ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 151/ मन्त्र 2
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
यद्ध॒ त्यद्वां॑ पुरुमी॒ळ्हस्य॑ सो॒मिन॒: प्र मि॒त्रासो॒ न द॑धि॒रे स्वा॒भुव॑:। अध॒ क्रतुं॑ विदतं गा॒तुमर्च॑त उ॒त श्रु॑तं वृषणा प॒स्त्या॑वतः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ह॒ । त्यत् । वा॒म् । पु॒रु॒ऽमी॒ळ्हस्य॑ । सो॒मिनः॑ । प्र । मि॒त्रासः॑ । न । द॒धि॒रे । सु॒ऽआ॒भुवः॑ । अध॑ । क्रतु॑म् । वि॒द॒त॒म् । गा॒तुम् । अर्च॑ते । उ॒त । श्रु॒त॒म् । वृ॒ष॒णा॒ । प॒स्त्य॑ऽवतः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्ध त्यद्वां पुरुमीळ्हस्य सोमिन: प्र मित्रासो न दधिरे स्वाभुव:। अध क्रतुं विदतं गातुमर्चत उत श्रुतं वृषणा पस्त्यावतः ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। ह। त्यत्। वाम्। पुरुऽमीळ्हस्य। सोमिनः। प्र। मित्रासः। न। दधिरे। सुऽआभुवः। अध। क्रतुम्। विदतम्। गातुम्। अर्चते। उत। श्रुतम्। वृषणा। पस्त्यऽवतः ॥ १.१५१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 151; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे वृषणाऽध्यापकोपदेशकौ युवां पुरुमीढस्य पस्त्यावतः सोमिनः क्रतुं वाचं यद्ध स्वाभुवो मित्रासो न प्रदधिरे त्यत् तेषां गातुं विदतमधोत वामर्चते श्रुतम् ॥ २ ॥
पदार्थः
(यत्) ये (ह) किल (त्यत्) तेषाम् (वाम्) युवाम् (पुरुमीढस्य) पुरुभिर्बहुभिर्गुणैः सिक्तस्य (सोमिनः) बह्वैश्वर्ययुक्तस्य (प्र) (मित्रासः) सखायः (न) इव (दधिरे) दधति (स्वाभुवः) सुष्ठु समन्तात् परोपकारे भवन्ति (अध) अनन्तरम् (क्रतुम्) प्रज्ञाम् (विदतम्) प्राप्नुतम् (गातुम्) स्तुतिम् (अर्चते) सत्कर्त्रे (उत) अपि (श्रुतम्) (वृषणा) यौ वर्षयतो दुष्टानां शक्तिं बन्धयतस्तौ (पस्त्यावतः) प्रशस्तानि पस्त्यानि गृहाणि विद्यन्ते यस्य ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये मित्रवत् सर्वेषु जनेषु प्रज्ञां संस्थाप्य विद्या निदधति ते सौभाग्यवन्तो भवन्ति ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ।
पदार्थ
हे (वृषणा) शर आदि की वर्षा कराते, दुष्टों की शक्ति को बाँधते हुए अध्यापक और उपदेशको ! तुम दोनों (पुरुमीढस्य) बहुत गुणों से सींचे हुए (पस्त्यावतः) प्रशंसित घरोंवाले (सोमिनः) बहुत ऐश्वर्ययुक्त सज्जन की (क्रतुम्) बुद्धि को (यत्, ह) जो निश्चय के साथ (स्वाभुवः) उत्तमता से परोपकार में प्रसिद्ध होनेवाले जन (मित्रासः) मित्रों के (न) समान (प्र, दधिरे) अच्छे प्रकार धारण करते (त्यत्) उनकी (गातुम्) स्तुति को (विदतम्) प्राप्त होओ, (अधोत) इसके अनन्तर भी (वाम्) तुम दोनों का (अर्चते) सत्कार करते हुए जन की (श्रुतम्) सुनो ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मित्र के समान सब जनों में उत्तम बुद्धि को स्थापन पर विद्याओं का स्थापन करते हैं, वे अच्छे भाग्यशाली होते हैं ॥ २ ॥
विषय
ऋतु, गातु
पदार्थ
१. (यत् ह) = जब निश्चय से (त्यत् पुरुमीळ्हस्य) = सब सुखों का सेचन करनेवाले (सोमिनः) = [सत्यं वै श्रीज्योतिः सोमः – शत० ५।१।२।१०] 'सत्य, श्री व ज्योति' के स्वामी प्रभु के (मित्रासः न) = मित्रों के समान (स्वाभुवः) = [ स्व आ भू] अपने पर आश्रित होनेवाले व्यक्ति हे मित्रावरुणौ ! (वाम्) = आप दोनों को (प्रदधिरे) = प्रकर्षेण धारण करते हैं। प्राणापान ही मित्रावरुण हैं । प्राणायाम के द्वारा इनकी गति का निरोध ही इनका धारण है। २. (अध) = अब जब कि एक उपासक इन प्राणों को धारण करता है तब हे मित्रावरुणौ ! आप (अर्चते) = इस आराधक के लिए (क्रतुम्) = कर्मशक्ति को-यज्ञादि पवित्र कर्मों की भावना को तथा (गातुम्) = मार्ग को (विदतम्) = प्राप्त कराते हो—जनाते हो। प्राणापान की साधना से यह उपासक पवित्र कर्मों में प्रवृत्त होता है और मार्गभ्रष्ट नहीं होता। ३. (उत) = और प्राणसाधना से ही (पस्त्यावतः) = इस उत्तम शरीररूप गृहवाले की प्रार्थना को हे (वृषणा) = सब सुखों की वर्षा करनेवाले प्राणापानो! आप (श्रुतम्) = सुनते हो । आपकी कृपा से यह शरीर को स्वस्थ बना पाता है। इसकी सब कामनाएँ पूर्ण होती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के स्नेही प्राणसाधना में प्रवृत्त होते हैं। यह साधना उन्हें कर्मशक्ति व मार्ग का ज्ञान देती है।
विषय
वैज्ञानिकों और विद्वानों के समान उत्तम शासक के कर्त्तव्य
भावार्थ
हे ( वृषणा ) एक दूसरे के प्रति सुखों के वर्षण दुष्टों की शक्तियों को रोकने वाले मित्र और वरुण ! अर्थात् दिन रात्रि के समान सदा साथ रहने वाले स्त्री पुरुषो ! वा राज प्रजावर्गो ! ( यत् ह ) जब ( वां ) तुम दोनों के हितकारी ( पुरुमीढस्य ) मेघ के समान बहुत सी प्रजाओं को ज्ञान और धनादि जलों से सींचने वाले ( सोमिनः ) ज्ञानैश्वर्यवान्, विद्वान् पुरुष के ( स्वाभुवः ) अपने अपने व्यापार करने में कुशल, सामर्थ्यवान् पुरुष ( मित्रासः न ) मित्रों के समान रक्षक होकर ( क्रतुं ) यज्ञ को यज्ञकर्त्ताओं के समान, उसके राज्य कार्य को ( प्र दधिरे ) अच्छी प्रकार धारण करें, आप दोनों तब ( पस्त्यावतः ) गृहों के स्वामी, उस ( अर्चतः ) पूज्य विद्वान् पुरुष की ( गातुम् ) वाणी या आज्ञा का ( विदतम् ) ज्ञान प्राप्त करो (उत) और (श्रुतम् ) नित्य श्रवण करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः- भुरिक् त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ विराट् जगती । ६, ७ जगती ८, ९ निचृज्जगती च ॥ नवर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे मित्राप्रमाणे सर्व लोकात उत्तम बुद्धीची स्थापना करून विद्या देतात ते सौभाग्यशाली असतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Mitra and Varuna, generous heaven and earth and the skies, listen to the voice of adoration which people of intelligence and innate virtue bear and offer as friends to you. Know the yajnic act of the blessed yajamana of prosperity holding rich libations of soma for the holy fire. Clear the path of progress for the worshipper and listen to the songs of the master of a happy home.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The qualities of Mitra and Varuna are defined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teacher and preacher! you shower peace and bliss and smash the power of the wicked. O my benevolent friends! you uphold the intellect and refined speech of a virtuous house-holder ( Grihastha ). Such a house holder is endowed with the great wealth of wisdom and he gets due praise from them. You both listen attentively and consider their problems and requests, only if such a person honors you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons are very fortunate who like true friends disseminate knowledge and intellect among the people.
Foot Notes
(पुरुमीढस्य) पुरुभिर्बहुभिर्गुणैः सिक्तस्य — Of a very virtuous person. (स्वाभुवः) सुष्टुं समन्तात् परोपकारे भवन्ति ये ते = Benevolent persons, doing good to all from all sides. (वृषणौ ) यो वर्षयतः दुष्टांना शक्तिं बन्धयतस्तौ अध्यापकोपदेशकौ – Those teachers and preachers who shower peace and happiness and restrain the power of the wicked.
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