ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 127/ मन्त्र 9
त्वम॑ग्ने॒ सह॑सा॒ सह॑न्तमः शु॒ष्मिन्त॑मो जायसे दे॒वता॑तये र॒यिर्न दे॒वता॑तये। शु॒ष्मिन्त॑मो॒ हि ते॒ मदो॑ द्यु॒म्निन्त॑म उ॒त क्रतु॑:। अध॑ स्मा ते॒ परि॑ चरन्त्यजर श्रुष्टी॒वानो॒ नाज॑र ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒ग्ने॒ । सह॑सा । सह॑न्ऽतमः । शु॒ष्मिन्ऽत॑मः । जा॒य॒से॒ । दे॒वऽता॑तये । र॒यिः । न । दे॒वऽता॑तये । शु॒ष्मिन्ऽत॑मः॑ । हि । ते॒ । मदः॑ । द्यु॒म्निन्ऽत॑मः । उ॒त । क्रतुः॑ । अध॑ । स्म॒ । ते॒ । परि॑ । च॒र॒न्ति॒ । अ॒ज॒र॒ । श्रु॒ष्टी॒वानः॑ । न । अ॒ज॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्ने सहसा सहन्तमः शुष्मिन्तमो जायसे देवतातये रयिर्न देवतातये। शुष्मिन्तमो हि ते मदो द्युम्निन्तम उत क्रतु:। अध स्मा ते परि चरन्त्यजर श्रुष्टीवानो नाजर ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। अग्ने। सहसा। सहन्ऽतमः। शुष्मिन्ऽतमः। जायसे। देवऽतातये। रयिः। न। देवऽतातये। शुष्मिन्ऽतमः। हि। ते। मदः। द्युम्निन्ऽतमः। उत। क्रतुः। अध। स्म। ते। परि। चरन्ति। अजर। श्रुष्टीवानः। न। अजर ॥ १.१२७.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 127; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः राजादयो जनाः कीदृशा जायन्त इत्याह ।
अन्वयः
हे अजर नेवाजराग्ने विद्वन् देवतातये रयिर्नेव देवतातये सहन्तमः शुष्मिन्तमस्त्वं सहसा जायसे यस्य ते तव शुष्मिन्तमो द्युम्निन्तमो मद उतापि क्रतुर्हि विद्यते। अध ते तव श्रुष्टीवानः स्म परिचरन्ति तं त्वां सर्वे वयमाश्रयेम ॥ ९ ॥
पदार्थः
(त्वम्) (अग्ने) शूरवीर विद्वन् (सहसा) बलेन (सहन्तमः) अतिशयेन सह इति सहन्तमः (शुष्मिन्तमः) प्रशंसितं बलं विद्यते यस्य स शुष्मी सोऽतिशयितः (जायसे) (देवतातये) देवाय विदुषे (रयिः) श्रीः (न) इव (देवतातये) देवानां विदुषामेव सत्काराय (शुष्मिन्तमः) अतिशयेन बलवान् (हि) खलु (ते) तव (मदः) हर्षः (द्युम्निन्तमः) बहूनि द्युम्नानि धनानि विद्यन्ते यस्य स द्युम्नी इति द्युम्निन्तमः अत्र सर्वत्र नाद्घस्य। अष्टा० ८। २। १७। इति नुट् । (उत) अपि (क्रतुः) (अध) आनन्तर्ये (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (ते) तव (परि) सर्वतः (चरन्ति) (अजर) जरादोषरहित (श्रुष्टीवानः) शीघ्रक्रियायुक्ताः (न) इव (अजर) योऽजे जन्मरहित ईश्वरे रमते तत्सम्बुद्धौ। अत्र वाच्छन्दसीत्यविहितो डः ॥ ९ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सशरीरात्मबलाः प्राज्ञाः श्रीमत्प्रजा जायन्ते ते सुखकारका भवन्ति ॥ ९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा आदि कैसे होते, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अजर) तरुण अवस्थावाले के (न) समान (अजर) अजन्मा परमेश्वर में रमते हुए (अग्ने) शूरवीर विद्वान् ! (देवतातये) विद्वान् के लिये (रयिः) धन जैसे (न) वैसे (देवतातये) विद्वानों के सत्कार के लिये (सहन्तमः) अतीव सहनशील (शुष्मिन्तमः) अत्यन्त प्रशंसित बलवान् (त्वम्) आप (सहसा) बल से (जायसे) प्रकट होते हो जिन (ते) आपका (शुष्मिन्तमः) अत्यन्त बलयुक्त (द्युम्निन्तमः) जिनके सम्बन्ध में बहुत धन विद्यमान वह अत्यन्त धनी (मदः) हर्ष (उत) और (क्रतुः) यज्ञ (हि) ही है (अध) अनन्तर (ते) आपके (श्रुष्टीवानः) शीघ्र क्रियावाले (स्म) ही (परि, चरन्ति) सब ओर से चलते वा आपकी परिचर्या करते उन आपका हम लोग आश्रय करें ॥ ९ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य शरीर और आत्मा के बल से युक्त, अच्छे प्रकार ज्ञाता, विद्या आदि धन प्रकाश युक्त सन्तानोंवाले होते हैं, वे सुख करनेवाले होते हैं ॥ ९ ॥
विषय
सहन्तमः शुष्मिन्तमः
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (त्वम्) = आप सहसा (सहन्तमः) = सहस् के द्वारा सर्वाधिक सहस्वाले हैं । 'सहस्' शब्द शक्ति के उस स्वरूप का वाचक है, जिसका सम्बन्ध हमारे जीवन में आनन्दमयकोश से है । वे प्रभु 'सहन्तम' हैं, इसी से आनन्दस्वरूप हैं । यह शक्ति ही हमें सहनशील बनाती है । हे प्रभो! आप (शुष्मिन्तमः) = सर्वाधिक शत्रुबल-शोषक हैं । आपकी कृपा व शक्ति से ही हम भी कामादि शत्रुओं का पराजय कर पाते हैं । आप (देवतातये जायसे) = दिव्यगुणों के विस्तार के लिए होते हैं । (न) = जिस प्रकार (रयिः) = धन (देवतातये) = दिव्यगुणों व यज्ञादि के लिए सहायक होता है उसी प्रकार प्रभु स्मरण देवताति के लिए आवश्यक है । वस्तुतः प्रभु के बिना धन भी हमें यज्ञादि में ले - जाने के स्थान पर कुमार्ग में ले - जानेवाला बन जाता है । २. हे प्रभो! (ते मदः) = तेरे स्मरण से उत्पन्न हुआ-हुआ मद [नशा] (हि) = निश्चय से (शुष्मिन्तमः) = हमें अत्यधिक शक्तिशाली बनानेवाला है, (उत) = और (क्रतुः) = आपके कर्म (द्युम्निन्तमः) = अत्यन्त ज्योतिर्मय हैं । आपकी प्राप्ति के लिए किये जानेवाले सभी कर्म हमारे जीवन को ज्योतिर्मय बनाते हैं । हे (अजर) = जरा रहित, कभी जीर्ण न होनेवाले प्रभो! (अध) = अब आपके स्मरण के नशे से 'शुष्मिन्तम' बनकर और आपकी प्राप्ति के लिए किये जानेवाले कर्मों से 'धुम्निन्तम' बने हुए (स्म) = ही हम लोग (ते श्रुष्टीवानः न) = आपके दूत से बने हुए, आपके सन्देश को सर्वत्र पहुँचाते हुए (परिचरन्ति) = आपकी परिचर्या व सेवा करते हैं । हे (अजर) = अ-जीर्णशक्तिवाले प्रभो! आपके ही वे सेवक होते हैं । प्रभु के सन्देशवाहक के लिए 'शुष्मिन्तम व धुम्निन्तम' होना आवश्यक है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु 'सहन्तम व शुष्मिन्तम' हैं । उनका उपासक भी ऐसा ही बनकर प्रभु के सन्देश को फैलाता हुआ प्रभु का सच्चा सेवक बनता है ।
विषय
दम्पति विश्पति का रहस्य ।
भावार्थ
अग्नि जिस प्रकार ( सहसा ) जलाने वाले बल से (सहन्तमः) सब को पराजित करने वाला, और ( देवतातये ) यज्ञ के लिये या विद्वानों, दिव्य पदार्थों के हित के लिये ( शुष्मिन्तमः ) शोषणकारी तीव्र ताप से युक्त पदार्थों में सब से श्रेष्ठ है, वही ( देवतातये रयिः न ) किरणों या प्रकाश के लिये अक्षय धन के समान है । उसको ( श्रुष्टीवानः ) अन्न आदि चरु से युक्त जन ( परिचरन्ति ) उसकी परिचर्या करते हैं। उसी प्रकार हे ( अग्ने ) ज्ञानवान् परमेश्वर, अग्रणी नायक ! राजन् ! विद्वन् ! आचार्य ! तू ( सहसा ) सब को पराजित करने और दूर करने वाले बल से ( सहन्तमः ) सब से बढ़ कर पराजित करने वाला और ( देवतातये ) विद्वानों और दिव्य पदार्थों के हितार्थ ( शुष्मिन्तमः ) सब से अधिक बलवान् (जायसे) है । हे राजन् ! तू बलवान् होकर रह । तू ( देवतातये) देवों, विद्वानों और विजयी पुरुषों के लिये उनका ( रयिः न ) परम धनवत् सबका सुखदाता है। जैसे भौतिक अग्नि की ( मदः ) घृत आदि पदार्थों से तृप्ति ही ( शुष्मितमः ) उस सब से अधिक तीव्र ताप वाला होना है वही ( द्युम्निन्तमः क्रतुः ) उसी दशा में वह सबसे अधिक तेजस्वी, प्रकाशवान् और क्रिया सामर्थ्यवान् होता है उसी प्रकार ! हे प्रभो ! परमेश्वर ( ते मदः ) तेरा मद अति हर्ष या ( मदः = दमः ) तेरा दमन या शासन भी ( शुष्मिन्तमः मदिन्तमः ) शत्रुओं का सब से अधिक शोषण करने वाला, और सब से अधिक बलवान् और ( घुम्निन्तमः ) सब से अधिक तेजस्वी यशस्वी और ऐश्वर्य समृद्धि से युक्त ( उत ) और ( क्रतुः ) क्रियासामर्थ्यवान् प्रज्ञा से युक्त हो । हे परमेश्वर ! ( ते मदः ) तेरा परमानन्द स्वरूप ( शुष्मिन्तमः द्युम्नितमः उत क्रतुः ) अति बलशाली, अति यशस्वी, प्रकाशयुक्त और क्रिया और ज्ञान से सम्पन्न संसार का उत्पादक है । ( अध ) और हे ( अजर ) जरा रहित ( श्रुष्टीवानः न ) अन्नादि चरु वाले याज्ञिकों के समान ( श्रुष्टीवानः ) तेरे में व्याप्ति वाले, तुझ में रमण करने वाले ज्ञानी पुरुष ही ( ते परिचरन्ति ) तेरी नित्य उपासना करते हैं । हे ( अजर ) हे जीर्णता या नाश को प्राप्त न होनेहारे ! सदा बलवान् ! राजन् ! ( श्रुष्टीवानः ) अति शीघ्र कार्य कारी सेवकजन दूत आदि ( ते परिचरन्ति ) तेरी सेवा करें । अथवा हे ( अजर ) अविनाशी प्रभो ! (श्रुष्टीवानः) व्याप्ति वाले आकाश, विद्युदादि नित्य पदार्थ भी ( ते परिचरन्ति ) तेरी सेवा करते हैं, तेरे अधीन हैं । पुनः, हे ( अजर ) अज, अजन्मा नित्य परमाणुओं और आत्मा, आकाशादि पदार्थों में भी रमण करने हारे ! तेरी ही हम उपासना करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २, ३, ८,९ अष्टिः। ४, ७, ११ भुरिगष्टिः। ५, ६ अत्यष्टिः । १० भुरिगति शक्वरी ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार अहे. जी माणसे शरीर व आत्मा यांच्या बलाने युक्त, प्राज्ञ, विद्या इत्यादी धन, उत्तम संतान यांनी युक्त असतात, ती सुख देणारी असतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light, knowledge and power, by courage most courageous of the brave and victorious, you rise most brilliant and fiery for the advancement of the noblest powers of nature and humanity, just as wealth is most effective for the service of the divines. Most brilliant is your light of joy, most abundant in the service of yajna. Lord of light immortal, servants of yajna most obedient and willing, serve you just as they would serve the Immortal Lord of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the rulers be is told in the ninth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O great scholar free from decay and devoted to eternal God! Thou art like beauty or wealth to a learned person, for honoring enlightened persons thou the destroyer of enemies by the strength, the possessor of great splendour, verily thy exhilaration is most brilliant and full of force; thy intellect or action is most productive of renown. Thy active followers, attendants serve thee well. We also take shelter in thee.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(धुम्निन्तमः) बहूनि द्युम्नानि धनानि विद्यन्ते यस्य स धम्नी अतिशयेन दयुम्नीति द्यम्निन्तमः । अत्र सर्वत्र नाद घस्येति नुट = Possessing much wealth. (श्रुष्टीवानः) शीघ्रक्रियायुक्ताः = Active, quick-acting. (अजर) १ जरादोषरहित = Free from decay. (अजर) २ य: अजे जन्मरहिते ईश्वरे रमते तत्सम्बुद्धौ । अत्र वाच्छन्दसीत्यविहितो ड:।। = Devoted to God who is Eternal or free from birth and death.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons are givers of joy and happiness, who possess physical and spiritual power, are intelligent and who have wealthy or prosperous subjects.
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