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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 123 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 123/ मन्त्र 7
    ऋषिः - दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवान् देवता - उषाः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अपा॒न्यदेत्य॒भ्य१॒॑न्यदे॑ति॒ विषु॑रूपे॒ अह॑नी॒ सं च॑रेते। प॒रि॒क्षितो॒स्तमो॑ अ॒न्या गुहा॑क॒रद्यौ॑दु॒षाः शोशु॑चता॒ रथे॑न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । अ॒न्यत् । एति॑ । अ॒भि । अ॒न्यत् । ए॒ति॒ । विषु॑रूपे॒ इति॒ विषु॑ऽरूपे । अह॑नी॒ इति॑ । सम् । च॒रे॒ते॒ इति॑ । प॒रि॒ऽक्षितोः॑ । तमः॑ । अ॒न्या । गुहा॑ । अ॒कः॒ । अद्यौ॑त् । उ॒षाः । शोशु॑चता । रथे॑न ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपान्यदेत्यभ्य१न्यदेति विषुरूपे अहनी सं चरेते। परिक्षितोस्तमो अन्या गुहाकरद्यौदुषाः शोशुचता रथेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप। अन्यत्। एति। अभि। अन्यत्। एति। विषुरूपे इति विषुऽरूपे। अहनी इति। सम्। चरेते इति। परिऽक्षितोः। तमः। अन्या। गुहा। अकः। अद्यौत्। उषाः। शोशुचता। रथेन ॥ १.१२३.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 123; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    ये विषुरूपे अहनी रात्रिदिने सह संचरेते तयोः परिक्षितोस्तमः प्रकाशयोर्मध्याद्गुहातमोऽन्याऽकः कृत्यानि करोति उषाः शोशुचता रथेनाद्यौत्। अन्यदपैति। अन्यदभ्येतीव दम्पती वर्तेताम् ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (अप) (अन्यत्) (एति) प्राप्नोति (अभि) (अन्यत्) (एति) (विषुरूपे) व्याप्तस्वरूपे (अहनी) रात्रिदिने (सम्) (चरेते) (परिक्षितोः) सर्वतो निवसतोः। अत्र तुमर्थे तोसुन्। (तमः) रात्री (अन्या) भिन्नानि (गुहा) आच्छादिका (अकः) करोति (अद्यौत्) द्योतयति (उषाः) दिनम् (शोशुचता) अत्यन्तं प्रकाशमानेन (रथेन) रम्येण स्वरूपेण ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। अस्मिञ् जगति तमः प्रकाशरूपौ द्वौ पदार्थौ स्तः, याभ्यां सदा लोकार्द्धे दिनं रात्रिश्च वर्तेते। यद्वस्तु तमस्त्यजति तत् त्विषं गृह्णाति यावद्दीप्तिस्तमस्त्यजति तावत्तमिस्रादत्ते द्वौ पर्य्यायैण सदैव स्वव्याप्त्या प्राप्तं प्राप्तं द्रव्यमाच्छादयतः सहैव वर्तेते तयोर्यत्र यत्र संयोगस्तत्र तत्र संध्या यत्र यत्र वियोगस्तत्र तत्र रात्रिर्दिनं च यौ स्त्रीपुरुषावेवं संयुक्तौ वियुक्तौ च भूत्वा दुःखनिमित्तानि जहीतः सुखकारणानि चादत्तस्तौ सदानन्दितौ भवतः ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (विषुरूपे) संसार में व्याप्त (अहनी) रात्रि और दिन एक साथ (सं, चरेते) सञ्चार करते अर्थात् आते-जाते हैं उनमें (परिक्षितोः) सब ओर से वसनेहारे अन्धकार और उजेले के बीच से (गुहा) अन्धकार से संसार को ढाँपनेवाली (तमः) रात्री (अन्या) और कामों को (अकः) करती तथा (उषाः) सूर्य के प्रकाश से पदार्थों को तपानेवाला दिन (शोशुचता) अत्यन्त प्रकाश और (रथेन) रमण करने योग्य रूप से (अद्यौत्) उजेला करता (अन्यत्) अपने से भिन्न प्रकाश को (अप, एति) दूर करता तथा (अन्यत्) अन्य प्रकाश को (अभ्येति) सब ओर से प्राप्त होता, इस सब व्यवहार के समान स्त्री-पुरुष अपना वर्त्ताव वर्तें ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। इस जगत् में अन्धेरा-उजेला दो पदार्थ हैं, जिनसे सदैव पृथिवी आदि लोकों के आधे भाग में दिन और आधे में रात्रि रहती है। जो वस्तु अन्धकार को छोड़ता वह उजेले का ग्रहण करता और जितना प्रकाश अन्धकार को छोड़ता उतना रात्रि लेती, दोनों पारी से सदैव अपनी व्याप्ति के साथ पाये-पाये हुए पदार्थ को ढाँपते और दोनों एक साथ वर्त्तमान हैं। उनका जहाँ-जहाँ संयोग है वहाँ-वहाँ संध्या और जहाँ-जहाँ वियोग होता अर्थात् अलग होते वहाँ-वहाँ रात्रि और दिन होता। जो स्त्री-पुरुष ऐसे मिल और अलग होकर दुःख के कारणों को छोड़ते और सुख के कारणों को ग्रहण करते वे सदैव आनन्दित होते हैं ॥ ७ ॥

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    विषय

    विषुरूपे अहनी

    पदार्थ

    १. प्रस्तुत मन्त्र में दिन व रात दोनों को 'अहनी' इस द्विवचनान्त शब्द से कहा गया है । दिन का आरम्भ उषा से होता है । इस उषा के आने पर (अन्यत्) = दिन से भिन्न रात्रि (अप एति) = दूर चली जाती है और (अन्यत्) = रात्रि से भिन्न दिन (अभि एति) = हमारी ओर आता है । ये दिन और रात दोनों (विषुरूपे) = भिन्न - भिन्न परन्तु सुन्दर रूपोंवाले हैं । दिन का प्रकाशमय रूप तो सुन्दर प्रतीत होता ही है, रात्रि अन्धकारमयी होती हुई भी सुन्दर है, वह हमारी थकावट को दूर करके नवस्फूर्ति एवं उल्लास का कारण बनती है । ये भिन्न-भिन्न रूपोंवाले (आहनी) = दिन व रात (संचरेते) = सम्यक् मिलकर गतिवाले होते हैं । दिन के पीछे रात व रात के पीछे दिन सम्बद्ध हुए हुए चले आते हैं । २. ये दिन - रात हमारे जीवनों को क्षीण करते चलते हैं । (परिक्षितोः) = जीवन को एक-एक दिन करके क्षीण करनेवाले [क्षि - क्षये] इन दिन व रात में (अन्या) = एक (तमः) = यह अन्धकाररूप रात्रि (गुहा अकः) = सब पदार्थों का संवरण करती है, छिपा लेती है । इसके विपरीत (उषाः) = उषा शोशचता (रथेन) = अपने खूब दीप्त होते हुए रथ से (अद्यौत्) = चमकती है और सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करनेवाली होती है [प्रकाशते प्रकाशयति वा - सा] ।

    भावार्थ

    भावार्थ - दिन - रात दोनों ही सुन्दर हैं । प्रकाशमय होने से दिन तो सुन्दर है ही, रात्रि भी शक्ति का सञ्चार करनेवाली होने से सुन्दर ही है ।

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    विषय

    रात्रि दिन के दृष्टान्त से पति-पत्नी के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (अहनी) दिन और रात्रि दोनों (विषुरूपे) तम और प्रकाश से विपरीत रूप के होकर भी ( संचरेते ) एक साथ गति करते हैं । इन दोनों में से (अन्यत् अप एति) एक हटता है, दूर जाता है, तो (अन्यत्) दूसरा उसके (एति) सन्मुख आजाता है । ( परिक्षितोः ) समीप २ साथ निवास करते हुए दोनों में से ( अन्या ) एक, रात्रि ( गुहा ) अन्तरिक्ष में ( तमः अक: ) अन्धकार को फैलाती है तो दूसरी ( उषाः ) उषा, प्रभातवेला, ( शोशुचता ) अति दीप्तियुक्त चमचमाते (रथेन) रथ अर्थात् तीव्र प्रकाशवान् सूर्य से ( अद्यौत् ) प्रकाशित होती है। इसी प्रकार दोनों स्त्री पुरुष भी ( विषुरूपे ) भिन्न भिन्न स्वभाव के या ( वि-सु रूपे ) विशेष सुन्दर, रूपवान् पति पत्नी ( अहनी ) एक दूसरे के हृदय को व्यापने और प्रकाशित करने वाले होकर ( सं चरेते ) एकसाथ ही सांसारिक सुखका भोग करें । उनमें ( अन्यत् अप एति ) एक परे होवे तो ( अन्यत् अभि एति ) दूसरा सामने आवे अर्थात् यदि एक व्यक्ति उत्तम कार्य करता करता थक कर विश्राम करे तो उसका स्थान दूसरा ले । अथवा एक स्त्री लज्जावश होकर परे रहती है तो दूसरा साथी पुरुष (अभि एति) सन्मुख रहता है । ( परिक्षितोः ) साथ ही निवास करने के लिये उन दोनों में से ( अन्या ) एक मेम्बर, स्त्री ( गुहा ) बुद्धि में यदि ( तमः ) अन्धकार के समान खेद, शोक आदि प्रकट करे तो दूसरा ( उषाः ) प्रभात के समान प्रकाश वाला होकर ( शोशुचता रथेन ) अति दीप्तियुक्त, रमण करने योग्य स्वरूप से ( अद्यौत् ) प्रकाशित हो और खेद आदि अन्धकार को दूर करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवानृषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः– १, ३, ६, ७, ९, १०, १३, विराट् त्रिष्टुप् । २,४, ८, १२ निचत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. या जगात काळोख व प्रकाश हे दोन पदार्थ आहेत. त्यामुळे सदैव पृथ्वी इत्यादीवर अर्ध्या भागावर दिवस व अर्ध्या भागावर रात्र असते. जी वस्तू अंधःकाराचा त्याग करते ती प्रकाशाचा स्वीकार करते. जितका प्रकाश अंधकाराचा त्याग करतो तितकी रात्र होते. दोन्ही पाळीपाळीने सदैव आपल्या व्याप्तीने पदार्थाला झाकतात. ते दोन्ही बरोबरच असतात. त्यांचा जिथे जिथे संयोग होतो. ती संध्याकाळ असते व जिथे जिथे वियोग होतो अर्थात वेगवेगळे होतात, तेथे तेथे रात्र व दिवस होतात. जे स्त्री पुरुष संयुक्त व वियुक्त होऊन दुःखाच्या कारणांचा त्याग करतात व सुखाच्या कारणांचा स्वीकार करतात ते सदैव आनंदित असतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    One goes away at dusk, the other comes over in the morning, thus the lights of the day-night cycle both different of form move together and coexist. Of these two cyclic coexistents of the world, the dark covers and hides things in the cave, the other, the dawn of light, reveals them in their true form with the beauty of its chariot.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The one departed and the other cometh unlike in hue, day's halves (day and night) march on successively. One (night) hides the gloom of the all-encompassing heaven and earth. The day with its bright and charming form illuminates all objects.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (विषुरूपे) व्याप्तस्वरूपे = Pervading. (परिक्षितोः) सर्वतो निवसतो: = Residing in all directions. (उषा:) दिनम् = Day. (रथेन) रम्येण स्वरूपेण = With charming form.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There are two things in this world, darkness and light by which there are day and night in the hemisphere. The object that gives up dark, takes on light. When light gives up darkness, the night takes it up. These two successively pervade all objects there is union of dark and light, it is called Sandhya. (Morning and evening light). When they are separate, they are called day and night. Those husbands and wives who like day and night come together for the sake of progeny and then live separately with self-restraint, give up all cause of suffering and take up all that causes happiness. Thus they always enjoy happiness.

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