपने पति के समक्ष ( वक्षांसि आविः कृणुते ) अपने बाहुमूल आदि अंगों को प्रकट करती है उसी प्रकार हे उषा ! तू भी ( संस्मयमाना ) मानो प्रकाश किरणों से मुसकाती हुई (विभातीः) प्रकाशों से प्रकाशित होती हुई ( पुरस्नात् ) सब के समक्ष ( वक्षांसि ) नाना रूपों को ( आविः कृणुषे ) प्रकट करती है । इति पञ्चमो वर्गः ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवानृषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः– १, ३, ६, ७, ९, १०, १३, विराट् त्रिष्टुप् । २,४, ८, १२ निचत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी विदुषी ब्रह्मचारिणी स्त्री पूर्ण विद्या व शिक्षण घेऊन आपल्याला पसंत असलेल्या पतीला प्राप्त करून सुखी होते तसेच इतर स्त्रियांनीही आचरण करावे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Sweet and soothing beauteous, unique in form and figure of body as a virgin, O brilliant Dawn, you rise to meet the effulgent lord you love and desire, and then, charming bright in the splendour of youth, O maiden, smiling amorous, you stand before him and bare your bosom for love and adoration.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O noble loving lady! Thou manifests in person like an active maiden and approaches thy loving husband. Thou being a youthful bride (of about 24 years) meetest thy husband smiling and uncovering thy bosom in his presence desiring union with him intensely, shining well with thy virtues.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (शाशदाना) व्यवहारेष्वति तीक्ष्णतामाचरन्ती = Active in her works. (इयक्षमाणम् ) अतिशयेन संगच्छमानम् = Meeting lovingly.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a learned Brahmacharini after the completion of her education, gets a suitable loving husband and enjoys happiness, so should others also do

    Translator's Notes

    शाशदान इति पदनाम (निघ० ४.३) पद- गतौ अत्र गमनार्थग्रहणम् इयक्षमाणम् is derived from यज-पूजासंगतिकरणदानेषु अत्र संगतिकरणार्थग्रहणम् |

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