ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 127/ मन्त्र 5
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - अग्निः
छन्दः - अत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
तम॑स्य पृ॒क्षमुप॑रासु धीमहि॒ नक्तं॒ यः सु॒दर्श॑तरो॒ दिवा॑तरा॒दप्रा॑युषे॒ दिवा॑तरात्। आद॒स्यायु॒र्ग्रभ॑णवद्वी॒ळु शर्म॒ न सू॒नवे॑। भ॒क्तमभ॑क्त॒मवो॒ व्यन्तो॑ अ॒जरा॑ अ॒ग्नयो॒ व्यन्तो॑ अ॒जरा॑: ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । अ॒स्य॒ । पृ॒क्षम् । उप॑रासु । धी॒म॒हि॒ । नक्त॑म् । यः । सु॒दर्श॑ऽतरः । दिवा॑ऽतरात् । अप्र॑ऽआयुषे । दिवा॑तरात् । आत् । अ॒स्य॒ । आयुः॑ । ग्रभ॑णऽवत् । वी॒ळु॒ । शर्म॑ । न । सू॒नवे॑ । भ॒क्तम् । अभ॑क्तम् । अवः॑ । व्यन्तः॑ । अ॒जराः॑ । अ॒ग्नयः॑ । व्यन्तः॑ । अ॒जराः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमस्य पृक्षमुपरासु धीमहि नक्तं यः सुदर्शतरो दिवातरादप्रायुषे दिवातरात्। आदस्यायुर्ग्रभणवद्वीळु शर्म न सूनवे। भक्तमभक्तमवो व्यन्तो अजरा अग्नयो व्यन्तो अजरा: ॥
स्वर रहित पद पाठतम्। अस्य। पृक्षम्। उपरासु। धीमहि। नक्तम्। यः। सुदर्शऽतरः। दिवाऽतरात्। अप्रऽआयुषे। दिवातरात्। आत्। अस्य। आयुः। ग्रभणऽवत्। वीळु। शर्म। न। सूनवे। भक्तम्। अभक्तम्। अवः। व्यन्तः। अजराः। अग्नयः। व्यन्तः। अजराः ॥ १.१२७.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 127; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्न्यायाधीशैः किमनुष्ठेयमित्याह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यः सुदर्शतरोऽस्य दिवातरादप्रायुषे नक्तं सर्वान् दर्शयतीव तं पृक्षं दिवातरादुपरासु वयं धीमहि। आदस्य ग्रभणवद्वीळु भक्तमभक्तमव आयुः सूनवे न शर्म व्यन्तोऽजरा अग्नय इव व्यन्तोऽजरा वयं धीमहि ॥ ५ ॥
पदार्थः
(तम्) (अस्य) संसारस्य (पृक्षम्) सम्पृक्तारम् (उपरासु) दिक्षु। उपरा इति दिङ्ना०। निघं० १। ६। (धीमहि) दधीमहि (नक्तम्) रात्रौ (यः) (सुदर्शतरः) सुष्ठु द्रष्टुं योग्यः सुदर्शोऽतिशयेन सुदर्शः पूर्णकलश्चन्द्रइव (दिवातरात्) अतिशयेन दिवा दिवातरस्तस्मात् सूर्यात् (अप्रायुषे) यः प्रैति स प्रायुट् न प्रायुडप्रायुट् तस्मै (दिवातरात्) अतिशयेन दिवातरः सूर्यइव तस्मात् (आत्) (अस्य) जनस्य (आयुः) जीवनम् (ग्रभणवत्) प्रशस्तं ग्रभणं ग्रहणं विद्यते यस्मिंस्तत् (वीळु) दृढम् (शर्म) गृहम् (न) इव (सूनवे) पुत्राय (भक्तम्) सेवितम् (अभक्तम्) असेवितम् (अवः) रक्षणादियुक्तम् (व्यन्तः) व्याप्नुवन्तः (अजराः) वयोहानिरहिताः (अग्नयः) विद्युत इव (व्यन्तः) कामयमानाः (अजराः) वयोहानिविरहाः ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा चन्द्रो नक्षत्राण्योषधीश्च पोषयति तथा सज्जनैः प्रजाः पोषणीयाः। यथा सन्तानान् पितरौ प्रीणीतस्तथा सर्वान् प्राणिनो वयं प्रीणीयाम ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर न्यायाधीशों को क्या अनुष्ठान वा आचरण करने चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (सुदर्शतरः) अतीव सुन्दर देखने योग्य पूरी कलाओं से युक्त चन्द्रमा के समान राजा (अस्य) इस संसार का (दिवातरात्) अत्यन्त प्रकाशवान् सूर्य से (अप्रायुषे) जो व्यवहार नहीं प्राप्त होता उसके लिये (नक्तम्) रात्रि में सब पदार्थों को दिखलाता सा है (तम्) उस (पृक्षम्) उत्तम कामों का सम्बन्ध करनेवाले को (दिवातरात्) अतीव प्रकाशवान् सूर्य के तुल्य उससे (उपरासु) दिशाओं में हम लोग (धीमहि) धारण करें अर्थात् सुने (आत्) इसके अनन्तर (अस्य) इस मनुष्य का (ग्रभणवत्) जिसमें प्रशंसित सब व्यवहारों का ग्रहण उस (वीळु) दृढ़ (भक्तम्) सेवन किये वा (अभक्तम्) न सेवन किये हुए (अवः) रक्षा आदि युक्त कर्म और (आयुः) जीवन को (सूनवे) पुत्र के लिये (न) जैसे वैसे (शर्म) घर को (व्यन्तः) विविध प्रकार से प्राप्त होते हुए (अजराः) पूरी अवस्थावाले वा (अग्नयः) बिजुली रूप अग्नि के समान (व्यन्तः) सब पदार्थों की कामना करते हुए (अजराः) अवस्था होने से रहित हम लोग धारण करें ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कर है। जैसे चन्द्रमा तारागण और ओषधियों को पुष्ट करता है, वैसे सज्जनों को प्रजाजनों का पालन-पोषण करना चाहिये। जैसे सन्तानों को पिता-माता तृप्त करते हैं, वैसे सब प्राणियों को हम लोग तृप्त करें ॥ ५ ॥
विषय
दिन की अपेक्षा रात्रि में सुदर्शनतर प्रभु
पदार्थ
१. (तम्) = उस (अस्य) = इस प्रभु के (पक्षम्) = अन्न को (उपरासु) = यज्ञवेदिरूप भूमियों में (धीमहि) = धारण करते हैं, अर्थात् यज्ञ करके यज्ञशेष का सेवन करनेवाले बनते हैं । सम्पूर्ण अन्न प्रभु का दिया हुआ है । उस प्रभुप्रदत्त अन्न को प्रथम उस महादेव के अधीनस्थ इन देवों के लिए देकर हम बचे हुए अन्न का सेवन करते हैं । ये प्रभु वे हैं (यः) = जो (नक्तम) = रात्रि के समय (दिवातरात् सुदर्शतरः) = दिन के समय की अपेक्षा अधिक सुन्दरता से व सुगमता से देखने योग्य होते हैं । [क] यह भौतिक अग्नि तो दिन की अपेक्षा रात्रि में अधिक चमकती ही है, प्रभु भी दिन की अपेक्षा रात्रि में सुगमता से दिखते हैं । दिन के समय चित्तवृत्ति इधर-उधर भटकती रहती है, रात्रि में दिन की अपेक्षा एकाग्रता होने से प्रभु 'स्वप्नधीगम्य' - [मनु] होते हैं । प्रभु - प्राप्ति का यह उपाय भी कहा गया है कि स्वप्न में अचानक प्रभु का दर्शन हो तो 'स्वप्नज्ञानालम्बन वा' [योगदर्शन] उस स्वप्नज्ञान को ग्रहण करने का यत्न करना, [ख] इसका भाव यह भी है कि 'दिन' प्रकाश च सुख - समृद्धि का प्रतीक है तो 'रात्रि' अन्धकार के कष्टों का प्रतीक है । सुख-समृद्धि में प्रभु विस्मृत हो जाते हैं, कष्टों में उनका स्मरण हो ही आता है । ३. (अप्रायुषे) = [अ प्र आयुषे] निकृष्ट जीवनवाले के लिए तो वे प्रभु (दिवातरात्) = दिन की अपेक्षा रात्रि में ही अधिक सुदर्श होते हैं । उत्कृष्ट जीवनवाले व्यक्ति सुख में भी प्रभु का स्मरण करते हैं, निकृष्ट जीवनवाले तो कष्ट में ही उसका स्मरण करते हैं । ज्ञानीभक्त विरल ही होते हैं, प्रायः लोग आर्तभक्त ही बनते हैं । (आत्) = अब प्रभुभक्त बनने पर (अस्य आयुः) = इसका जीवन (ग्रभणवत्) = ग्रहणवाला होता है, इसका जीवन प्रभु का धारण करनेवाला होता है । वे प्रभु इसके लिए इस प्रकार होते हैं (न) = जैसे कि (सूनवे) = पुत्र के लिए पिता का (वीडु शर्म) = दृढ़ गृह होता है । यह गृह जिस प्रकार पुत्र के लिए सुखदायक होता है, उसी प्रकार इसके लिए प्रभु सुखदायक होते हैं । प्रभु इसके लिए घर बन जाते हैं, यह प्रभु में निवास करता है । ४. प्रभु (भक्तम्) = अपने उत्कृष्ट ज्ञानीभक्त को तथा (अभक्तम्) = इस आर्त ईषद् भक्त को भी (अवः) = रक्षित करते हैं । प्रभु के रक्षण में चलते हुए ये ईषद् भक्त भी धीरे-धीरे (व्यन्तः) = हविर्भक्षण की वृत्तिवाले बनकर (अजराः) = अजीर्ण [अ क्षरित] शक्तियोंवाले होते हैं । ये (अग्नयः) = प्रगतिशील होते हैं और (व्यन्तः) = यज्ञशेष का ही सेवन करते हुए (अजराः) = अ-जीर्णशक्ति बनते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुभक्त सदा यज्ञशेष का सेवन करता हुआ अजर बनता है । प्रभु के ज्ञानीभक्त कम होते हैं, आर्तभक्त अधिक । प्रभु इन सबका रक्षण करते हैं ।
विषय
पक्षान्तर में विद्वान् आचार्य शिष्य के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
अग्नि जिस प्रकार सूर्य के अभाव में ( नक्तं ) रात्रि समय में ( दिवातरात् ) उत्तम दिन की अपेक्षा भी (सुदर्शतरः) उत्तम रीति से देखने योग्य और अन्यों को भी अपने प्रकाश से दिखानेहारा है उसी प्रकार ( यः ) जो ज्ञानवान् नायक या गुरु ( अप्रायुषे ) जीवित, जागृत, शक्तिशाली पुरुष या नवयुवक शिष्य के लिये ( दिवातरात् सुदर्शतरः ) सूर्य से या दिन के प्रकाश से भी अधिक अच्छी प्रकार दर्शनीय, उज्ज्वल और स्पष्ट मार्गदर्शी है ( अस्य ) इस महान् संसार के ( पृक्षम् ) सेचने हारे, जीवनप्रद, या सुव्यवस्थित करनेहारे, सर्वत्र संगत, सर्वव्यापक स्वामी, प्रभु की हम ( उपरासु ) यज्ञवेदियों में अग्नि के समान ( उपरासु ) समस्त दिशाओं में और भीतरी ध्यान पूर्वक रमण करने योग्य आभ्यन्तर चित्त भूमियों में भी ( धीमहि ) धारण करें और ध्यान करें । ( आत् ) और उसके उत्तम रीति से ध्यान करने के अनन्तर ही ( अस्य आयु: ) उसका परम जीवन, या उसका प्राप्त होना ही ( ग्रभणवत् ) सब के ग्रहण योग्य, सब को भीतर लेने वाला (सूनवे न शर्म) पुत्र के लिये पिता के घर के समान ही सुखद, ( वीडु ) बलवान्, दृढ़ आश्रय हो जाता है । ( भक्तम् ) परम भजन करने योग्य उस ( अभक्तम् ) स्वयं किसी की भक्ति न करने हारे, परम पूज्य, सर्व प्रधान, सर्वोच्च ( अव:) परम रक्षास्वरूप प्रभु को ( व्यन्तः ) प्राप्त होते हुए ( अजराः अग्नयः ) उस अजन्मा परमेश्वर में रमण करने हारे, उसमें अपने आपको समर्पण करने हारे, ज्ञानी पुरुप और ( अजराः ) शत्रुओं को उखाड़ फेंकने वाले नायक में रमण करने वाले उस पर पूर्ण प्रसन्न वीर, ( अग्नयः ) तेजस्वी जन ( व्यन्तः ) ऐश्वर्यों की कामना करते हुए भी ( अजराः ) जरा, आदि से रहित, दीर्घजीवी स्थिर या अविनाशी अमृतरूप हो जाते हैं । इतिद्वादशोवर्गः।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २, ३, ८,९ अष्टिः। ४, ७, ११ भुरिगष्टिः। ५, ६ अत्यष्टिः । १० भुरिगति शक्वरी ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा चंद्र नक्षत्र व औषधी (वृक्ष) यांना पुष्ट करतो तसे सज्जनांनी प्रजेचे पालनपोषण केले पाहिजे. जसे माता-पिता संतानांना संतुष्ट करतात तसे सर्व प्राण्यांना आम्ही संतुष्ट करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let us meditate on and do homage to that assiduous and uncompromising Agni, leading light of the world, in all directions, who shines brighter and stronger at night than in the day and, holding holy offerings in hand, let us honour and worship him. Just as a father provides a strong and happy home for the child so do the unaging leading lights of yajna and humanity bring us solace and protection with the gracious judgement of the dedicated and the undedicated. And thus, let us too, unageing and bright like the fire, live long and happy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should Judges or Magistrates do is told in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, we bear in us the virtues of that King who is worth-seeing or Charming like the full moon and the sun that illumines the world. He gives shelter to all as the father gives dwelling and happiness to his son. His test is at the night of the difficulties than in the day of happiness. He establishes proper relations with all and unifies them and therefore we admire and listen to his message in all directions. Being like lightning, and free from decay and desiring the welfare of all, let us protect good devout persons and punish unrighteous persons not devoted to God. Let us have long life.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वृक्षम्) सम्पृक्तारम् = Establisher of good relations or unifier. (उपरासु ) दिक्षु उपरा इति दिङ्नाम (निघ० १.६) = In all directions. (व्यन्तः ) कामयमानाः = Desiring the welfare of all.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Good men should nourish and preserve the subjects as moon preserves the plants and the herbs. As parents always satisfy and please their children, so we should satisfy and please all by our good conduct.
Translator's Notes
पृक्षी -सम्पर्के वी-गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु अत्र कान्त्यर्थग्रहणम्, कान्तिश्च कामना । अथ राजादय: कि कुर्युरित्याह ।
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