ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 127/ मन्त्र 2
यजि॑ष्ठं त्वा॒ यज॑माना हुवेम॒ ज्येष्ठ॒मङ्गि॑रसां विप्र॒ मन्म॑भि॒र्विप्रे॑भिः शुक्र॒ मन्म॑भिः। परि॑ज्मानमिव॒ द्यां होता॑रं चर्षणी॒नाम्। शो॒चिष्के॑शं॒ वृष॑णं॒ यमि॒मा विश॒: प्राव॑न्तु जू॒तये॒ विश॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयजि॑ष्ठम् । त्वा॒ । यज॑मानाः । हु॒वे॒म॒ । ज्येष्ठ॑म् । अङ्गि॑रसाम् । वि॒प्र॒ । मन्म॑ऽभिः । विप्रे॑भिः । शु॒क्र॒ । मन्म॑ऽभिः । परि॑ज्मानम्ऽइव । द्याम् । होता॑रम् । च॒र्ष॒णी॒नाम् । शो॒चिःऽके॑शम् । वृष॑णम् । यम् । इ॒माः । विशः॑ । प्र । अ॒व॒न्तु॒ । जू॒तये॑ । विशः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यजिष्ठं त्वा यजमाना हुवेम ज्येष्ठमङ्गिरसां विप्र मन्मभिर्विप्रेभिः शुक्र मन्मभिः। परिज्मानमिव द्यां होतारं चर्षणीनाम्। शोचिष्केशं वृषणं यमिमा विश: प्रावन्तु जूतये विश: ॥
स्वर रहित पद पाठयजिष्ठम्। त्वा। यजमानाः। हुवेम। ज्येष्ठम्। अङ्गिरसाम्। विप्र। मन्मऽभिः। विप्रेभिः। शुक्र। मन्मऽभिः। परिज्मानम्ऽइव। द्याम्। होतारम्। चर्षणीनाम्। शोचिःऽकेशम्। वृषणम्। यम्। इमाः। विशः। प्र। अवन्तु। जूतये। विशः ॥ १.१२७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 127; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः प्रजा राजत्वाय कीदृशं जनमाश्रयेयुरित्याह ।
अन्वयः
हे विप्र यजमाना वयं मन्मभिर्विप्रेभिः सहाङ्गिरसां मध्ये ज्येष्ठं त्वा हुवेम। शुक्र यं मन्मभिश्चर्षणीनां होतारं परिज्मानमिव द्यां शोचिष्केशं वृषणं त्वामिमा विशः प्रावन्तु स त्वं जूतये इमा विशः प्राव ॥ २ ॥
पदार्थः
(यजिष्ठम्) अतिशयेन यष्टारम् (त्वा) त्वाम् (यजमानाः) सङ्गन्तारः (हुवेम) प्रशंसेम (ज्येष्ठम्) अतिशयेन प्रशस्तम् (अङ्गिरसाम्) प्राणिनाम् (विप्र) मेधाविन् (मन्मभिः) मन्यमानैः (विप्रेभिः) विपश्चिद्भिः सह (शुक्र) शुद्धात्मन् (मन्मभिः) विज्ञानैः (परिज्मानमिव) परितः सर्वतो भोक्तारमिव (द्याम्) प्रकाशम् (होतारम्) दातारम् (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् (शोचिष्केशम्) शोचींषीव केशा यस्य तम् (वृषणम्) बलिष्ठम् (यम्) (इमाः) (विशः) प्रजाः (प्र) (अवन्तु) प्राप्नुवन्तु (जूतये) रक्षणाद्याय (विशः) प्रजाः ॥ २ ॥
भावार्थः
मनुष्या यं विद्वांसं प्रशंसेयुः प्रजाश्च तमेवाप्तमाश्रयन्तु ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर प्रजाजन राज्य के लिये कैसे जन का आश्रय करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (विप्र) उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् ! (यजमानाः) व्यवहारों का सङ्ग करनेहारे लोग (मन्मभिः) मान करनेवाले (विप्रेभिः) विचक्षण विद्वानों के साथ (अङ्गिरसाम्) प्राणियों के बीच (ज्येष्ठम्) अतिप्रशंसित (यजिष्ठम्) अत्यन्त यज्ञ करनेवाले (त्वा, हुवेम) तुझको प्रशंसित करते हैं (शुक्र) शुद्ध आत्मावाले धर्मात्मा जन (यम्) जिस (मन्मभिः) विज्ञानों के साथ (चर्षणीनाम्) मनुष्यों के बीच (होतारम्) दान करनेवाले (परिज्मानमिव) सब ओर से भोगनेहारे के समान (द्याम्) प्रकाशरूप (शोचिष्केशम्) जिसके लपट जैसे चिलकते हुए केश हैं, उस (वृषणम्) बलवान् तुझको (इमाः) ये (विशः) प्रजाजन (प्रावन्तु) अच्छे प्रकार प्राप्त होवें, वह तूँ (जूतये) रक्षा आदि के लिये (विशः) प्रजा जनों को अच्छे प्रकार प्राप्त हो और पाल ॥ २ ॥
भावार्थ
विद्वान् और प्रजाजन जिसकी प्रशंसा करें, उसी आप्त सर्वशास्त्रवेत्ता विद्वान् का आश्रय सब मनुष्य करें ॥ २ ॥
विषय
यजिष्ठ का आराधन
पदार्थ
१. हे (विप्र) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले । (शुक्र) = अत्यन्त शुद्ध, उज्वल रूपवाले प्रभो! (यजिष्ठम्) = सर्वाधिक पूज्य, संगतिकरण के योग्य तथा महान् दाता (त्वा) = आपको यजमानाः यज्ञशील बनकर हम (हुवेम) = पुकारते हैं । आप (अङ्गिरसां ज्येष्ठम्) = अङ्ग-अङ्ग में रसवालों में ज्येष्ठ हैं । आप तो हैं ही 'रस' । २. हम आपकी आराधना (मन्मभिः) = मनन साधनों से और (विप्रेभिः मन्मभिः) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले स्तोत्रों से करते हैं । प्रभु - स्तवन हमारे सामने जीवन के उत्कृष्ट लक्ष्य को उपस्थित करता है । उस लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए हम अपने जीवन को पूरण करनेवाले होते हैं । इससे ये 'मन्म' 'विप्र' हो जाते हैं । ये स्तोत्र हमारा पूरण करते हैं । ३. हे प्रभो! आप (परिज्मानम्) = चारों ओर गति करनेवाले - प्रकाश के द्वारा सर्वत्र व्याप्त होनेवाले (द्याम् इव) = सूर्य के समान हैं - 'ब्रह्म सूर्यसमं ज्योतिः', 'आदित्यवर्ण तमसः परस्तात् । (चर्षणीनां होतारम्) = श्रमशील मनुष्यों को सब - कुछ देनेवाले हैं, (शोचिष्केशम्) = दीप्तज्ञान - रश्मियोंवाले हैं [केश - ray of light], (वृषणम्) = शक्तिशाली व सब पर सुखवृष्टि करनेवाले हैं । आप वे हैं (यम्) = जिनको (इमाः विशः विशः) = ये संसार में प्रविष्ट प्रजाएँ (जूतये) = स्वर्गादि इष्ट - फलों की प्राप्ति के लिए (प्रावन्तु) = प्रकर्षेण प्रीणित करनेवाली हों । पुत्र के उत्तम कर्मों से प्रसन्न पिता जैसे पुत्र के लिए सब आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त कराने के लिए उद्यत होता है, इसी प्रकार प्रभु हमारे उत्तम कर्मों से प्रीणित होने पर हमें सब इष्ट - फलों को प्राप्त करानेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - यज्ञशील बनकर हम यजिष्ठ प्रभु का उपासन करते हैं । प्रभु के स्तोत्र हमारे जीवन का पूरण करते हैं । हम भी 'शोचिष्केश व वृषा' बनते हैं - दीसज्ञान - रश्मियोंवाले तथा शक्तिशाली ।
विषय
पक्षान्तर में विद्वान् आचार्य शिष्य के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( विप्र ) मेधाविन् ! विद्वान् विविध उपायों और विद्याओं से और ऐश्वर्यों और सुचरितों से समस्त प्रजाओं से प्रसन्न, पूर्ण और सन्तुष्ट करने वाले ! हे (शुक्र) शुद्ध आत्मा वाले ! वा शीघ्रता से कार्य सम्पादन करने हारे ! ( मन्मभिः ) मान करने योग्य, एवं विचारशील ( विप्रेभिः ) विद्वान् पुरुषों और ( मन्मभिः ) ज्ञान विज्ञानों सहित, ( यजिष्ठं ) सब से अधिक पूजनीय, (अंगिरसां ज्येष्ठं) प्राणवान्, एवं ज्ञानी तेजस्वी पुरुषों में सूर्य के समान सब से बड़े, तेरे उपासक, तेरी संगति करने हारे ( त्वा ) तुझको हम ( यजमानाः ) ( हुवेम ) स्तुति करें, प्राप्त हों ! ( धाम इव परिज्मानम् ) सूर्य के समान चारों ओर प्रकाश से और तेज से व्यापक ( चर्षणीनाम् होतारम् ) प्रजा और दीर्घदर्शी विद्वानों को अधिकार, ऐश्वर्य देने वाले उनको अपने अधीन स्वीकारने वाले ( शोचिष्केशम् ) ज्वालाओं के समान किरणों और केशों को धारण करने वाले ( वृषणं ) मेघ के समान सुखों के वर्धक एवं प्रजा को व्यवस्था में बांधने वाले, बलवान् ( यं ) जिस पुरुष को ( इमाः ) ये सब ( विशः ) हृदय और गृह में प्रविष्ट स्त्रियें जिस प्रकार पति को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार ( विशः ) उसके राज्य में प्रविष्ट होकर रहने वाली प्रजाएं ( जूतये ) उसे प्रसन्न करने और स्वयं प्रसन्न होने के लिये ( प्र अवन्तु ) प्राप्त होती हैं वह उनको भी प्राप्त हो और पालन करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २, ३, ८,९ अष्टिः। ४, ७, ११ भुरिगष्टिः। ५, ६ अत्यष्टिः । १० भुरिगति शक्वरी ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान व प्रजा ज्याची प्रशंसा करतात त्याच शास्त्रवेत्त्या विद्वानाचा आश्रय सर्व माणसांनी घ्यावा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord most worshipful, we the performers of this yajnic assembly, with all our heart and mind, together with all the saints and scholars with their earnest desire, invoke and invite you, wisest and senior-most of the scholar visionaries of Divinity, pure and immaculate, brilliant as the sun with your reach into the light of heaven, high-priest of humanity, lord of light knowledge, generous as rain showers, whom all these people accept, respect and approach with their desire and prayer for protection and self-fulfilment.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What kind of man should be sought after for kingship is told in the Second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O exceedingly wise man, we the performers of the Yajnas and unifiers of all men, praise thee along with respected scholars, as thou art the best among living beings and the most adorable. O Pure souled, as these people approach thee-who art the giver of knowledge and wisdom to men and art like the bright-haired sun, mighty and moving in all directions, so thou shouldst come to them for protection.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मन्मभिः) मन्यमानं: = Respectable: (शुक्र) शुद्धात्मन् = Pure souled. (जूतये) रक्षणाय = protection etc. (अंगिरसाम्) प्राणिनाम् = Of living beings.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should take shelter in such an absolutely truthful learned person who is admired by all, highly educated as well as ordinary people.
Translator's Notes
शुचिर्-प्रतीभावे प्राणो वा अंगिरा: (शतपथ ६, १२,२८;५. २. ३. ४,
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal