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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 127/ मन्त्र 4
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः

    दृ॒ळ्हा चि॑दस्मा॒ अनु॑ दु॒र्यथा॑ वि॒दे तेजि॑ष्ठाभिर॒रणि॑भिर्दा॒ष्ट्यव॑से॒ऽग्नये॑ दा॒ष्ट्यव॑से। प्र यः पु॒रूणि॒ गाह॑ते॒ तक्ष॒द्वने॑व शो॒चिषा॑। स्थि॒रा चि॒दन्ना॒ नि रि॑णा॒त्योज॑सा॒ नि स्थि॒राणि॑ चि॒दोज॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दृ॒ळ्हा । चि॒त् । अ॒स्मै॒ । अनु॑ । दुः॒ । यथा॑ । वि॒दे । तेजि॑ष्ठाभिः । अ॒रणि॑ऽभिः । दा॒ष्टि॒ । अव॑से । अ॒ग्नये॑ । दा॒श्टि॒ । अव॑से । प्र । यः । पु॒रूणि॑ । गाह॑ते । तक्ष॑त् । वना॑ऽइव । शो॒चिषा॑ । स्थि॒रा । चि॒त् । अन्ना॑ । नि । रि॒णा॒ति॒ । ओज॑सा । नि । स्थि॒राणि॑ । चि॒त् । ओज॑सा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दृळ्हा चिदस्मा अनु दुर्यथा विदे तेजिष्ठाभिररणिभिर्दाष्ट्यवसेऽग्नये दाष्ट्यवसे। प्र यः पुरूणि गाहते तक्षद्वनेव शोचिषा। स्थिरा चिदन्ना नि रिणात्योजसा नि स्थिराणि चिदोजसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दृळ्हा। चित्। अस्मै। अनु। दुः। यथा। विदे। तेजिष्ठाभिः। अरणिऽभिः। दाष्टि। अवसे। अग्नये। दाष्टि। अवसे। प्र। यः। पुरूणि। गाहते। तक्षत्। वनाऽइव। शोचिषा। स्थिरा। चित्। अन्ना। नि। रिणाति। ओजसा। नि। स्थिराणि। चित्। ओजसा ॥ १.१२७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 127; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्न्यायाधीशैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथा विद्वाँस्तेजिष्ठाभिररणिभिरस्मै विदेऽवसेऽग्नये दाष्टि विद्वांसो वा दृढा स्थिरा निश्चलानि चिद्विज्ञानान्यनुदुस्तथा योऽवसे दाष्टि तक्षत्सन् सूर्यो वनेव शोचिषा पुरूणि शत्रुदलानि प्रगाहते। ओजसा स्थिराणि कर्माणि निरिणाति चिदोजसाऽन्ना चिन् निरिणाति स सुखमवाप्नोति ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (दृढा) दृढानि (चित्) (अस्मै) सभाध्यक्षाय (अनु) (दु) दद्युः। अत्र लुङ्यडभावः। (यथा) येन प्रकारेण (विदे) विदुषे (तेजिष्ठाभिः) अतिशयेन तेजस्विनीभिः (अरणिभिः) (दाष्टि) दशति (अवसे) रक्षकाय (अग्नये) अग्नयइव वर्त्तमानाय (दाष्टि) दशति (अवसे) रक्षणाद्याय (प्र) (यः) (पुरूणि) बहूनि (गाहते) विलोडते (तक्षत्) जलादीनि तनूकुर्वन् (वनेव) रश्मय इव। वनमिति रश्मिना०। निघं० १। ५। (शोचिषा) न्यायसेनाप्रकाशेन (स्थिरा) स्थिराणि (चित्) अपि (अन्ना) अत्तुमर्हाण्यन्नानि (नि) (रिणाति) प्राप्नोति (ओजसा) पराक्रमेण (नि) (स्थिराणि) (चित्) अपि (ओजसा) कोमलेन कर्मणा ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा विपश्चितो विद्याप्रचारेण मनुष्याणामात्मनः प्रकाश्य सर्वान् पुरुषार्थे नयन्ति तथा विद्वांसो न्यायाधीशाः प्रजा उद्यमयन्ति ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर न्यायाधीशों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यथा) जैसे विद्वान् (तेजिष्ठाभिः) अत्यन्त तेजवाली (अरणिभिः) अरणियों से (अस्मै) इस (विदे) शास्त्रवेत्ता (अवसे) रक्षा करनेवाले (अग्नये) अग्नि के समान वर्त्तमान सभाध्यक्ष के लिये (दाष्टि) ओविली को घिसने से काटता वा विद्वान् जन (दृढा) (स्थिरा) निश्चल (चित्) भी विज्ञानों के (अनु, दुः) अनुक्रम से देवें, वैसे (यः) जो (अवसे) रक्षा आदि करने के लिये (दाष्टि) काटता अर्थात् उक्त क्रिया को करता वा (तक्षत्) अपने तेज से जल आदि को छिन्न-भिन्न करता हुआ सूर्यमण्डल (वनेव) किरणों को जैसे वैसे (शोचिषा) न्याय और सेना के प्रकाश से (पुरूणि) बहुत शत्रु दलों को (प्र, गाहते) अच्छे प्रकार विलोडता वा (ओजसा) पराक्रम से (स्थिराणि) स्थिर कर्मों को (नि) निरन्तर प्राप्त होता (चित्) और (ओजसा) कोमल काम से (अन्ना) खाने योग्य अन्नों को (चित्) भी (नि, रिणाति) निरन्तर प्राप्त होता है, वह सुख को प्राप्त होता है ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। जैसे विद्वान् जन विद्या के प्रचार से मनुष्यों के आत्माओं को प्रकाशित कर सबको पुरुषार्थी बनाते हैं, वैसे न्यायाधीश विद्वान् प्रजाजनों को उद्यमी करते हैं ॥ ४ ॥

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    विषय

    तेजिष्ठ अरणियों के द्वारा

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में वर्णित (अस्मै) = इस अग्नि के लिए [जो कामादि का विनाश करके] यथा (विदे) = यथार्थ ज्ञानी बना है (चित्) = निश्चय से (दृढा) = दृढ़ बलों को (अनुदुः) = सब देव अनुकूलता से प्राप्त कराते हैं । यथार्थ ज्ञान होने पर यह सब वस्तुओं का ठीक ही प्रयोग करता है और परिणामतः सब देव इसके अनुकूल होते हुए उसकी शक्ति का वर्धन करते हैं । २. यह (तेजिष्ठाभिः) = अत्यन्त तेजस्वी (अरणिभिः) = श्रद्धा व ज्ञानरूप अरणियों के द्वारा (अवसे) = रक्षण के लिए (दाष्टि) = अपने को दे डालता है । किसके लिए? (अग्नये दाष्टि अवसे) = यह अपने रक्षण के लिए अग्निस्वरूप प्रभु के लिए अपने को दे डालता है । प्रभु-प्राप्ति के लिए श्रद्धा व ज्ञान ही दो अरणियाँ हैं-इनकी रगड़ से प्रभुरूप अग्नि का प्रकाश होता है । केवल मस्तिष्क व केवल हृदय प्रभु का दर्शन नहीं कर पाता । 'मूर्धानमस्य संसीव्याथर्वा हदयं च यत्' - इसीलिए अथर्वा मस्तिष्क व हृदय को परस्पर सीकर [मिलाकर] चलता है । एवं ज्ञान व श्रद्धा से प्रभु के प्रति अपना अर्पण करके हम वासनाओं से अपना रक्षण करनेवाले होते हैं । ३. प्रभु के द्वारा रक्षित हुआ-हुआ (यः) = जो अग्नि [प्रगतिशील जीव] है, वह (पुरूणि) = बहुत भी शत्रुओं का (गाहते) = आलोडन करता है, उनमें प्रविष्ट होता है और (तक्षत्) = उनको विनष्ट करता है, (इव) = जैसे अग्नि (शोचिषा) = अपनी दीप्ति से (वना) = वनों में प्रविष्ट होकर उनका ध्वंस करता है । ३. (ओजसा) = [हेतौ तृतीया] इस शत्रुविध्वंस करनेवाले ओज के हेतु से यह (चित्) = निश्चयपूर्वक (स्थिरा अन्ना) = स्थिर सारवान् अन्नों के प्रति (निरिणाति) = जाता है । ये स्थिर सात्विक अन्न [रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्विकप्रियाः - गीता] इसे वे सात्त्विक शक्ति प्रदान करते हैं, जिससे यह कामादि शत्रुओं का विनाश करनेवाला बनता है । यह (ओजसा) = इस ओजस्विता के हेतु (स्थिराणि) = इन स्थिर अन्नों को (चित्) = निश्चय से (प्र नि) = [रिणाति] - प्राप्त करता ही है । वस्तुतः इन स्थिर अन्नों से ही यह जीवन में उस सत्त्व को प्राप्त करता है जिसके कारण यह विजयी बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - सात्त्विक अन्नों के सेवन से सत्त्वगुण का वर्धन होकर हम ओजस्वी बनते हैं । श्रद्धा व ज्ञान के उत्कर्ष से प्रभु का प्रकाश प्राप्त करके कामादि शत्रुओं का ध्वंस कर डालते हैं ।

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    विषय

    पक्षान्तर में विद्वान् आचार्य शिष्य के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यथा विदे ) जैसे विद्वान् पुरुष को ( अनु दुः ) लोग आदर पूर्वक नाना अन्न, वस्त्र, धनादि प्रदान करते हैं उसी प्रकार ( अस्मै ) उस नायक को ( दृढ़ा चित्) दृढ़, बलवान् सैन्य, स्थायी, धनैश्वर्य प्रजाएं ( अवसे अनु दुः ) अपनी रक्षा के लिये प्रदान करें। जिस प्रकार ( अग्नये ) अग्नि को ( तेजिष्ठाभिः अरणिभिः ) अति तीव्रता से प्रज्वलित होने वाली अरणियों या काष्ठों सहित ( अवसे ) प्रकाश प्राप्त करने के लिये ( दाष्टि ) हवि आदि प्रदान करता है और जिस प्रकार ( अग्नये ) ज्ञानवान् आचार्य के लिये ( तेजिष्ठाभिः अरणिभिः ) अति तेजस्विनी समिधाओं सहित आकर शिष्य ( दाष्टि ) भेंट पुरस्कार आदि आचार्य का प्रिय भाग ( अवसे ) ज्ञान प्राप्त करने के लिये प्रदान करता है उसी प्रकार प्रजाजन ( अग्नये ) अग्रणी नायक की वृद्धि के लिये ( तेजिष्ठाभिः ) अति तेजस्विनी ( अरणिभिः ) शत्रुओं के नाशकारी सेनाओं सहित ( दृढ़ा अन्ना ) दृढ़ स्थायी, ऐश्वर्य ( अवसे दाष्टि ) अपनी रक्षा के लिये प्रदान करे । ( वना इव ) जिस प्रकार कुल्हाड़ा वनों को ( तक्षत् ) काट छांट डालता है और जिस प्रकार सूर्य या विद्युत् जल वाले मेघों को ( शोचिषा ) तेज से छिन्न भिन्न करता है और जिस प्रकार अग्नि ( शोचिषा ) अपनी ज्वाला से ( वना तक्षत् ) वनों को जला कर लुंज पुंज कर देता है या ( वना इव ) अग्नि जिस प्रकार जलों को अपने ताप से तपा कर भाफ़ रूप में उड़ा देता है उसी प्रकार जो ( शोचिषा ) अपने तेज से ( तक्षत् ) शत्रु सेना दलों को काट गिराता है और ( यः ) जो ( पुरूणि ) बहुत से सैन्यों को ( अव गाहते ) खूब आलोडित कर देता, खूब मथ डालता है और ( चित् ) जिस प्रकार ( अन्ना ) जाठर अग्नि खाये हुए अन्नों को ( ओजसा निरिणाति ) तेज और ताप से सर्वथा पचा डालता, या अग्नि जिस प्रकार अपने पर ( स्थिराणि ) घरे ( अन्ना ओजसा निरिणाति ) अन्न आदि खाद्य पदार्थों को ताप से उबाल देता और खाने योग्य बना देता है उसी प्रकार जो ताप से ( ओजसा ) अपने बल पराक्रम से ( स्थिराणि ) स्थिर शत्रु सैन्यों को भी ( निरिणाति ) खूब आक्रमण करता और पुनः उनको अपना भोग्य बना लेता है, प्रजाजन उसको कर आदि दें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २, ३, ८,९ अष्टिः। ४, ७, ११ भुरिगष्टिः। ५, ६ अत्यष्टिः । १० भुरिगति शक्वरी ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. जसे विद्वान लोक विद्येच्या प्रचाराने माणसांच्या आत्म्यात प्रकाश पाडतात व सर्वांना पुरुषार्थी बनवितात तसे न्यायाधीश विद्वान प्रजेला उद्योगी बनवितात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as the strong man of prosperity and spirit of service offers homage to the man of knowledge and wisdom, so does he offer oblations in yajna to Agni for the sake of protection and advancement. And Agni too, arising from the fiery potential of arani wood, gives protection and advancement to the yajaka. Just as fire overtakes many thick forests and reduces them to ash with its flames, so does the commanding yajaka reduce even strong enemies to naught, and just as the light of the sun ripens the grain with its energy, so does the yajaka ripen and strengthen the prosperity of the earth and humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should Magistrates or Judges behave is told in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men. that person alone enjoys happiness who offers presents to the fire-like learned President of the Assembly, for protection as splendid fuels for Kindling the fire and as Scholars give eternal sciences to men. By resplendent means, he grants us grace for our preservation. Being full of splendour like the sun, dissolving waters from his rays, dispersing his enemies, he dissolves many powerful foes by his splendour. By his might, performs many acts of permanent value. He gets food by his power, as an influential person.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वना इव ) रश्मयः इव वनमिति रश्मिनाम (निघ० १.५ ) = Like the rays of the sun. (शोचिषा) न्यायसेनाप्रकाशेन = By the light of knowledge and army (when necessary). (रिणाति ) प्राप्नोति = Attains रि-गतौ

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As great scholars lead all towards industriousness by illuminating the souls of men by the propagation of knowledge, so learned Judges uplift men by giving them good and inspiring teachings.

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