ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 123/ मन्त्र 8
ऋषिः - दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवान्
देवता - उषाः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स॒दृशी॑र॒द्य स॒दृशी॒रिदु॒ श्वो दी॒र्घं स॑चन्ते॒ वरु॑णस्य॒ धाम॑। अ॒न॒व॒द्यास्त्रिं॒शतं॒ योज॑ना॒न्येकै॑का॒ क्रतुं॒ परि॑ यन्ति स॒द्यः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒ऽदृशीः॑ । अ॒द्य । स॒ऽदृशीः॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । श्वः । दी॒र्घम् । स॒च॒न्ते॒ । वरु॑णस्य । धाम॑ । अ॒न॒व॒द्याः । त्रिं॒शत॑म् । योज॑नानि । एका॑ऽएका । क्रतु॑म् । परि॑ । य॒न्ति॒ । स॒द्यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सदृशीरद्य सदृशीरिदु श्वो दीर्घं सचन्ते वरुणस्य धाम। अनवद्यास्त्रिंशतं योजनान्येकैका क्रतुं परि यन्ति सद्यः ॥
स्वर रहित पद पाठसऽदृशीः। अद्य। सऽदृशीः। इत्। ऊँ इति। श्वः। दीर्घम्। सचन्ते। वरुणस्य। धाम। अनवद्याः। त्रिंशतम्। योजनानि। एकाऽएका। क्रतुम्। परि। यन्ति। सद्यः ॥ १.१२३.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 123; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
या अद्य अनवद्या सदृशीरु श्वः सदृशीर्वरुणस्य दीर्घं धाम सचन्ते। एकैका त्रिंशतं योजनानि क्रतुं सद्यः परियन्ति ता इद् व्यर्थाः केनचिन्नो नेयाः ॥ ८ ॥
पदार्थः
(सदृशीः) सदृश्यो रात्र्य उषसश्च (अद्य) अस्मिन् दिने (सदृशीः) (इत्) एव (उ) वितर्के (श्वः) आगामिदिने (दीर्घम्) महान्तं समयम् (सचन्ते) समवेता वर्त्तन्ते (वरुणस्य) वायोः (धाम) स्थानम् (अनवद्याः) अनिन्दिताः (त्रिंशतम्) (योजनानि) विंशत्यधिकशतं क्रोशान् (एकैका) (क्रतुम्) कर्म (परि) (यन्ति) (सद्यः) शीघ्रम् ॥ ८ ॥
भावार्थः
यथेश्वरनियमनियतानां गतानां वर्त्तमानानामागामिनां च रात्रिदिनानामन्यथात्वं न जायते तथैव सर्वस्याः सृष्टेः क्रमविपर्यासो न भवति तथा ये मनुष्या आलस्यं विहाय सृष्टिक्रमानुकूलतया प्रयतन्ते ते प्रशंसितविद्यैश्वर्या जायन्ते यथैतद्रात्रिदिनं यथा समयं यात्यायाति च तथैव मनुष्यैर्व्यवहारेषु सदा वर्त्तितव्यम् ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (अद्य) आज के दिन (अनवद्याः) प्रशंसित (सदृशीः) एकसी (उ) अथवा तो (श्वः) अगले दिन (सदृशीः) एकसी रात्रि और प्रभात वेला (वरुणस्य) पवन के (दीर्घम्) बड़े समय वा (धाम) स्थान को (सचन्ते) संयोग को प्राप्त होती और (एकैका) उनमें से प्रत्येक (त्रिंशतम्, योजनानि) एकसौ बीस क्रोश और (क्रतुम्) कर्म को (सद्यः) शीघ्र (परि, यन्ति) पर्य्याय से प्राप्त होती हैं, वे (इत्) व्यर्थ किसी को न खोना चाहिये ॥ ८ ॥
भावार्थ
जैसे ईश्वर के नियम को प्राप्त जो हो गये, होते और होनेवाले रात्रि-दिन हैं उनका अन्यथापन नहीं होता, वैसे ही इस सब संसार के क्रम का विपरीत भाव नहीं होता तथा जो मनुष्य आलस को छोड़ सृष्टिक्रम की अनुकूलता से अच्छा यत्न किया करते हैं, वे प्रशंसित विद्या और ऐश्वर्य्यवाले होते हैं और जैसे यह रात्रि दिन नियत समय आता और जाता वैसे ही मनुष्यों को व्यवहारों में सदा अपना वर्ताव रखना चाहिये ॥ ८ ॥
विषय
प्रज्ञा व कर्मशक्ति कीप्राप्ति
पदार्थ
१. उषाएँ (अद्य) = आज (सदृशीः) गत उषाओं के समान ही हैं (उ) = और (इत्) = निश्चय से (श्वः) = कल भी सदशीः आज के समान ही होंगी । ये उषाएँ (वरुणस्य) = अन्धकार का निवारण व श्रेष्ठता को सिद्ध करनेवाले प्रभु के (दीर्घम्) = विस्तृत व अन्धकार - विदारक [विदारणे] (धाम) = तेज को (सचन्ते) = सेवन करती हैं । प्रभु के तेज से ही उषाएँ तेज व दीप्तिवाली होती है 'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति' । २. (अनवद्याः) = सब अवद्यों व अशुभों से रहित ये प्रशस्त उषाएँ (त्रिंशतं योजनानि) = सूर्य से तीस योजन आगे - आगे चलती हुई (एका एका) = एक-एक करके (सद्यः) = शीघ्र ही (क्रतुम्) = प्रज्ञा व कर्म को (परियन्ति) = सर्वतः प्राप्त होती हैं । इन उषाओं के द्वारा हमारी ज्ञानेन्द्रियों में ज्ञान - प्राप्ति की शक्ति का आधान किया जाता है और कर्मेन्द्रियों में कर्मशक्ति का स्थापन होता है । सूर्योदय से कुछ पूर्व उषा का आगमन होता है । जो भी व्यक्ति इन उषाकालों में जागरित होकर सूर्य के स्वागत के लिए तैयार हो जाते हैं, उन्हें ये उषाएँ प्रभु के तेज से तेजस्वी बनाती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - उषाकाल में प्रबुद्ध व्यक्ति उषाओं के द्वारा प्रज्ञा व कर्मशक्ति को प्राप्त करते हैं ।
विषय
रात्रि दिन के दृष्टान्त से पति-पत्नी के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
प्रभातवेलाएँ जिस प्रकार ( अद्य ) आज ( सदृशीः ) समान रूप से दीखती हैं ( उ श्वः सदृशीः इत् ) उसी प्रकार कल अर्थात् भविष्य में भी दीखती हैं । उसी प्रकार उत्तम सुन्दर स्त्रियें भी ( अद्य सदृशीः ) जिस प्रकार गुणों से युक्त अपने पतियों के अनुरूप हों उसी प्रकार ( श्वः इत् उ सदृशीः ) कल, भविष्य में भी सदा तदनुरूप बनी रहें । वे (अनवद्याः) निन्दनीय आचारों से रहित, उत्तम आचारवाली होकर ( वरुणस्य ) वरण करने योग्य श्रेष्ठ पुरुष के ( दीर्घं ) चिरकालतक निवास करने योग्य ( धाम ) गृहको ( सचन्ते ) प्राप्त हों । जिस प्रकार उषाएं वरणीय सूर्य के दीर्घ विस्तृत प्रकाश को प्राप्त होती हैं और जिस प्रकार ( त्रिंशतं योजनानि ) उषाएं सूर्योदय के स्थान से आगे ३०। ३० योजन दूरतक दीखती है और ( एकैका ) अकेले अकेले भी ( क्रतु परि यन्ति ) प्रत्येक यज्ञ या अपने कर्त्ता सूर्य के आश्रय पर रहती हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ भी (त्रिंशतं योजनानि) कम से कम ३० । ३० योजन अर्थात् १२० कोश दूर तक ( सद्यः ) नित्य ( ऋतु परियन्ति ) अपने ‘ऋतु’ अर्थात् कर्त्ता, पतिको प्राप्त हों । वे समीप समीप विवाहित न होवें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवानृषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः– १, ३, ६, ७, ९, १०, १३, विराट् त्रिष्टुप् । २,४, ८, १२ निचत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे ईश्वरी नियमाप्रमाणे रात्र व दिवस होऊन गेलेले आहेत होत आहेत व होणारे आहेत. ते वर्तमान भूत भविष्यात एकसारखे असतात, त्यात वेगळेपणा नसतो. या संसाराचा क्रम विपरीत नसतो. जी माणसे आळस सोडून सृष्टिक्रमाच्या अनुकूलतेनुसार प्रयत्न करतात ती प्रशंसित होतात व विद्यावान आणि ऐश्वर्यवान होतात. जसे रात्र व दिवस वेळेवर येतात जातात तसेच माणसाचे व्यवहारात वर्तन असावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
They are the same today as they will be tomorrow, and in the same manner together, both brave and beautiful, they go round in the region of the sun, each traversing thirty stages of its travel time ever and on in the yajnic cycle of their circulation. (Each stage of time is of twenty-four minutes.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The same today, the same tomorrow, the irreproachable and joyful (dawns) traverse in the long and distant space of the air. They also are seen at the distance of 30 Yajnas or about 150 miles from the appearance of the sun. They should never be wasted by any one, but utilized for meditation etc.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वरुणस्य) वायो: = Of the air. (त्रिशतं योजनानि) विशत्यधिकशतं क्रोशान् = 120 Kroshas or about 150 miles.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As in this creation of God, there is never transgression of the appointed time of days and nights, the same is the case with other eternal laws. Those men who give up all laziness and act according to the laws of the Universe, acquire admirable knowledge and wealth. As days and night come and go regularly, so men should be regular, in their dealings. They should be, industrious and punctual.
Translator's Notes
Rishi Dayananda has interpreted वरुणस्य here as वायो: though other translators have interpreted it as सूर्यस्य or of the sun. For the meaning of वरुण as वात or air, see Shatapath Brahmana वातो (व्यान:) वरुण: (शत० १२.९.१.१६ ) and Maitrayani Sanhita ४.८.५ वातोवरुण: (मैत्रायणी संहिता ४.८.५ ) The exact significance of the number त्रिशतं योजनानि is still a matter of further research as it relates to the science of Astronomy. As in this and some other hymns, the duties of the wife mentioned by the illustration of the Dawn, there is the indication that the bride should marry a bridegroom living at the distance of at least 30 Yajnas or about 150 miles and that she should always maintain the same loving attitude towards her husband under all circumstances.
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