ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 123/ मन्त्र 12
ऋषिः - दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवान्
देवता - उषाः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अश्वा॑वती॒र्गोम॑तीर्वि॒श्ववा॑रा॒ यत॑माना र॒श्मिभि॒: सूर्य॑स्य। परा॑ च॒ यन्ति॒ पुन॒रा च॑ यन्ति भ॒द्रा नाम॒ वह॑माना उ॒षास॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअश्व॑ऽवतीः । गोऽम॑तीः । वि॒श्वऽवा॑राः । यत॑मानाः । र॒श्मिऽभिः॑ । सूर्य॑स्य । परा॑ । च॒ । यन्ति॑ । पुनः॑ । आ । च॒ । य॒न्ति॒ । भ॒द्रा । नाम॑ । वह॑मानाः । उ॒षसः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वावतीर्गोमतीर्विश्ववारा यतमाना रश्मिभि: सूर्यस्य। परा च यन्ति पुनरा च यन्ति भद्रा नाम वहमाना उषास: ॥
स्वर रहित पद पाठअश्वऽवतीः। गोऽमतीः। विश्वऽवाराः। यतमानाः। रश्मिऽभिः। सूर्यस्य। परा। च। यन्ति। पुनः। आ। च। यन्ति। भद्रा। नाम। वहमानाः। उषसः ॥ १.१२३.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 123; मन्त्र » 12
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे स्त्रियो सूर्यस्य रश्मिभिस्सहोत्पन्ना यतमाना अश्वावतीर्गोमतीर्विश्ववारा भद्रा नाम वहमाना उषसः परा यन्ति च पुनरायन्ति च तथा यूयं वर्त्तध्वम् ॥ १२ ॥
पदार्थः
(अश्वावतीः) प्रशस्ता अश्वा व्याप्तयो विद्यन्ते यासां ताः। अत्र मतौ पूर्वपदस्य दीर्घः। (गोमतीः) बहुपृथिवीकिरणयुक्ताः (विश्ववाराः) याः सर्वं जगद्वृण्वन्ति ताः (यतमानाः) प्रयत्नं कुर्वत्यः (रश्मिभिः) किरणैः सह (सूर्यस्य) सवितृलोकस्य (परा) (च) (यन्ति) गच्छन्ति (पुनः) (आ) (च) (यन्ति) (भद्रा) भद्राणि (नाम) नामानि (वहमानाः) प्राप्नुवत्यः (उषासः) प्रत्यूषसमयाः। अत्रान्येषामपीति दीर्घः ॥ १२ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्रभातवेलाः सूर्यस्य सन्नियोगेन नियताः सन्ति तथा विवाहिताः स्त्रीपुरुषा परस्परं प्रेमास्पदाः स्युः ॥ १२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे स्त्रियो ! जैसे (सूर्यस्य) सूर्यमण्डल की (रश्मिभिः) किरणों के साथ उत्पन्न (यतमानाः) उत्तम यत्न करती हुई (अश्वावतीः) जिनकी प्रशंसित व्याप्तियाँ (गोमतीः) जो बहुत पृथिवी आदि लोक और किरणों से युक्त (विश्ववाराः) समस्त जगत् को अपने में लेती और (भद्रा) अच्छे (नाम) नामों को (वहमानाः) सबकी बुद्धियों में पहुँचाती हुई (उषसः) प्रभातवेला नियम के साथ (परा, यन्ति) पीछे को जाती (च) और (पुनः) फिर (च) भी (आ, यन्ति) आती हैं, वैसे नियम से तुम अपना वर्त्ताव वर्तो ॥ १२ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रभातवेला सूर्य के संयोग से नियम को प्राप्त हैं, वैसे विवाहित स्त्रीपुरुष परस्पर प्रेम के स्थिर करनेहारे हों ॥ १२ ॥
विषय
विश्ववारा उषा
पदार्थ
१. (अश्वावतीः) = उत्तम कर्मेन्द्रियों को प्राप्त करानेवाली (गोमतीः) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियोंवाली और अतएव (विश्ववारा) = सबसे वरण करने, चाहने योग्य अथवा सब वरणीय वस्तुओं से युक्त उषाएँ (परा यन्ति च) = दूर चली जाती हैं । सूर्योदय होता है और ये कहीं दूर चली जाती हैं (च) = और अगले दिन (पुनः आयन्ति) = फिर आ जाती हैं । इस प्रकार उषा जाती है और अगले दिन फिर आती है । २. ये उषाएँ (सूर्यस्य रश्मिभिः) = सूर्यकिरणों के साथ (यतमानाः) = प्राणियों के जीवनों को उत्तम बनाने के लिए यत्नशील होती हैं । वस्तुतः इन उषाओं में सूर्य की ही प्रथम भाविनी किरण कार्य करती है । इन किरणों के द्वारा (उषासः) = ये उषाएँ (भद्रा नाम) = जो कुछ भद्र है, कल्याणकर है, उसे (वहमानाः) = प्राप्त करानेवाली होती हैं । उषा सन्ताप - रहित प्रकाश को प्राप्त कराती हुई कल्याण - ही - कल्याण करती है ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा आती है और हमारे लिए उत्तम कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों और अन्य भद्र वस्तुओं को प्राप्त कराती है ।
विषय
रात्रि दिन के दृष्टान्त से पति-पत्नी के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( उषासः ) जिस प्रकार उषाएं (सूर्यस्य रश्मिभिः यतमानाः) सूर्य की किरणों से यत्नशील होती हुई, ( अश्वावतीः ) व्यापक प्रकाशों या सूर्य से युक्त, ( गोमतीः ) किरणों से युक्त, ( विश्ववाराः ) सबसे वरण करने योग्य या समस्त विश्वको व्यापने वाली हो कर ( नाम वहमानाः ) सुन्दर रूप धारण करती हुई ( परा यन्ति च पुनः आ यन्ति च ) चली जाती हैं और फिर आ जाती हैं । उसी प्रकार ( उषासः ) पतियों की कामना करती हुई कमनीय नववधुएं भी ( अश्वावतीः ) हृदय में व्यापक गुणवान् बलवान् पतिसे युक्त, या रथमें लगे अश्वों और ( गोमतीः ) गौ आदि पशुसमृद्धि से सम्पन्न हो कर ( विश्ववाराः ) समस्त पुरुषों से वरणीय, उत्तम अथवा समस्त संकटों को दूर करने हारी, ( सूर्यस्य रश्मिभिः ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष की रश्मियों तेजों और नियामक शासनों से ( यतमानाः ) गृहोद्योग करती हुई, ( नाम ) सुन्दर स्वभाव, विनय और उत्तम नाम ख्याति ( वहमाना: ) धारण करती हुइ ( भद्राः ) कल्याण आचरण, मंगल जनक गुणों वाली होकर ( परा यन्ति च पुनः आ यन्ति च ) पतियों के संग दूरदेश में भी जावें और पुनः अपने पिता के घर लौट भी आवें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवानृषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः– १, ३, ६, ७, ९, १०, १३, विराट् त्रिष्टुप् । २,४, ८, १२ निचत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी प्रातः काळची वेळ सूर्याच्या संयोगाने नियमात बांधली जाते. तसे विवाहित स्त्री-पुरुषांनी परस्पर प्रेमात स्थिर असावे. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Riding the rays of the sun, commanding the beauties of the earth, inspiring the chants of the holy Word, dispelling the darkness without and within by the vision of sunlight, arousing universal love and adoration, bearing the name and spirit of Divinity, the blissful lights of the Dawn go round, ascending far above, descending again for the world, and in the end transcending the world of existence to nameless Eternity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O women, you should behave like the dawns, which possessed of pervasiveness possessed of the earth and the rays of the Sun, existing through all time, vying with the rays of the sun (in dissipating darkness), sending down benefits to mankind, O Auspicious Usha, go away and again return.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(आश्वावती:) प्रशस्ता अश्वाः-व्याप्तयो अद्यन्ते यासां ताः || = Possessed of pervasiveness. (गोमती:) बहु पृथिवी किरणयुक्ताः = Possessed of much earth and the rays of the sun.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the Dawns, have fixed time and activities, under the approximate of the sun, in the same manner, married men and women should love one another.
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