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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 127/ मन्त्र 7
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः

    द्वि॒ता यदीं॑ की॒स्तासो॑ अ॒भिद्य॑वो नम॒स्यन्त॑ उप॒वोच॑न्त॒ भृग॑वो म॒थ्नन्तो॑ दा॒शा भृग॑वः। अ॒ग्निरी॑शे॒ वसू॑नां॒ शुचि॒र्यो ध॒र्णिरे॑षाम्। प्रि॒याँ अ॑पि॒धीँर्व॑निषीष्ट॒ मेधि॑र॒ आ व॑निषीष्ट॒ मेधि॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वि॒ता । यत् । ई॒म् । की॒स्तासः॑ । अ॒भिऽद्य॑वः । न॒म॒स्यन्तः॑ । उ॒प॒ऽवोच॑न्त । भृग॑वः । म॒श्नन्तः॑ । दा॒शा । भृग॑वः । अ॒ग्निः । ई॒शे॒ । वसू॑नाम् । शुचिः॑ । यः । ध॒र्णिः । ए॒षा॒म् । प्रि॒यान् । अ॒पि॒ऽधीन् । व॒नि॒षी॒ष्ट॒ । मेधि॑रः । आ । व॒नि॒षी॒श्ट॒ । मेधि॑रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्विता यदीं कीस्तासो अभिद्यवो नमस्यन्त उपवोचन्त भृगवो मथ्नन्तो दाशा भृगवः। अग्निरीशे वसूनां शुचिर्यो धर्णिरेषाम्। प्रियाँ अपिधीँर्वनिषीष्ट मेधिर आ वनिषीष्ट मेधिरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्विता। यत्। ईम्। कीस्तासः। अभिऽद्यवः। नमस्यन्तः। उपऽवोचन्त। भृगवः। मथ्नन्तः। दाशा। भृगवः। अग्निः। ईशे। वसूनाम्। शुचिः। यः। धर्णिः। एषाम्। प्रियान्। अपिऽधीन्। वनिषीष्ट। मेधिरः। आ। वनिषीष्ट। मेधिरः ॥ १.१२७.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 127; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाऽध्यापकाऽध्येतारः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यत् कीस्तासोऽभिद्यवो नमस्यन्तो भृगवो ज्ञानं मथ्नन्तो भृगवश्च दाशा विद्यादानाय विद्यार्थिने द्वितेमुपवोचन्त। यथैषां वसूनां मध्ये यो धर्णिः शुचिरग्निरस्ति यथा मेधिरः प्रियानपिधीन् वनिषीष्ट यथा मेधिरो दातॄनावनिषीष्ट विद्यामीशे तथैव तं तान् सेवध्वम् ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (द्विता) द्वयोर्भावः (यत्) ये (ईम्) अभिगताम् (कीस्तासः) मेधाविनः। कीस्तास इति मेधाविना०। निघं० ३। १५। (अभिद्यवः) अभिगता द्यवो दीप्तयो येषां ते (नमस्यन्तः) धर्मं परिचरन्तः (उपवोचन्त) उपगतमुपदिशन्तु (भृगवः) अविद्याऽधर्मनाशनशीलाः (मथ्नन्तः) मन्थनं कुर्वन्तः (दाशा) दानाय। अत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (भृगवः) दुःखभर्जकाः (अग्निः) विद्युत् (ईशे) ईष्टे। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेषु। अष्टा० ७। १। ४१। इति तलोपः। (वसूनाम्) पृथिव्यादीनां मध्ये (शुचिः) पवित्रः शुद्धिकरः (यः) (धर्णिः) यो धरति सः (एषाम्) प्रत्यक्षाणाम् (प्रियान्) प्रसन्नान् (अपिधीन्) सद्गुणधारकान् दुःखाच्छादकान् (वनिषीष्ट) याचेत (मेधिरः) मेधावी (आ) समन्तात् (वनिषीष्ट) (मेधिरः) सङ्गमकः ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    ये विद्यार्थिनो विद्वद्भ्यो नित्यं विद्या याचेरन् विद्वांसश्च तेभ्यो नित्यमेव विद्यां दद्युर्नैतेन दानेन ग्रहणेन वा तुल्यं किंचिदप्युत्तमं कर्म विद्यते ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पढ़ाने-पढ़ने वाले कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यत्) जो (कीस्तासः) उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् (अभिद्यवः) जिनके आगे विद्या आदि गुणों के प्रकाश (नमस्यन्तः) जो धर्म का सेवन (भृगवः) तथा अविद्या और अधर्म के नाश करते ज्ञान को (मथ्नन्तः) मथते हुए (भृगवः) और दुःख मिटाते हैं, वे (दाशा) विद्या दान के लिये विद्यार्थियों को (द्विता) जैसे दो का होना हो वैसे अर्थात् एक पर एक (ईम्) सम्मुख प्राप्त हुई विद्या (उपवोचन्त) और गुण का उपदेश करे वा जैसे (एषाम्) इन (वसूनाम्) पृथिवी आदि लोकों के बीच (यः) जो (धर्णिः) शिल्पविद्या विषयक कामों का धारण करनेहारा (शुचिः) पवित्र और दूसरों को युद्ध करनेहारा (अग्निः) अग्नि है वा जैसे (मेधिरः) उत्तम बुद्धिवाला (प्रियान्) प्रसन्नचित्त और (अपिधीन्) श्रेष्ठ गुणों का धारण करने और दुःखों को ढाँपनेवाले विद्वानों को (वनिषीष्ट) याचे अर्थात् उनसे किसी पदार्थ को माँगे वा (मेधिरः) सङ्ग करनेवाला पुरुष देनेवालों को (आ, वनिषीष्ट) अच्छे प्रकार याचे वा विद्या की (ईशे) ईश्वरता प्रकट करे अर्थात् विद्या के अधिकार को प्रकाशित करे, वैसे ही तुम उक्त विद्वान् और अग्नि आदि पदार्थों का सेवन करो ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    जो विद्यार्थी विद्वानों से नित्य विद्या माँगे, उनके लिये विद्वान् भी नित्य ही विद्या को अच्छे प्रकार देवें, क्योंकि इस देने-लेने के तुल्य कुछ भी उत्तम काम नहीं है ॥ ७ ॥

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    विषय

    नम्र व पवित्र

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो (ईम्) = निश्चय से (द्विता) = दो प्रकार से-प्रातः-सायं (कीस्तासः) = प्रभु का कीर्तन करनेवाले होते हैं, वे [क] (अभिद्यवः) = दोनों ओर दीसिवाले होते हैं । प्रकृति और आत्मा दोनों के दृष्टिकोण से ये ज्ञान की दीप्ति को प्राप्त करते हैं । प्रकृतिविद्या और आत्मविद्या दोनों में निपुण होते हुए 'ढे विद्ये वेदितव्ये परा चैवापरा च' इस (उपनिषद्) = वाक्य को अपने जीवन में चरितार्थ करते हैं, [ख] (नमस्यन्तः) = सदा नमस्वाले होते हैं । ये प्रभु के प्रति तो नमन करते ही हैं, सबके प्रति भी नम्रता के भाववाले होते हैं, [ग] (भृगवः) = [भ्रस्ज पाके] ये अपने जीवन को परिपक्व करनेवाले हैं, [घ] मनन्तः कामादि शत्रुओं को नष्ट कर देते हैं, [ङ] (दाशाः) = अपने को प्रभु के प्रति दे डालते हैं । ऐसे (भृगवः) = तपस्वी लोग (उपवोचन्त) = प्रभु की उपासना में स्थिर होकर प्रभु के गुणों का प्रवचन करते हैं । २. (अग्निः) = 'अभियु' आदि शब्दों से वर्णित व्यक्ति अग्रणी बनता है, अपने को अग्रस्थान में प्राप्त करानेवाला होता है । (वसूनाम् ईशे) = निवास के लिए आवश्यक सब तत्त्वों का यह ईश बनता है, इसी से इसका निवास बड़ा उत्तम होता है । (शुचिः) = धन के दृष्टिकोण से यह पवित्र होता है - 'योऽर्थे शुचिहि स शुचिर्न मृद्वारि शुचिः' [मनु०] यह अग्नि वह है (यः) = जो कि (एषाम्) = इन लोकों का (धर्णिः) = धारण करनेवाला बनता है । यह धनों का विनियोग अपनी मौज के लिए ही नहीं करता रहता, अपितु इनका विनियोग लोकहित में करता है । ३. इसी का परिणाम है कि प्रभु इसे खूब ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं । यह (मेधिरः) = मेधावी पुरुष उन (प्रियान्) = प्रिय वस्तुओं को (अपिधीन्) = तृप्तिपर्यन्त प्रदत्त की गई, अर्थात् यथेष्ट प्राप्त कराई हुइयों का वनिषीष्ट सेवन करता है । यह (मेधिरः) = मेधासम्पन्न व्यक्ति (आवनिषीष्ट) = सब ओर से इनको प्राप्त करनेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - दोनों कालों में प्रभु का उपासना करनेवाला दीस जीवन प्राप्त करता है । यह पवित्र व लोकधारक होता है । प्रभु इसे खूब ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं । यह मेधावी होता हुआ उन ऐश्वर्यों को लोकहित में विनियुक्त करता है । यह स्वस्थ जीवनवाला बनकर नम्रता से भूषित जीवनवाला होता है ।

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    विषय

    पक्षान्तर में विद्वान् आचार्य शिष्य के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( भृगवः ) पाप संकल्पों को भून डालने वाले, तेजस्वी पुरुष (दाशा) यज्ञ में चरु आदि देने के लिये जिस प्रकार (ईं मन्थन्तः) इस प्रत्यक्ष भौतिकाग्नि को मथते हुए ( कीस्तासः ) कीर्त्तन, भजन स्तुति करते हुए ( नमस्यन्तः ) नमस्कार करते हुए ( उप वोचन्त ) उपासना करते हैं उसी प्रकार (भृगवः) अति तेजस्वी (कीस्तासः) विद्यादि के उपदेष्टा, ( अभिद्यवः ) सूर्य के समान तेजस्वी, विद्वान् पुरुष ( ईं ) इस महान् राष्ट्र या राष्ट्रपति को ( मन्थन्तः) वार वार मथते अर्थात् उसके उत्तम से उत्तम गुणों की परीक्षा लेते हुए ( द्विता ) दोनों राजा और प्रजा के हित के लिये ( दाशा ) समस्त राज्याधिकार दान करने के लिये ( नमस्यन्तः ) उसको आदर सत्कार करते हुए ( यत् ) अब ( उप वोचन्त ) प्रार्थना करते हैं तब ( यः ) जो (शुचिः ) शुद्ध, निष्कपट और ( एषां धर्णिः ) इन समस्त प्रजाओं को धारण करने में समर्थ हो वही ( अग्निः ) अग्रणी नायक, तेजस्वी होकर समस्त ( वसूनां ) बसे राष्ट्रों और प्रजाओं और ऐश्वर्यों का (ईशे) स्वामी हो । वही ( प्रियान् ) सब को प्रिय लगने वाले, मनोहर, उत्तम ( अपिधीन् ) गोपनीय ख़ज़ानों और राष्ट्र की रक्षा करने वालों को ( मेधिरः सन् ) शत्रुओं का नाशकारी होकर ( वनिपीष्ट ) स्वयं प्राप्त करे और ( मेधिरः ) स्वयं प्रज्ञावान् बुद्धिमान् हो कर ही ( आव निषीष्ट ) सब को विभक्त करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २, ३, ८,९ अष्टिः। ४, ७, ११ भुरिगष्टिः। ५, ६ अत्यष्टिः । १० भुरिगति शक्वरी ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो विद्यार्थी विद्वानांकडून नित्य विद्या शिकू इच्छितो त्याला विद्वानांनीही चांगल्या प्रकारे विद्या द्यावी. कारण या देण्याघेण्याखेरीज कोणतेही उत्तम कार्य नाही. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    When the Bhrgus, dedicated seekers and worshippers, generous members of the community, brilliant scholars, faithfully take on Agni for study and meditation, two ways in theory and practice, vision and pursuit, speak of it in detail analysing and realising it, then Agni, pure and immaculate power, wise and intelligent, that rules the wealth of the world and is the very foundation of these, blesses the darling dedicated servants with beauty, wealth and success.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should the teachers and the taught behave is taught in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, exceedingly wise and glorious persons, bowing before God and serving Dharma, who are in the habit of dispelling darkness of ignorance and un-righteousness, alleviators of misery and of reflective nature, Impart knowledge to the pupils in two forms for their benefit, by teaching and setting practical example. As there is this electricity among the worlds pure and purifier, upholder of various objects, as a wiseman asks the bearers of virtues and destroyers of miseries to help in the advancement of noble undertaking and being himself as unifier and master of knowledge, urges upon liberal persons to donate for philanthropic activities, so you should utilize the electric power and serve wise and highly learned people.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (कीस्तास:) मेधाविनः कीस्तास इति मेधाविनाम ( निघ० ३.१५) = Exdeedingly wise persons or geniuses. (१) (भृगव:) अविद्याअधर्मनाशनशीलाः = Wise hermits who are in the habit of dissolving ignorance and un-righteousness. (२) भृगव:) दुःखभर्जका: = Destroyers of misery.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the students to request great scholars to impart them knowledge and it is the duty of great scholars always to do so gladly. There is nothing nobler than this act of giving and diffusing true knowledge.

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