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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 127/ मन्त्र 8
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - अग्निः छन्दः - अष्टिः स्वरः - मध्यमः

    विश्वा॑सां त्वा वि॒शां पतिं॑ हवामहे॒ सर्वा॑सां समा॒नं दम्प॑तिं भु॒जे स॒त्यगि॑र्वाहसं भु॒जे। अति॑थिं॒ मानु॑षाणां पि॒तुर्न यस्या॑स॒या। अ॒मी च॒ विश्वे॑ अ॒मृता॑स॒ आ वयो॑ ह॒व्या दे॒वेष्वा वय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वा॑साम् । त्वा॒ । वि॒शाम् । पति॑म् । ह॒वा॒म॒हे॒ । सर्वा॑साम् । स॒मा॒नम् । दम्ऽप॑तिम् । भु॒जे । स॒त्यऽगि॑र्वाहसम् । भु॒जे । अति॑थिम् । मानु॑षाणाम् । पि॒तुः । न । यस्य॑ । आ॒स॒या । अ॒मी इति॑ । च॒ । विश्वे॑ । अ॒मृता॑सः । आ । वयः॑ । ह॒व्या । दे॒वेषु॑ । आ । वयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वासां त्वा विशां पतिं हवामहे सर्वासां समानं दम्पतिं भुजे सत्यगिर्वाहसं भुजे। अतिथिं मानुषाणां पितुर्न यस्यासया। अमी च विश्वे अमृतास आ वयो हव्या देवेष्वा वय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वासाम्। त्वा। विशाम्। पतिम्। हवामहे। सर्वासाम्। समानम्। दम्ऽपतिम्। भुजे। सत्यऽगिर्वाहसम्। भुजे। अतिथिम्। मानुषाणाम्। पितुः। न। यस्य। आसया। अमी इति। च। विश्वे। अमृतासः। आ। वयः। हव्या। देवेषु। आ। वयः ॥ १.१२७.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 127; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कथं राजप्रजाजनोन्नतिः स्यादित्याह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्य यथा वयं भुजे विश्वासां विशां सर्वासां प्रजानां पतिं त्वा हवामहे। यथा चामी देवेष्वा वयो हव्या गृहीतवन्त आवयो विश्वेऽमृतासस्सन्तो वयं यस्यासया पितुर्न भुजे मानुषाणां समानमतिथिं सत्यगिर्वाहसं त्वां पतिं हवामहे तथा दम्पतिं भजामः ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (विश्वासाम्) सर्वासाम् (त्वा) त्वाम् (विशाम्) प्रजानाम् (पतिम्) स्वामिनम् (हवामहे) स्वीकुर्महे (सर्वासाम्) समग्राणां क्रियाणाम् (समानम्) पक्षपातरहितम् (दम्पतिम्) स्त्रीपुरुषाख्यं द्वन्द्वम् (भुजे) शरीरे विद्यानन्दभोगाय (सत्यगिर्वाहसम्) सत्याया गिरः प्रापकम् (भुजे) विद्यानन्दभोगाय (अतिथिम्) अतिथिमिव पूजनीयम् (मानुषाणाम्) नराणाम् (पितुः) अन्नम् (न) (यस्य) (आसया) उपवेशनेन (अमी) (च) (विश्वे) सर्वे (अमृतासः) मृत्युरहिताः (आ) अभितः (वयः) विद्याः कामयमानाः (हव्या) होतुमादातुमर्हाणि ज्ञानानि (देवेषु) विद्वत्सु (आ) समन्तात् (वयः) प्राप्तविद्याः ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यावत्पक्षपातरहिता आप्ता विद्वांसो राज्याऽधिकारिणो न भवन्ति तावद्राजप्रजयोरुन्नतिरपि न भवति ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब कैसे राजा और प्रजाजनों की उन्नति हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्य ! जैसे हम लोग (भुजे) शरीर में विद्या का आनन्द भोगने के लिये (विश्वासाम्) सब (विशाम्) प्रजाजनों के वा (सर्वासाम्) समस्त क्रियाओं के (पतिम्) पालनेहारे अधिपति (त्वा) तुझको (हवामहे) स्वीकार करते हैं (च) और जैसे (अमी) वे (देवेषु) (आ) अच्छे प्रकार (वयः) विद्यादि गुणों को चाहनेवाले (हव्या) ग्रहण करने योग्य ज्ञानों का ग्रहण किये और (आ, वयः) अच्छे प्रकार विद्या आदि गुणों को पाये हुए (विश्वे) सब (अमृतासः) अमर अर्थात् विद्या प्रकाश से मृत्यु दुःख से रहित हुए हम लोग (यस्य) जिसकी (आसया) बैठक के (पितुः) अन्न के (न) समान (भुजे) विद्यानन्द भोगने के लिये (मानुषाणाम्) मनुष्यों के (समानम्) पक्षपातरहित (अतिथिम्) अतिथि के तुल्य सत्कार करने योग्य (सत्यगिर्वाहसम्) सत्यवाणी की प्राप्ति करानेवाले तुझ पालनेहारे को स्वीकार करते वैसे (दम्पतिम्) स्त्री-पुरुष का सेवन करते हैं ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जब तक पक्षपातरहित समग्र विद्या को जाने हुए धर्मात्मा विद्वान् राज्य के अधिकारी नहीं होते हैं, तब तक राजा और प्रजाजनों की उन्नति भी नहीं होती है ॥ ८ ॥

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    विषय

    उपासना

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में कहा था कि 'अभिद्यु' आदि प्रातः-सायं प्रभु का उपासन करते हैं । उपासना का स्वरूप यह होता है कि [क] (विश्वासाम्) = सब (विशाम्) = प्रजाओं के (पतिम्) = स्वामी (त्वा) = तुझको (हवामहे) = हम पुकारते हैं । प्रभु को सब प्रजाओं के रक्षक के रूप में स्मरण करते हुए ये स्वयं भी सबकी रक्षा में प्रवृत्त होते हैं, [ख] (सर्वासां समानम्) = सब प्रजाओं के प्रति समानरूप से वर्तनेवाले प्रभु को पुकारते हैं । प्रभु का किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं, वे समानरूप से सबके पिता व माता हैं । यह भक्त भी सबके प्रति समभाव को धारण करने का प्रयत्न करता है, [ग] (दम्पतिम्) = [दम - गृह] घर के रक्षक प्रभु को पुकारते हैं । अपने घर का रक्षण करता हुआ यह भक्त रक्षण का गर्व नहीं करता - प्रभु को ही यह रक्षक मानता है, अपने को उसका निमित्तमात्र जानता है, [घ] (भुजे) = सब प्रजाओं के पालन के लिए (सत्यगिर्वाहसम्) = सत्यवाणी को धारण करनेवाले प्रभु को पुकारते हैं । इस सत्यवाणी के द्वारा ही (भुजे) = वे हमारा पालन करते हैं और हमें भोजन प्रास करने की क्षमता प्राप्त कराते हैं [भुज पालनाभ्यवहारयोः] । इन शब्दों में उपासना करता हुआ उपासक भी सत्यवाणी का ग्रहण करता है और उसका प्रचार करता है । भक्त उस प्रभु की उपासना करते हैं जो (मानुषाणाम्) = मानवहित में तत्पर व्यक्तियों को (अतिथिम्) = निरन्तर प्राप्त होनेवाले हैं । (पितुः न) = पिता के समान (यस्य) = जिसकी (आसया) = उपासना से (अमी) = वे (विश्वे) = सब उत्तम पुरुष (अमृतासः) = नीरोग बनते हैं (च) = और (आवयः) = जीवनपर्यन्त (हव्या) = हव्य पदार्थों को प्राप्त करते हैं, (देवेषु) = देवों में (आवयः) = जीवनपर्यन्त ये उत्कृष्ट पदार्थ उपस्थित होते हैं । प्रभु का सच्चा उपासक वही है जो सब प्रजाओं का रक्षक होता है, सबके प्रति समभाव से वर्तता है, घर का पूर्ण रक्षण करता है, सबके पालन के लिए सत्यवाणी का प्रकाश करता है । जीवन भर हव्य पदार्थों का ही सेवन करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का उपासक प्रभु को सर्वत्र समरूप से रक्षण करते हुए देखता है और स्वयं वैसा ही बनने का प्रयत्न करता है । इस वृत्ति की उत्तमता के लिए ही वह हव्य पदार्थों का सेवन करता है ।

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    विषय

    विश्पति का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! हे परमेश्वर ! हे आचार्य ! हे स्वामिन् ! गृहपते ! ( विश्वासां ) समस्त ( विशां ) राज्य या शासन के भीतर प्रविष्ट प्रजाओं के ( पतिं ) पालक ( त्वां ) तेरी ( हवामहे ) हम उपासना करते हैं, तुझे अपना पालक स्वीकार करते हैं, तेरी शरण आते हैं । ( भुजे दम्पतिं ) जिस प्रकार सब आश्रम और सब सन्तानें पुत्र पुत्रियें अन्नादि भोजन को प्राप्त करने के लिये स्त्री-पुरुष रूप गृहस्थ, या मां बाप, या गृहपति के पास आते हैं उसी प्रकार हम समस्त प्रजाजन ( भुजे ) ऐश्वर्यों के भोगने और अपनी रक्षा के लिये ( सर्वासां समान ) सब प्रजाओं के लिये समान, निष्पक्षपात रूप से रहने वाले, ( दम्पतिम् ) समस्त प्रजाओं को दमन करने वाले, दण्ड व्यवस्था के पालक पुरुष को ( हवामहे ) प्राप्त होते हैं । और हम ( भुजे ) ऐश्वर्यों को भोग और न्यायपूर्वक रक्षा के लिये प्रजाजन ( सत्यगिर्वाहसम् ) सत्य वाणी को धारण करने वाले ( मानुषाणाम् अतिथिम् ) समस्त मनुष्यों के बीच अतिथि के समान पूजनीय, तुझ को हम प्राप्त होते हैं । तेरी स्तुति करते हैं । ( अमृतासः ) सन्ततिजन ( पितुः आसया न ) जिस प्रकार पालक पिता के समीप प्रेम और उत्तम (हव्या) प्राप्त करने योग्य अन्नादि पदार्थों को प्राप्त करने के लिये उपस्थित होते हैं उसी प्रकार ( यस्य पितुः आसया ) जिस सर्व पालक के समीप, उसकी गोद और उपासना में स्थित (अमी च विश्वे अमृताः) ये सब अमर, मुक्त आत्मा, (वयः) भोक्ता, विद्वान्, जन (हव्या आ) उत्तम ज्ञानों और मोक्ष सुखों को प्राप्त करने के लिये उपासना करते हैं । और ( देवेषु ) विद्वान् दिव्य पुरुषों में ( वयः ) सभी ज्ञानी पुरुष ( आ ) उसी की उपासना करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २, ३, ८,९ अष्टिः। ४, ७, ११ भुरिगष्टिः। ५, ६ अत्यष्टिः । १० भुरिगति शक्वरी ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जोपर्यंत भेदभावरहित संपूर्ण विद्या जाणलेले धर्मात्मा विद्वान राज्याचे अधिकारी नसतात. तोपर्यंत राजा व प्रजेची उन्नतीही होत नाही. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We invoke, invite and do homage to you, Agni, lord protector of all the people of the world, for the light of life. We invoke and do homage to the lord protector of the home and family equally for all the people, for the joy of family life. We do homage to the lord of the voice of omniscience for the joy of knowledge. We do homage to the lord as the guest of honour and fire of yajna for all the people, in whose presence, as in the presence of the father, all these seekers of freedom and immortality hope for the food of life, and in whose honour they offer food and oblations to the brilliant and generous divinities of nature and humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How can there be the Progress or advancement of the interest of the rulers and their subjects is taught in the eighth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O King, am we invite you who are the protector of all people, of all good actions, the same a like to all impartial, for the enjoyment of the bliss of knowledge like good food in our bodies. We who have received knowledge living among the enlightened truthful persons and thus realizing the immortality of souls, invoke you who are venerable like a guest and desiring and acquiring wisdom and conveyor of true words and we also show respect to all good couples.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (भुजे) विद्यानन्द भोगाय = For the enjoyment of the bliss of knowledge. (वयः) १ विद्यां कामयमानाः = Desiring knowledge. (वय:) २ प्राप्त विद्या: = Those who have received knowledge. (वी गतिव्याप्तिकान्त्यसनखादनेषु) अत्र प्राप्तिकान्त्यर्थग्रहणम्

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There can not be any progress or advancement of the rulers and their subject, unless and until there are absolutely truthful impartial persons incharge of the administration of a State.

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