ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 151/ मन्त्र 4
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
प्र सा क्षि॒तिर॑सुर॒ या महि॑ प्रि॒य ऋता॑वानावृ॒तमा घो॑षथो बृ॒हत्। यु॒वं दि॒वो बृ॑ह॒तो दक्ष॑मा॒भुवं॒ गां न धु॒र्युप॑ युञ्जाथे अ॒पः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सा । क्षि॒तिः । अ॒सु॒र॒ । या । महि॑ । प्रि॒या । ऋत॑ऽवानौ । ऋ॒तम् । आ । घो॒ष॒थः॒ । बृ॒हत् । यु॒वम् । दि॒वः । बृ॒ह॒तः॒ । दक्ष॑म् । आ॒ऽभुव॑म् । गाम् । न । धु॒रि । उप॑ । यु॒ञ्जा॒थे॒ इति॑ । अ॒पः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सा क्षितिरसुर या महि प्रिय ऋतावानावृतमा घोषथो बृहत्। युवं दिवो बृहतो दक्षमाभुवं गां न धुर्युप युञ्जाथे अपः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र। सा। क्षितिः। असुर। या। महि। प्रिया। ऋतऽवानौ। ऋतम्। आ। घोषथः। बृहत्। युवम्। दिवः। बृहतः। दक्षम्। आऽभुवम्। गाम्। न। धुरि। उप। युञ्जाथे इति। अपः ॥ १.१५१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 151; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे ऋतावानावसुर युवं यतो बृहतो दिवो दक्षमपश्च धुर्याभुवं गां नोपयुञ्जाथे बृहदृतमा घोषथस्तस्माद्युवां या महि प्रिया क्षितिस्सा प्राप्नोतु ॥ ४ ॥
पदार्थः
(प्र) (सा) (क्षितिः) (असुर) प्राणवद्बलिष्ठौ। अत्राकारादेशो बहुलं छन्दसीति ह्रस्वश्च। (या) (महि) महति (प्रिया) सुखकारिणी (ऋतावानौ) सत्याचारिणौ (ऋतम्) सत्यम् (आ) (घोषथः) विशेषेण शब्दयथः (बृहत्) महत् (युवम्) युवाम् (दिवः) राज्यप्रकाशस्य (बृहतः) अतिवृद्धस्य (दक्षम्) बलम् (आभुवम्) समन्ताद्भवनशीलम् (गाम्) बलीवर्दम् (न) इव (धुरि) शकटादिवाहने (उप) (युञ्जाथे) नियुक्तौ भवतः (अपः) कर्म ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये सत्यमाचरन्त्युपदिशन्ति तेऽसंख्यं बलं प्राप्य महाराज्यं भुञ्जते ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ।
पदार्थ
हे (ऋतावाना) सत्य आचरण करनेवाले (असुर) प्राण के समान बलवान् मित्र-वरुण=राजा-प्रजा-जन ! (युवम्) तुम दोनों जिस कारण (बृहतः) अति उन्नति को प्राप्त (दिवः) प्रकाश (दक्षम्) बल और (अपः) कर्म को (धुरि) गाड़ी चलाने की धुरी के निमित्त (आभुवम्) अच्छे प्रकार होनेवाले (गाम्) प्रबल बैल के (न) समान (उप, युञ्जाथे) उपयोग में लाते हो और (बृहत्) अत्यन्त (ऋतम्) सत्य व्यवहार को (आघोषथः) विशेषता से शब्दायमान कर प्रख्यात करते हो इससे तुम दोनों को (या) जो (महि) अत्यन्त (प्रिया) सुखकारिणी (क्षितिः) भूमि है (सा) वह (प्र) प्राप्त होवे ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सत्य का आचरण करते और उसका उपदेश करते हैं, वे असंख्य बल को प्राप्त होकर पृथिवी के राज्य को भोगते हैं ॥ ४ ॥
विषय
बृहत् ऋतम्
पदार्थ
१. हे (असुरा) = प्राणशक्ति देनेवाले तथा मलों को दूर फेंकनेवाले प्राणापानो! आपका (प्रक्षितिः) = निवास (सा) = वह है (या) = जो (महि प्रिया) = अत्यन्त प्रिय है। प्राण बल का संचार करता है और अपान दोषों का निरसन करता है, अतः दोनों 'असुरा' कहे गये हैं। एक 'असून् राति'प्राणों को देता है और दूसरा 'अस्यति' मलों को परे फेंकता है। इनकी साधना से शरीर सुन्दर बना रहता है, अत: इनका निवास 'महि प्रिया' कहा गया है । २. (ऋतावानौ) = ऋत का रक्षण करनेवाले हे प्राणापानो! आप साधकों के जीवन में (बृहत् ऋतम्) = वृद्धि के कारणभूत ऋत को (आघोषथः) = आघोषित करते हो । प्राणसाधक का जीवन ऋतवाला बनता है। (युवम्) = आप दोनों साधक के जीवन में (बृहतः दिवः) = वृद्धि के कारणभूत ज्ञान से (दक्षम्) = उन्नति के कारणभूत [दक्ष = to grow] अथवा कुशलता से किये जानेवाले (आभुवम्) = व्यापक- स्वार्थ के अंश से रहित (अपः) = कर्म को (उपयुञ्जाथे) = उपयुक्त करते हो, उसी प्रकार (न) = जैसे कि (धुरि गाम्) = जुए में बैलों को जोतते हैं। प्राणसाधक निरन्तर कार्यों में जुता रहता है। उसके कर्म कुशलता से किये जाते हैं और स्वार्थप्रधान नहीं होते। -
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधक का जीवन ऋतवाला होता है। इसके कर्म कुशल व निःस्वार्थ होते हैं।
विषय
पृथ्वी का स्त्री के समान वर्णन ।
भावार्थ
पृथ्वी का स्त्री के समान वर्णन । हे ( असुर ) प्राण के समान बलवान् और प्राणों में रमण करने वाले मित्र और वरुण ! राजन् और राजमित्र एवं उत्तम स्त्री पुरुषो ! ( या महिप्रिया ) जो बहुत अधिक प्रिय, सुख देने और प्रजा और पति को तृप्त करने हारी होती है ( सा क्षितिः ) वह ही उत्तम निवास योग्य भूमि के समान गृह बसा कर रहने योग्य उत्तम स्त्री होती है । हे ( ऋतावानौ ) परस्पर सत्य व्यवहार को धारण करने वालो ! तुम दोनों ( ऋतम् ) सत्य व्यवहार को ( प्र घोषथः ) उत्तम जान कर उसका भाषण करो और उसी सत्य को ( बृहत् ) सदा वृद्धिकारी जान कर (आघोषथः) सर्वत्र उसका उपदेश करो । ( धुरि दक्षं गां न ) शकट का बोझा ढोके ले जाने के कार्य में जिस प्रकार दृढ़, बलवान् बैल को जोड़ा जाता है उसी प्रकार ( युवं ) आप दोनों भी ( बृहतः ) बड़े भारी, वृद्धिशील ( दिवः ) ज्ञान प्रकाशमय वेद के ( दक्षम् ) ज्ञान और ( अपः ) उसमें उपदिष्ट कर्म और ( आभुवं ) सब कार्यों के सम्पादन करने में समर्थ ( गां ) वेद वाणी और श्रेष्ठ पुरुष को ( धुरि ) अपने बड़े भारी कार्य भार को उठाने में ( उपयुञ्जाथे ) उपयोग किया करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः- भुरिक् त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ विराट् जगती । ६, ७ जगती ८, ९ निचृज्जगती च ॥ नवर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे सत्याचे आचरण करतात व त्याचा उपदेश करतात ते असंख्य बल प्राप्त करून पृथ्वीचे राज्य भोगतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Mitra and Varuna, lords of the universal truth of being and action, wielders of the pranic energies dear as life, to the great earth which is so dear to you and to the people, proclaim the great and universal truth of life: Bring from the vast heaven of light, both of you, the mighty strength of being and the conviction of will and action, yoke the two like the driving force of a chariot, (like the ruler and the people of the world state), and join the march of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
A person of good conduct and thoughts is admired.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men of truthful conduct! you are powerful like the Pranas (vital energy). You inject the strength and truth of the great light of the State in the work of administration, like a strong bullock is yoked in the cart. You proclaim great truth before the public. Let this earth which gives happiness, be controlled by you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who put truth into practice and preach it, enjoy the reign over earth having acquired immeasurable strength.
Translator's Notes
(असुर ) प्राणवद् बलिष्ठौ ( अत्राकारादेशो बहुलं छन्दसीति ह्रस्व:) - Mighty like the Prana or vital energy. (दिव:) राज्यप्रकाशस्य — Of the light of the State.
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