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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 127/ मन्त्र 10
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः

    प्र वो॑ म॒हे सह॑सा॒ सह॑स्वत उष॒र्बुधे॑ पशु॒षे नाग्नये॒ स्तोमो॑ बभूत्व॒ग्नये॑। प्रति॒ यदीं॑ ह॒विष्मा॒न्विश्वा॑सु॒ क्षासु॒ जोगु॑वे। अग्रे॑ रे॒भो न ज॑रत ऋषू॒णां जूर्णि॒र्होत॑ ऋषू॒णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । वः॒ । म॒हे । सह॑सा । सह॑स्वते । उ॒षः॒ऽबुधे॑ । प॒शु॒ऽसे । न । अ॒ग्नये॑ । स्तोमः॑ । ब॒भू॒तु॒ । अ॒ग्नये॑ । प्रति॑ । यत् । ई॒म् । ह॒विष्मान् । विश्वा॑सु । क्षासु॑ । जोगु॑वे । अग्रे॑ । रे॒भः । न । ज॒र॒ते॒ । ऋ॒षू॒णाम् । जूर्णिः॑ । होता॑ । ऋ॒षू॒णाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वो महे सहसा सहस्वत उषर्बुधे पशुषे नाग्नये स्तोमो बभूत्वग्नये। प्रति यदीं हविष्मान्विश्वासु क्षासु जोगुवे। अग्रे रेभो न जरत ऋषूणां जूर्णिर्होत ऋषूणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। वः। महे। सहसा। सहस्वते। उषःऽबुधे। पशुऽसे। न। अग्नये। स्तोमः। बभूतु। अग्नये। प्रति। यत्। ईम्। हविष्मान्। विश्वासु। क्षासु। जोगुवे। अग्रे। रेभः। न। जरते। ऋषूणाम्। जूर्णिः। होता। ऋषूणाम् ॥ १.१२७.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 127; मन्त्र » 10
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरखिलैर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या वः सहस्वत उषर्बुधे पशुषे महे जोगुवेऽग्नये नाग्नये विश्वासु क्षासु हविष्मान् स्तोमः सहसा प्रबभूतु रेभो नाग्रे ऋषूणां विद्या ईम् प्रति जरते यद्यो होता जूर्णिर्भवेत् स ऋषूणां सामीप्यं गत्वाऽरोगी भवेत् ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (प्र) (वः) युष्माकम् (महे) महते (सहसा) बलेन (सहस्वते) बहुबलयुक्ताय (उषर्बुधे) प्रत्युषःकालजागरकाय (पशुषे) बन्धकाय (न) इव (अग्नये) प्रकाशमानाय (स्तोमः) स्तुतिः (बभूतु) भवतु। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः श्लुः। (अग्नये) विद्युतइव (प्रति) प्रत्यक्षे (यत्) (ईम्) सर्वतः (हविष्मान्) प्रशस्तानि हवींषि गृहीतानि विद्यन्ते यस्य सः (विश्वासु) सर्वासु (क्षासु) भूमिषु। क्षेति पृथिविना०। निघं० १। १। (जोगुवे) भृशमुपदेशकाय (अग्रे) प्रथमतः (रेभः) उपदेशकः (न) इव (जरते) स्तौति (ऋषूणाम्) प्राप्तविद्यानां जिज्ञासूनां वा (जूर्णिः) रोगवान् (होता) अत्ता (ऋषूणाम्) प्राप्तवैद्यकविद्यानाम् ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसो विद्याप्राप्तये प्रयतन्ते तथेह सर्वैर्मनुष्यैः प्रयतितव्यम् ॥ १० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर समस्त मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (वः) तुम लोगों के (सहस्वते) बहुत बलयुक्त (उषर्बुधे) प्रत्येक प्रभात समय में जागने और (पशुषे) प्रबन्ध बाँधनेहारे (महे) बड़े (जोगुवे) निरन्तर उपदेशक (अग्नये) बिजुली के (न) समान (अग्नये) प्रकाशमान के लिये (विश्वासु) सब (क्षासु) भूमियों में (हविष्मान्) प्रशंसित ग्रहण किये हुए व्यवहार जिसमें विद्यमान वह (स्तोमः) प्रशंसा (सहसा) बल के साथ (प्र, बभूतु) समर्थ हो (रेभः) उपदेश करनेवाले के (न) समान (अग्रे) आगे (ऋषूणाम्) जिन्होंने विद्या पाई वा जो विद्या को जानना चाहते उनकी विद्याओं की (ईम्) सब ओर से (प्रति, जरते) प्रत्यक्ष में स्तुति करता (यत्) जो (होता) भोजन करनेवाला (जूर्णिः) जूड़ी आदि रोग से रोगी हो वह (ऋषूणाम्) जिन्होंने वैद्य विद्या पाई अर्थात् उत्तम वैद्य हैं, उनके समीप जाकर रोगरहित हो ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् जन विद्या प्राप्ति के लिये अच्छा यत्न करते हैं, वैसे इस संसार में सब मनुष्यों को प्रयत्न करना चाहिये ॥ १० ॥

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    विषय

    होता ही सच्चा स्तोता है

    पदार्थ

    १. (वः) = तुम्हारा (स्तोमः) = स्तवन उस (अग्नये) = अग्रणी प्रभु के लिए (प्रबभूतु) = खूब ही हो जो (महे) = पूज्य हैं, (सहसा सहस्वते) = सहस् के द्वारा सहस्वाले हैं, सर्वाधिक बलवाले हैं, (उषर्बुधे) = उषाकाल में बोध देनेवाले हैं, उषाकाल में जागनेवालों को बोध व ज्ञान प्राप्त कराते हैं । (पशुषे न) = उस प्रभु के लिए तुम्हारे स्तोत्र हों जो [पश्वान् - चतुर्थी] सदा तुम्हारा ध्यान करनेवाले के समान हैं - [one who always looks after you] वस्तुतः (यत्) = जो (ईम्) = निश्चय से (हविष्मान्) = हविवाला पुरुष, त्यागपूर्वक अदन करनेवाला पुरुष, यज्ञशेष का सेवन करनेवाला पुरुष है वह (विश्वासु क्षासु) = निवास के लिए कारणभूत यज्ञवेदि की सब भूमियों के प्रति (प्रतिजोगुवे) = प्रतिदिन जानेवाला होता है । यही (रेभः न) = सच्चे स्तोता के समान (ऋषूणाम् अग्रे) = तत्वज्ञानियों के अग्रभाग में स्थित हुआ - हुआ (जरते) = प्रभु का स्तवन करता है । (होतः) = यह यज्ञशील पुरुष ही (ऋषणाम्) = ज्ञानियों में (जूर्णिः) = प्रभु का सच्चा स्तोता है, यही स्तुति कुशल है, वास्तव में स्तुति करने का प्रकार तो इसी ने जाना ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का सच्चा स्तोता वही है जो हविष्मान् बनकर प्रभु का ज्ञानीभक्त बनता है ।

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    विषय

    दम्पति विश्पति का रहस्य ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों का यत् जब ( हविष्मान् स्तोमः ) उत्तम चरु सामग्री से युक्त स्तोम ( अग्नये ) जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि को लक्ष्य करके पढ़ा जाता है उसी प्रकार वास्तव में वह ( स्तोमः ) स्तोम, मन्त्र समूह ( हविष्मान् ) आदन, या ग्रहण करने योग्य उत्तम अन्नों तथा गुणों सहित, उनको प्रकाशित करता हुआ उस ( महे ) बड़े भारी महान् सामर्थ्य वाले, ( सहसा सहस्वते ) बल से बलवान् ( उषर्बुधे ) प्रातःकाल जागने वाले, आलस्य रहित, अथवा योग दशा में विशोका के उदय में ज्ञान का विषय होने वाले, ( पशुषे ) पशुओं को सब प्रकार की पुष्टि देनेवाले गोपालक के समान समस्त प्राणियों के परिपोषक और व्यवस्थापक ( विश्वासु क्षासु जी गुवे ) समस्त भूमियों और चित्त भूमियों में प्राप्त होने वाले परमेश्वर के लिये ( बभूतु ) होवे । और ( रेभः न ) जिस प्रकार विद्वान् उपदेष्टा ( ऋषूणां अग्रे जरते ) श्रद्धा से आने वाले जिज्ञासु शिष्यों को उपदेश करता है या ( रेभः ) विद्वान् पुरुष जन जिस प्रकार ( ऋषूणां ) बड़े ज्ञानवान् पुरुषों के समक्ष ( जरते ) विद्या का प्रकाश करता है और जिस प्रकार ( जूर्णिः ऋषूणाम् अग्रे ) ज्वर आदि कष्टों से पीड़ित पुरुष जिस प्रकार विद्यावान् वैद्यों के समक्ष अपने सब वचन कहता है उसी प्रकार (जूर्णिः) स्तुतिकर्त्ता विद्वान् ( होता ) उपासक या विद्या का प्रदाता आचार्य भी ( ऋषूणां रेभः ) उत्तम उपदेशक होकर ( ऋषूणाम् अग्रे जरते ) दर्शनीय, प्राप्त विद्य या जिज्ञासु विद्यार्थी जनों को आगे ज्ञानोपदेश करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २, ३, ८,९ अष्टिः। ४, ७, ११ भुरिगष्टिः। ५, ६ अत्यष्टिः । १० भुरिगति शक्वरी ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक विद्या प्राप्तीसाठी चांगला प्रयत्न करतात तसे या संसारात सर्व माणसांनी प्रयत्न केले पाहिजेत. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May your song of praise in honour of Agni, victorious by virtue of great valour, light of the morning such as the dawn, be as it should be for the lord giver of life’s wealth. Just so it is that the yajnic faithful offers oblations to the eternal teacher of revelation anywhere in all lands, and how an admirer ever offers praise to the eminent among scholars, or an aged yajaka offers to the senior physician.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should all men is told in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, may your praise with all good dealings be for a leader, who shines like the lightning, is great, mighty with his strength to overcome the strong, who is in the habit of getting up at the dawn, who is punisher of the wicked, who is a good preacher to all the people on the face of the earth, he admires the knowledge of the learned or the enquirers after truth like a propagandist. A man who is diseased on account of taking unsuitable food, becomes healthy and free from diseases by associating himself with highly learned persons well versed in Vaidyaka (Medical Science).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (क्षासु) भूमिषु क्षेति पृथिवीनाम (निघ० १.१ ) = On all parts of the earth. (रेभः) उपदेशक:= Preacher. (ऋषूणाम् ) १ प्राप्ताविद्यानां जिज्ञासूनां वा २ प्राप्त वैद्यकविद्यानाम् = Learned or seekers of knowledge:

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always endeavor to acquire good knowledge, as learned persons do.

    Translator's Notes

    (रेभ:) रेभृ-शब्दे भ्वा० आ० (ऋषूणाम् ) ऋषी-गतौ तुदा० गतेस्त्रयोऽर्था ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र ज्ञानार्थ-ग्रहणम् । ऋषूणां ज्ञानवतामिति सायणाचार्योऽपि जृष-वयोहानौजृ

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