ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 123/ मन्त्र 9
ऋषिः - दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवान्
देवता - उषाः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
जा॒न॒त्यह्न॑: प्रथ॒मस्य॒ नाम॑ शु॒क्रा कृ॒ष्णाद॑जनिष्ट श्विती॒ची। ऋ॒तस्य॒ योषा॒ न मि॑नाति॒ धामाह॑रहर्निष्कृ॒तमा॒चर॑न्ती ॥
स्वर सहित पद पाठजा॒न॒ती । अह्नः॑ । प्र॒थ॒मस्य॑ । नाम॑ । शु॒क्रा । कृ॒ष्णात् । अ॒ज॒नि॒ष्ट॒ । श्वि॒ती॒ची । ऋ॒तस्य॑ । योषा॑ । न । मि॒ना॒ति॒ । धाम॑ । अहः॑ऽअहः । निः॒ऽकृ॒तम् । आ॒ऽचर॑न्ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
जानत्यह्न: प्रथमस्य नाम शुक्रा कृष्णादजनिष्ट श्वितीची। ऋतस्य योषा न मिनाति धामाहरहर्निष्कृतमाचरन्ती ॥
स्वर रहित पद पाठजानती। अह्नः। प्रथमस्य। नाम। शुक्रा। कृष्णात्। अजनिष्ट। श्वितीची। ऋतस्य। योषा। न। मिनाति। धाम। अहःऽअहः। निःऽकृतम्। आऽचरन्ती ॥ १.१२३.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 123; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे स्त्रि यथा प्रथमस्याह्नो नाम जानती शुक्रा श्वितीच्युषाः कृष्णाद्जनिष्ट। ऋतस्य योषेवाऽहरहराचरन्ती सती निष्कृतं धाम न मिनाति तथा त्वं भव ॥ ९ ॥
पदार्थः
(जानती) ज्ञापयन्ती (अह्नः) दिनस्य (प्रथमस्य) विस्तीर्णस्यादिमावयवस्य वा (नाम) संज्ञाम् (शुक्रा) शुद्धिकरी (कृष्णात्) निकृष्टवर्णात् तमसः (अजनिष्ट) जायते (श्वितीची) या श्वितिं श्वेतवर्णमञ्चति सा (ऋतस्य) सत्यव्यवहारयुक्तजनस्य (योषा) भार्या (न) निषेधे (मिनाति) हिनस्ति (धाम) स्थानम् (अहरहः) (निष्कृतम्) निष्पन्नं निश्चितं वा (आचरन्ती) ॥ ९ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथोषा अन्धकारादुत्पद्य दिनं प्रसाधयति दिनविरोधिनी न जायते तथा स्त्री सत्याचरणेन स्वमातापितृपतिकुलं सत्कीर्त्या प्रशस्तं श्वशुरं प्रति पतिं प्रत्यप्रियं किञ्चिन्नाचरेत् ॥ ९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे स्त्रि ! जैसे (प्रथमस्य) विस्तरित पहिले (अह्नः) दिन वा दिन के आदिम भाग का (नाम) नाम (जानती) जानती हुई (शुक्रा) शुद्धि करनेहारी (श्वितीची) सुपेदी को प्राप्त होती हुई प्रातःसमय की वेला (कृष्णात्) काले रङ्गवाले अन्धेरे से (अजनिष्ट) प्रसिद्ध होती है वा (ऋतस्य) सत्य आचरणयुक्त मनुष्य की (योषा) स्त्री के समान (अहरहः) दिन-दिन (आचरन्ती) आचरण करती हुई (निष्कृतम्) उत्पन्न हुए वा निश्चय को प्राप्त (धाम) स्थान को (न) नहीं (मिनाति) नष्ट करती, वैसी तूँ हो ॥ ९ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रातःसमय की वेला अन्धकार से उत्पन्न होकर दिन को प्रसिद्ध करती है, दिन से विरोध करनेहारी नहीं होती वैसे स्त्री सत्य आचरण से तथा अपने माता, पिता और पति के कुल को उत्तम कीर्ति से प्रशस्त कर अपने श्वसुर और पति के प्रति उनके अप्रसन्न होने का व्यवहार कुछ न करे ॥ ९ ॥
विषय
ऋत का मिश्रण
पदार्थ
१. (प्रथमस्य) = अत्यन्त विस्तृत (अह्नः) = दिन के कारणभूत सूर्य के (नाम) = नमन व आगमन [नमनमागमनम् - सा०] को (जानती) = [प्रज्ञापयन्ती - सा०] सूचित करती हुई (शुक्रा) = दीप्त उषा (कृष्णात्) = अन्धकारमयी कृष्णवर्णवाली रात्रि से (अजनिष्ट) = प्रादुर्भूत होती है । रात्रि के बाद आनेवाली होने से उषा रात्रि से उत्पन्न होती हुई प्रतीत होती है । २. कृष्णवर्णा रात्रि से उत्पन्न होती हुई भी यह (श्वितीची) = श्वैत्य को प्राप्त होनेवाली है । प्रकाशमयी होने से यह श्वेत - ही श्वेत है । (ऋतस्य योषा) - यह उषा अपने आराधकों के जीवन में ऋत का मिश्रण करनेवाली है । उषा में जागरणशील व्यक्ति ऋतयुक्त जीवनवाले होते हैं । ये सब कार्यों को ठीक समय पर व ठीक स्थान में करनेवाले होते हैं । यह उषा (धाम) = इनके तेज को (न मिनाति) = नष्ट नहीं करती । ऋत - पालकों के तेज को यह बढ़ाती है और (अहः-अहः) = दिन-प्रतिदिन (निष्कृतं आचरन्ती) = [निष्कृतम् - removing, taking away, killing] यह उनके जीवन से दोषों को दूर करती है, शोधन करती हुई उनके जीवन को सद्गुणों से सुशोभित करनेवाली होती है ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा स्वयं दीस है । यह अपने आराधकों के जीवनों को भी दीस बनाती है, उनके जीवन में ऋत का मिश्रण करती हुई उनके तेज को बढ़ाती है ।
विषय
रात्रि दिन के दृष्टान्त से पति-पत्नी के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( अह्वः प्रथमस्य ) दिनके आदि भाग, पूर्वाह्न के ( नाम ) स्वरूपको जानती जनाती हुई ( श्वितीचो ) श्वेत वर्ण से युक्त, उज्ज्वल ( शुक्रा ) कान्तिमती उषा जिस प्रकार ( कृष्णात् ) काले अन्धकार के बीच में से ( अजनिष्ट ) प्रकट होती है और वह ( अहः-अहः ) नित्य ( निष्कृतम् ) नियत, निश्चित रूप से उत्तम शोभासम्पन्न प्रकाश ( आचरन्ती ) करती हुई ( ऋतस्य धाम ) आदित्य के तेज को ( न मिनाति ) नष्ट नहीं होने देती प्रत्युत उसकी और भी वृद्धि करती है उसी प्रकार ( योषा ) दो कुलों को मिलाने हारी स्त्री ( प्रथमस्य नाम जानती ) अपने कुल में अति प्रसिद्ध आदि वंश कर्त्ता का गोत्रनाम उच्चारण करती हुई ( श्वितीची ) स्वयं शुद्ध पवित्र कर्म करती हुई ( शुक्ला ) कान्तिमती तेजस्वनी, चाहे ( कृष्णात् ) कृष्ण अर्थात् हीन कर्म करने वाले कुलसे भी ( अजनिष्ट ) उत्पन्न हुई हो वह भी ( निष्कृतम् ) शास्त्रादि से निश्चित, उत्तम शोभाजनक कायं का (आचरन्ती) आचरण करती हुई ( ऋतस्य ) सत्य व्यवहार या वेद या सत्याचरण युक्त पुरुष के ( धाम ) स्थान, गृह आदि का ( न मिनाति ) नाश नहीं करे, प्रत्युत उसको उत्तम रीति से बसावे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवानृषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः– १, ३, ६, ७, ९, १०, १३, विराट् त्रिष्टुप् । २,४, ८, १२ निचत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी प्रातःकाळची वेळ अंधःकारातून उत्पन्न होऊन दिवस प्रकट करते ती दिवसाची विरोधिनी नसते. तसे स्त्रीने सत्य आचरणाने व आपले माता, पिता व कुलाची उत्तम कीर्ती वाढवून आपले सासर व पतीला अप्रसन्न करणारा व्यवहार करू नये. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
She knows and reveals the first, morning, part of the day and its holiness. Pure and brilliant is she, risen from the darkness of night. Young and maidenly, following her daily chores fixed by nature day by day and hour by hour, she never relents in her observance of the Law of the Divine.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O woman! Thou should be like the Dawn who denotes the advent of the vast day though she is born out of the gloom but is herself white-shining and purifier. Like the life of an honest and truthful person, she impairs not the sun's splendor but takes her God-ordained place and work.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(जानती) ज्ञापयन्ती = Denoting. (शुक्रा) शुद्धिकरो = Purifier. (निष्कृतम्) निष्पन्नं निश्चितं वा = Fixed or accomplished.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the Dawn is born out of darkness, but accomplishes or manifests the day and is never antagonistic to the day, in the same way, a woman by truthful conduct should bring good name to the family of her parents and should not do anything contrary to the noble wishes of her husband and father-in-law.
Translator's Notes
Even Sayanacharya has explained जानती here as प्रज्ञापयन्ती शुक्रा is derived from शुचिर्-पूतीभावे hence the meaning of शुद्धिकरी Sayanacharya interprets ऋतस्य as सत्यभूतस्य आदित्यस्य धाम तेजोयुक्तम् स्थानं योषा-मिश्रयन्ती while Rishi Dayananda interprets योषा as भार्या which is its well-known popular meaning.
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