ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 123/ मन्त्र 6
ऋषिः - दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवान्
देवता - उषाः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उदी॑रतां सू॒नृता॒ उत्पुर॑न्धी॒रुद॒ग्नय॑: शुशुचा॒नासो॑ अस्थुः। स्पा॒र्हा वसू॑नि॒ तम॒साप॑गूळ्हा॒विष्कृ॑ण्वन्त्यु॒षसो॑ विभा॒तीः ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ई॒र॒ता॒म् । सू॒नृताः॑ । उत् । पुर॑म्ऽधीः । उत् । अ॒ग्नयः॑ । शु॒शु॒चा॒नासः॑ । अ॒स्थुः॒ । स्पा॒र्हा । वसू॑नि । तम॑सा । अप॑ऽगूळ्हा । आ॒विः । कृ॒ण्व॒न्ति॒ । उ॒षसः॑ । वि॒ऽभा॒तीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदीरतां सूनृता उत्पुरन्धीरुदग्नय: शुशुचानासो अस्थुः। स्पार्हा वसूनि तमसापगूळ्हाविष्कृण्वन्त्युषसो विभातीः ॥
स्वर रहित पद पाठउत्। ईरताम्। सूनृताः। उत्। पुरम्ऽधीः। उत्। अग्नयः। शुशुचानासः। अस्थुः। स्पार्हा। वसूनि। तमसा। अपऽगूळ्हा। आविः। कृण्वन्ति। उषसः। विऽभातीः ॥ १.१२३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 123; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे सत्पुरुषा सूनृताः सन्तो यूयं यथा पुरन्धीश्शुशुचानासोऽग्नय इव स्त्रिय उदीरताम् स्पार्हा वसूनि उदस्थुः। यथोषसस्तमसापगूढा द्रव्याणि विभातीश्चोदाविष्कृण्वन्ति तथा भवत ॥ ६ ॥
पदार्थः
(उत्) उत्कृष्टतया (ईरताम्) प्रेरयन्तु (सूनृताः) सत्यभाषणादिक्रियाः (उत्) (पुरन्धीः) याः पुरं श्रितां दधाति ताः (उत्) (अग्नयः) पावका इव (शुशुचानासः) भृशं पवित्रकारकाः (अस्थुः) तिष्ठन्तु (स्पार्हा) स्पृहणीयानि (वसूनि) (तमसा) अन्धकारेण (अपगूढा) आच्छादितानि (आविः) प्राकट्ये (कृण्वन्ति) कुर्वन्ति (उषसः) प्रभाता (विभातीः) विशिष्टप्रकाशान् ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा स्त्रिय उषर्वद्वर्त्तमाना अविद्यामलिनतादि निष्कृत्य विद्यापवित्रतादि संप्रकाश्यैश्वर्यमुन्नयन्ति तदा ताः सततं सुखिन्यो भवन्ति ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे सत्पुरुषो ! (सूनृताः) सत्यभाषणादि क्रियावान् होते हुए तुम लोग जैसे (पुरन्धीः) शरीर के आश्रित क्रिया को धारण करती और (शुशुचानासः) निरन्तर पवित्र करानेवाले (अग्नयः) अग्नियों के समान चमकती-दमकती हुई स्त्री लोग (उदीरताम्) उत्तमता में प्रेरणा देवें वा (स्पार्हा) चाहने योग्य (वसूनि) धन आदि पदार्थों को (उदस्थुः) उन्नति से प्राप्त हों वा जैसे (उषसः) प्रभातसमय (तमसा) अन्धकार में (अपगूढा) ढँपे हुए पदार्थों और (बिभातीः) अच्छे प्रकाशों को (उदाविष्कृण्वन्ति) ऊपर से प्रकट करते हैं, वैसे होओ ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब स्त्रीजन प्रभातसमय की वेलाओं के समान वर्त्तमान अविद्या, मैलापन आदि दोषों को निराले = दूर कर विद्या और पाकपन आदि गुणों को प्रकाश कर ऐश्वर्य्य की उन्नति करती हैं, तब वे निरन्तर सुखयुक्त होती हैं ॥ ६ ॥
विषय
विभातीः उषसः
पदार्थ
१. (सूनृताः) = प्रिय सत्य वाणियाँ (उदीरताम्) = उद्गत हों, अर्थात् हम उषाकाल में प्रिय - सत्य वाणियों का उच्चारण करनेवाले बनें । (पुरन्धीः) = पालक व पूरक प्रज्ञाएँ (उत्) = उद्गत हों, अर्थात् उषावेला में हममें पालनात्मक व पूरणात्मक विचार उत्पन्न हों । (शुशुचानासः) = खूब चमकती हुई (अग्नयः) = अग्नियाँ (उदस्थुः) = उत्थित हों, अर्थात् अग्निहोत्रादि क्रियाओं में अग्नियों का खब प्रज्वलन हो । २. (विभातीः) = विशेषरूप से चमकती हुई (उषसः) = उषाएँ (तमसा अपगूढानि) = अन्धकार से आवृत्त हुए-हुए (स्पार्हा वसूनि) = स्पृहणीय धनों को (आविष्कृण्वन्ति) = फिर से प्रकट करती हैं । रात्रि के अन्धकार में स्पृहणीय धनों का अर्जन सम्भव नहीं होता । उषा हमें उन धनों के अर्जन के योग्य बनाती है ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा-जागरण से [क] हमारी प्रवृत्ति सत्य बोलने की ओर होती है, [ख] हमारी प्रज्ञा पालन व पूरणात्मक कर्मों में प्रवृत्त होती है, [ग] हम अग्निहोत्र करनेवाले होते हैं तथा [घ] स्पृहणीय धनों का अर्जन कर पाते हैं ।
विषय
पति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( उषसः ) प्रातः वेलाएं जिस प्रकार ( तमसा अपगूढानि ) अंधकार से छुपे, ( स्पार्हा वसूनि ) अभिलाषा करने योग्य नाना ऐश्वर्यों और बसे हुए प्राणियों को और ( विभातीः ) विशेष रूप से चमकने वाली दीप्तियों को प्रकट करती हैं उसी प्रकार ( उषसः ) कान्तिमती, उत्तम स्त्रियें ( तमसा अपगूढानि ) अन्धकार में छिपे नाना ( स्पार्हा वसूनि ) अभिलाषा करने योग्य उत्तम ऐश्चर्यों को ( आविः कृण्वन्ति ) प्रकट करें । और ( विभातीः ) विशेष दीप्तियों का प्रकाश करें। ( सूनृताः ) उत्तम वाणियें, ( उत् ईरताम् ) उठें । वेद वाणियां उच्च स्वर से पढ़ी जावें ( पुरन्धीः ) अर्थात् देह, गृह आदि को धारण करने वाली युवतियां ( उत् ईरताम् ) उन्नति को प्राप्त हों, उठें और ( शुशुचानासः ) अति प्रदीप्त, शुद्ध स्वच्छकारक ( अग्नयः ) यज्ञाग्नियें और विद्वान् जन (उत् अस्थुः) उठें, प्रज्वलित हों और विद्वान् जन ( उत् अस्थुः ) उत्तम पद प्राप्त करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवानृषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः– १, ३, ६, ७, ९, १०, १३, विराट् त्रिष्टुप् । २,४, ८, १२ निचत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा स्त्रिया उषेप्रमाणे अविद्या, मलिनता, निष्क्रियता इत्यादी दोष दूर करून विद्या, पवित्रता इत्यादी गुण प्रकट करतात तेव्हा त्या सदैव सुखी होतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the ladies of high truth and generous munificence sing songs of Divinity. Let the fires of yajna shining and blazing stay and go on burning. The brilliant dawns light up and reveal the cherished wealths of life hidden in the dark.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Good men ! being endowed with truthfulness and other virtues, urge well upon other women also to do noble deeds like the purifying fires upholding or maintaining bodily functions and let desirable wealth of all kinds be acquired. You should be like the radiant Dawns which manifest objects hidden by the darkness and give light.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सूमृता:) सत्यभाषणादिक्रिया: = Truthfulness and other good acts. (पुरन्धी:) या पुरं श्रितां क्रियां दधति ताः = Which uphold or maintain bodily functions.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When women behaving like the Dawns, drive away all darkness of ignorance and impurity manifest knowledge and purity and augment prosperity, they constantly enjoy happiness.
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