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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 127/ मन्त्र 6
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - अग्निः छन्दः - अत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः

    स हि शर्धो॒ न मारु॑तं तुवि॒ष्वणि॒रप्न॑स्वतीषू॒र्वरा॑स्वि॒ष्टनि॒रार्त॑नास्वि॒ष्टनि॑:। आद॑द्ध॒व्यान्या॑द॒दिर्य॒ज्ञस्य॑ के॒तुर॒र्हणा॑। अध॑ स्मास्य॒ हर्ष॑तो॒ हृषी॑वतो॒ विश्वे॑ जुषन्त॒ पन्थां॒ नर॑: शु॒भे न पन्था॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । हि । शर्धः॑ । न । मारु॑तम् । तु॒वि॒ऽस्वणिः॑ । अप्न॑स्वतीषु । उ॒र्वरा॑सु इ॒ष्टनिः॑ । आर्त॑नासु । इ॒ष्टनिः॑ । आद॑त् । ह॒व्यानि॑ । आ॒ऽद॒दिः । य॒ज्ञस्य॑ । के॒तुः । अ॒र्हणा॑ । अध॑ । स्म॒ । अ॒स्य॒ । हर्ष॑तः । हृषी॑वतः । विश्वे॑ । जु॒ष॒न्त॒ । पन्था॑म् । नरः॑ । शु॒भे । न । पन्था॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स हि शर्धो न मारुतं तुविष्वणिरप्नस्वतीषूर्वरास्विष्टनिरार्तनास्विष्टनि:। आदद्धव्यान्याददिर्यज्ञस्य केतुरर्हणा। अध स्मास्य हर्षतो हृषीवतो विश्वे जुषन्त पन्थां नर: शुभे न पन्थाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। हि। शर्धः। न। मारुतम्। तुविऽस्वणिः। अप्नस्वतीषु। उर्वरासु इष्टनिः। आर्तनासु। इष्टनिः। आदत्। हव्यानि। आऽददिः। यज्ञस्य। केतुः। अर्हणा। अध। स्म। अस्य। हर्षतः। हृषीवतः। विश्वे। जुषन्त। पन्थाम्। नरः। शुभे। न। पन्थाम् ॥ १.१२७.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 127; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजादयः किं कुर्य्युरित्याह ।

    अन्वयः

    हे विश्वे नरो यूयं हृषीवतो हर्षतोऽस्य यज्ञस्य शुभे न पन्थां जुषन्ताध यं केतुराददिरर्हणा हव्यान्यादन्मारुतं शर्धो नाप्नस्वतीपूर्वरास्वार्त्तनासु तुविष्वणिरिष्टनिरस्ति स स्मेष्टनिर्हि न्यायपन्थां प्राप्तुमर्हति ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (सः) विद्वान् (हि) खलु (शर्धः) बलम् (न) इव (मारुतम्) मरुतामिमम् (तुविस्वनिः) तुविर्वृद्धा स्वनिरुपदेशो यस्य सः (अप्नस्वतीषु) प्रशस्तमप्नोऽपत्यं विद्यते यासां तासु (उर्वरासु) सुन्दरवर्णयुक्तासु (इष्टनिः) इच्छाविशिष्टः। अत्रेषधातोर्बाहुलकादौणादिकोऽनिः प्रत्ययस्तुगागमश्च। (आर्त्तनासु) या आर्त्तयन्ति सत्ययन्ति (इष्टनिः) यष्टुं योग्यः (आदत्) अद्यात् (हव्यानि) अत्तुमर्हाणि (आददिः) आदाता (यज्ञस्य) सङ्गन्तव्यस्य व्यवहारस्य (केतुः) ज्ञानवान् (अर्हणा) सत्कृतानि (अध) अथ (स्म) एव (अस्य) (हर्षतः) प्राप्तहर्षस्य (हृषीवतः) बह्वाऽऽनन्दयुक्तस्य। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति पूर्वपदस्य दीर्घः। (विश्वे) सर्वे (जुषन्त) सेवन्ताम् (पन्थाम्) पन्थानम् (नरः) नायकाः (शुभे) शोभनाय (न) इव (पन्थाम्) धर्म्यं मार्गम्। अत्र वर्णव्यत्ययेन नस्य स्थाने अकारादेशः ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या धर्मेणोपार्जितानां पदार्थानां भोगं कुर्वन्तः प्रजासु धर्मविद्याः प्रचारयन्ति ते धर्ममार्गं प्रचारयितुं शक्नुवन्ति ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजा आदि क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (विश्वे) सब (नरः) व्यवहारों की प्राप्ति करानेवाले मनुष्यो ! तुम (हृषीवतः) जो बहुत आनन्द से भरा (हर्षतः) और जिससे सब प्रकार का आनन्द प्राप्त हुआ (अस्य) इस (यज्ञस्य) सङ्ग करने अर्थात् पाने योग्य व्यवहार की (शुभे) उत्तमता के लिये (न) जैसे हो वैसे (पन्थाम्) धर्मयुक्त मार्ग का (जुषन्त) सेवन करो (अध) इसके अनन्तर जो (केतुः) ज्ञानवान् (आददिः) ग्रहण करनेहारा (अर्हणा) सत्कार किये अर्थात् नम्रता के साथ हुए (हव्यानि) भोजन के योग्य पदार्थों को (आदत्) खावे वा (मारुतम्) पवनों के (शर्धः) बल के (न) समान (अप्नस्वतीषु) जिनके प्रशंसित सन्तान विद्यमान उन (उर्वरासु) सुन्दरी (आर्त्तनासु) सत्य आचरण करनेवाली स्त्रियों के समीप (तुविष्वणिः) जिसकी बहुत उत्तम निरन्तर बोल-चाल (इष्टनिः) और जो सत्कार करने योग्य है (सः, स्म) वही विद्वान् (इष्टनिः) इच्छा करनेवाला (हि) निश्चय के साथ (पन्थाम्) न्याय मार्ग को प्राप्त होने योग्य होता है ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य धर्म से इकट्ठे किये हुए पदार्थों का भोग करते हुए प्रजाजनों में धर्म और विद्या आदि गुणों का प्रचार करते हैं, वे दूसरों से धर्ममार्ग का प्रचार करा सकते हैं ॥ ६ ॥

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    विषय

    ज्ञानीभक्त का अनुकरणीय जीवन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में वर्णित अग्नि का ही वर्णन करते हुए कहते हैं कि (सः हि) = वह निश्चय से (मारुतं शर्धः न) = वायु के वेग व बल के समान होता है । वायु की भाँति स्फूर्ति के साथ निरन्तर क्रियाओं को करनेवाला होता है । (तुविष्वणिः) = यह महान् स्वप्नवाला होता है, खुब ही प्रभु के नामों का उच्चारण करता है । २. इसकी (अप्नस्वतीषु) = उत्तम कर्मोंवाली (उर्वरास) = नये नये विचारों के चिन्तन के लिए उपजाऊ बुद्धियों में वह प्रभु (इष्टनिः) = यष्टव्य होते हैं, अर्थात् यह प्रभु का ज्ञानी भक्त बनता है । इसकी बुद्धि प्रत्येक पदार्थ में प्रभु की महिमा को देखती है और प्रभु के आदेशों के अनुसार चलनेवाली होती है । अकर्मण्य व निबुद्धि पुरुष प्रभु का पूजन नहीं कर पाता । (आर्तनासु इष्टनिः) = पीड़ाओं में तो वे प्रभु यष्टव्य होते ही हैं । एक बुद्धिमान पुरुष प्रभुस्मरण से शक्ति पाकर इन पीड़ाओं को सरलता से सह लेता है । ३. यह [क] (हव्यानि आदत्) = हव्य पदार्थों को खाता है, यज्ञ करके यज्ञशेष का सेवन करता है, [ख] (यज्ञस्य आददिः) = यज्ञ का खूब ही ग्रहण करनेवाला होता है, [ग] (र्अहणा) = योग्यता के कारण (केतुः) = यह प्रज्ञापक बनता है, स्वयं योग्य बनकर औरों को उपदेश देनेवाला होता है । ४. (अध) = अब (स्म) = निश्चय से (अस्य हर्षतः) = इस प्रसन्नवृत्तिवाले के (हृषीवतः) = औरों को हर्षित करनेवाले के (पन्थाम्) = मार्ग का (विश्वे जुषन्त) = सब सेवन करते हैं । इसके मार्ग पर सब चलना चाहते हैं । न उसी प्रकार इसके जीवन-मार्ग का अनुसरण करते हैं जैसे कि (नरः) = उन्नतिशील लोग (शुभे) = शोभा के लिए (पन्थाम्) = मार्ग को अपनाते हैं । मार्ग पर चलने से ही शुभ होता है यह समझकर लोग मार्ग को अपनाते हैं, मार्ग वही है जिस पर यह स्वयं प्रसन्न तथा औरों को प्रसन्न करनेवाला 'अग्नि' चल रहा है । इसका जीवन औरों के लिए मार्गदर्शक हो जाता है । इसका अनुसरण करते हुए वे भी [क] सात्त्विक [हव्य] पदार्थों का सेवन करते हैं, [ख] यज्ञशील होते हैं, [ग] योग्य बनकर औरों को ज्ञान देते हैं, [घ] प्रसन्न रहते हैं तथा औरों की प्रसन्नता

    भावार्थ

    का कारण बनते हैं ।

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    विषय

    पक्षान्तर में विद्वान् आचार्य शिष्य के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    पुनः वह स्वामी, प्रभु, नायक और अग्नि और गृहस्थ में पति कैसा होना उचित है ? ( मारुतं शर्धः न ) वायु के प्रबल वेग के समान अग्नि जिस प्रकार ( तुवि स्वनिः ) बड़ा भारी शब्द करने वाला होता है और ( मारुतं शर्धः न ) और जिस प्रकार वायु वेग से जाने और शत्रुओं का मारने वाले वीर भटों के सैन्य के समान अकेला ही (अग्निः) आग्नेयास्त्र का अग्नि जिस प्रकार (तुवि-स्वनिः) बहुत घोर गर्जनकारी होता है उसी प्रकार सेना नायक भी ( तुविस्वनिः ) बहुत भारी शब्द वाला, सिंहवत् नादशील, एवं गम्भीर गर्जनशील हो । और अग्नि जिस प्रकार ( अप्नस्वतीषु उर्वरासु ) कर्म यज्ञादि वाली उत्तम वेदियों में ( इष्टनिः ) यज्ञ करने योग्य होता है और जिस प्रकार अग्नि ( अप्नस्वतीषु ) रूपवती, उत्तम, हरी भरी ( उर्वरासु ) उपजाऊ भूमियों में ( इष्टनिः ) सबकी इष्ट अभिलाषा पूर्ण करने वाला होता है उसी प्रकार सेनानायक या राजा भी ( अप्नस्वतीषु ) नानारूप, उत्तम वर्ण युक्त ( उर्वरासु ) उर्वरा, नाना धन धान्य पैदा करने वाली समृद्ध भूमियों और हरी भरी, प्रजाओं में (इष्टनिः) सबकी अभिलाषा पूरी करने योग्य, सबका आदरणीय और ( आर्त्तनासु ) शत्रुओं को पीड़ाकारी सेनाओं में ( तुविस्वनिः ) प्रबल गर्जना या आज्ञाकारी होता हुआ ( इष्टनिः ) सर्वादरयोग्य, एवं सत्य व्यवहार युक्त प्रजाओं में पूज्य, आर्त्त, दुखित प्रजाओं को उनका मन चाहा सुखैश्वर्य प्राप्त करा देने वाला अर्थि-कल्पद्रुम हो । और ( यज्ञस्य ) अग्नि जिस प्रकार यज्ञ का ( केतुः ) ज्ञापक, मुख्य आश्रय होता है और ( आदिः अर्हणा हव्यानि आदद् ) सब पदार्थों की अपने में लेने में समर्थ होने से यज्ञोपासना में भक्ति पूर्वक दिये सब चरु पदार्थों को ग्रहण करता है, उसी प्रकार वह नायक ( यज्ञस्य ) सुव्यवस्थित प्रजापालनकारी राष्ट्र वा सैन्य दल के संगठन तथा प्रजापति पद का ( केतुः ) मुख्य ध्वजा के समान सबसे उच्च और आदरणीय होकर ( अर्हणा ) पूजा, मान आदर करने योग्य, समस्त ( हव्यानि ) उत्तम अन्नों और ग्राह्य ऐश्वर्यों को ( आदद् ) सब प्रकार से स्वीकार करता है । ( अध स्म ) और जिस प्रकार ( हृषीवतः ) हर्षित, सुप्रसन्न ज्वाला वाले ( हर्षतः ) अन्यों के प्रमोदकारी अग्नि के मार्ग का सब ( नरः ) नायक जन सेवन करते हैं अर्थात् वे अग्नि के समान तेजस्वी होते हैं उसी प्रकार ( हृषीवतः ) अति हर्ष करने वाले स्वयं प्रसन्न और अन्यों को हर्षित करने वाले ( अस्य ) इस नायक के (पन्थां) मार्ग को ( शुभे पन्थां न ) शुभ उद्देश्य से सन्मार्ग के समान ( विश्वे जुषन्तु ) सब कोई प्रेम से ग्रहण करें । ( नरः ) लोग ( शुभे ) अपने कल्याण के लिये ( पन्थाम् ) मार्ग के समान ( जुषन्तु ) उससे प्रेम करें और उसकी सेवा करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २, ३, ८,९ अष्टिः। ४, ७, ११ भुरिगष्टिः। ५, ६ अत्यष्टिः । १० भुरिगति शक्वरी ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. जी माणसे धर्माने एकत्र केलेल्या पदार्थांचा भोग करीत प्रजेत धर्म व विद्या इत्यादी गुणांचा प्रसार करतात. ती दुसऱ्याकडून धर्ममार्गाचा प्रचार करवू शकतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That Agni, daring and roaring as the wind, is admirably fearsome in raging battles, as he is worthy of honour and homage in yajnas in lands fertile as well as deserts and among families blest with lovely children. He receives offerings with love, readily consumes and uses the same for creative purposes. Indeed he is the triumphal banner of yajnas, most worthy of honour and worship. And of course all the people, joyous and emanating joy all round, follow in his footsteps, follow him on the path shown by him for the pursuit of goodness, beauty and joy of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should kings and others officers of the State do is told in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should follow for the attainment of joy, the path of the Yajna (noble act) that is joyful and giver of delight. That man alone can tread upon the path of justice and prompt others to do so who is learned accepter of good things and virtues, eater of nourishing and good edibles offered with honor. He is deserving of veneration and mighty like the winds. He gives roble teachings to the women. who are of fair form, and whose conduct is truthful and who have good progeny. He is respectable as he is a good teacher. All men should follow him as they follow a path that leads to happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (तुविस्वनि:) तुविर्वृद्धा स्वनि:-उपदेशो यस्य सः = Giver of good.semons or teachings. (अप्नस्वतीषु ) प्रशस्तम् अप्न: अपत्यं विद्यते यासां तासु । = Among women who have good progeny. (उर्वरासु) सुन्दरवर्णयुक्तासु = Endowed with fair form. (आर्नासु) या आर्तयन्ति सत्ययन्ति = In those who are of truthful conduct.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is only those persons who make the best use of the wealth and articles earned righteously and propagate among the people Dharma (righteousness) and Vidya (knowledge) that can prompt others to follow the path of Dharma.

    Translator's Notes

    (अप्न इत्यपत्यनाम (निघ० २.२ ) स्वन-शब्दे भ्वा० प०

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