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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 123 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 123/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवान् देवता - उषाः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    गृ॒हंगृ॑हमह॒ना या॒त्यच्छा॑ दि॒वेदि॑वे॒ अधि॒ नामा॒ दधा॑ना। सिषा॑सन्ती द्योत॒ना शश्व॒दागा॒दग्र॑मग्र॒मिद्भ॑जते॒ वसू॑नाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गृ॒हम्ऽगृ॑हम् । अ॒ह॒ना । या॒ति॒ । अच्छ॑ । दि॒वेऽदि॑वे । अधि॑ । नाम॑ । दधा॑ना । सिसा॑सन्ती । द्यो॒त॒ना । शश्व॑त् । आ । अ॒गा॒त् । अग्र॑म्ऽअग्रम् । इत् । भ॒ज॒ते॒ । वसू॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गृहंगृहमहना यात्यच्छा दिवेदिवे अधि नामा दधाना। सिषासन्ती द्योतना शश्वदागादग्रमग्रमिद्भजते वसूनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गृहम्ऽगृहम्। अहना। याति। अच्छ। दिवेऽदिवे। अधि। नाम। दधाना। सिसासन्ती। द्योतना। शश्वत्। आ। अगात्। अग्रम्ऽअग्रम्। इत्। भजते। वसूनाम् ॥ १.१२३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 123; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    या स्त्री यथोषा अहना गृहंगृहमच्छाधियाति दिवेदिवे नाम दधाना द्योतना सती वसूनामग्रमग्रं भजते शश्वदिदागात् तथा सिषासन्ती भवेत् सा गृहकार्य्यालङ्कारिणी स्यात् ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (गृहंगृहम्) निकतेनं निकेतनम् (अहना) दिवसेन व्याप्त्या वा। अत्र वाच्छन्दसीत्यल्लोपो न। (याति) (अच्छ) उत्तमरीत्या। अत्र निपातस्येति दीर्घः। (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (अधि) उपरिभावे (नाम) संज्ञाम् (दधाना) धरन्ती (सिषासन्ती) दातुमिच्छन्ती (द्योतना) प्रकाशमाना (शश्वत्) निरन्तरम् (आ) (अगात्) प्राप्नोति (अग्रमग्रम्) पुरःपुरः (इत्) एव (भजते) सेवते (वसूनाम्) पृथिव्यादीनाम् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यदीप्तिः पदार्थानां पुरोभागं सेवते नियमेन प्रतिसमयं प्राप्नोति तथा स्त्रियापि भवितव्यम् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो स्त्री जैसे प्रातःकाल की वेला (अहना) दिन वा व्याप्ति से (गृहंगृहम्) घर-घर को (अच्छाधियाति) उत्तम रीति के साथ अच्छी ऊपर से आती (दिवेदिवे) और प्रतिदिन (नाम) नाम (दधाना) धरती अर्थात् दिन-दिन का नाम आदित्यवार, सोमवार आदि धरती (द्योतना) प्रकाशमान (वसूनाम्) पृथिवी आदि लोकों के (अग्रमग्रम्) प्रथम-प्रथम स्थान को (भजते) भजती और (शश्वत्) निरन्तर (इत्) हो (आ, अगात्) आती है, वैसे (सिषासन्ती) उत्तम पदार्थ पति आदि को दिया चाहती हो, वह घर के काम को सुशोभित करनेहारी हो ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य की कान्ति-घाम सब पदार्थों के अगले-अगले भाग को सेवन करती और नियम से प्रत्येक समय प्राप्त होती है, वैसे स्त्री को भी होना चाहिये ॥ ४ ॥

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    विषय

    अहना - दहना

    पदार्थ

    १. 'उषा' शब्द 'उष दाहे' धातु से बनता है । 'दह' से दहना शब्द बनकर उषा का वाचक होता है । इसमें प्रथमाक्षर 'द्' का लोप होकर 'अहना' उषा का नाम प्रस्तुत मन्त्र में मिलता है । (अहना) = यह दोषों का दहन करनेवाली उषा (गृहं गृहम् अच्छ) = प्रत्येक घर की ओर (याति) = जाती है । प्रत्येक घर में उषा उपस्थित होती है और यह उषा (दिवेदिवे) = प्रतिदिन (नामा) = प्रभु के लक्षणों को [Mark, sign] (अधि दधाना) = खूब धारण करनेवाली होती है । जितने-जितने हमारे दोष दग्ध होते जाते हैं, उतना-उतना ही हम दिव्यता को धारण करनेवाले बनते हैं । २. यह (द्योतना) = सर्वत्र प्रकाश करनेवाली उषा (सिषासन्ती) = उत्तमताओं को हमारे साथ जोड़ने की कामनावाली होती हुई (शश्वत्) = सदा (आगात्) = आती है और प्रतिदिन (वसूनाम्) = श्रेष्ठ पदार्थों के (अग्रं अग्रम् इत्) = अग्र-अग्र भाग को ही (भजते) = सेवित करती है । इस उषा में हम प्रतिदिन कुछ आगे-ही-आगे बढ़नेवाले होते हैं । उषाकाल में प्रबुद्ध होनेवाला व्यक्ति प्रभु का स्मरण करता हुआ उन्नति-पथ पर आगे बढ़ता ही है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उषा आती है । यह हममें उत्तम गुणों को धारण करती है और वसुओं के दृष्टिकोण से हमें उत्तम ही बनाती है ।

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    विषय

    पति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( अहना ) प्रकाश से फैलने वाली, प्रभात वेला जिसप्रकार ( दिवे दिवे दधाना ) प्रतिदिन नव स्वरूप धारण करती हुई । ( गृहं गृहम् अच्छ याति ) प्रति गृह में प्राप्त होती है उसी प्रकार ( अहना ) सबके समक्ष गुणों का प्रकाश करने वाली अथवा ( अहना ) कभी भी न ताड़ने और न व्यथा पाने योग्य, अतिकोमल स्वभाव की, अक्षता नववधू (दिवे दिवे) प्रति दिन (नाम अधि) अपने विनयशील स्वभाव को अधिकाधिक (दधाना) धारण करती हुई ( गृहं गृहम् ) प्रत्येक गृहको ( अच्छ याति ) भली प्रकार आदर से प्राप्त होती और वह ( द्योतना ) उषाके समान ही अपने गुणों का प्रकाश करती हुई ( सिषासन्ती ) समस्त ऐश्वर्यों को सेवन करती हुई ( शश्वत् ) सदा ( वसूनां ) वसने हारे, गृहस्थ में प्रवेश करने हारे विद्वान् नवयुवकों में से ( अग्रम् अग्रम् इत् ) सबमें श्रेष्ठ युवक को ही ( भजते ) प्राप्त हो । अथवा—( वसूनाम् अग्रम् अग्रम् इत् भजते ) ऐश्वर्यो में से श्रेष्ठ से श्रेष्ठ ऐश्वर्य को प्राप्त करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवानृषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः– १, ३, ६, ७, ९, १०, १३, विराट् त्रिष्टुप् । २,४, ८, १२ निचत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे जशी सूर्याची प्रभा सर्व पदार्थाच्या पुढच्या भागांना प्रकाशित करते व नियमाने प्रत्येक वेळी प्राप्त होते. तसे स्त्रीनेही असले पाहिजे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The light of the dawn radiates from home to home gracefully day by day clothed in the beauty and glory of her own name, inspiring and beatifying, shining bright, new as ever every day. She goes on and on from place to place, sharing the joy of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the Ushas (Dawn) goes daily from house to house with her light and bearing the names of the days (like Sunday, Monday etc.) comes perpetually diffusing light to the foremost part of the earth and other worlds, in the same way, the noble lady who desires to bestow benefit upon others by distributing wealth and articles to the needy, is said to be the ornament of the house.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सिषासन्ती ) दातुमिच्छन्ती = Desiring to give. (वसूनाम् पृथिव्यादीनाम् — Of the earth and other words.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the luster of the sun comes in front of all objects and makes them visible and is regular in appearance, so should a lady be regular in her habits and shining like the Dawn on account of her virtues.

    Translator's Notes

    सिषासन्ती is from षणु-दाने सन् therefore the meaning of धातुमिच्छन्सी or desirous of giving. In the shatpath Brahmana 8 Vasus have been explained as follows- कतमे वसव इति । अग्निश्च पृथिवी वायुश्चान्तरिक्षं चादित्याश्च द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि च एते वसवः एते हीदं सर्व वासयन्ते ते यदिदं सर्ववासयन्ते तस्माद् वसव इति || Fire, earth, air, firmament, sun sky, moon and starts are eight vasus.

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