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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 151 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 151/ मन्त्र 6
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    आ वा॑मृ॒ताय॑ के॒शिनी॑रनूषत॒ मित्र॒ यत्र॒ वरु॑ण गा॒तुमर्च॑थः। अव॒ त्मना॑ सृ॒जतं॒ पिन्व॑तं॒ धियो॑ यु॒वं विप्र॑स्य॒ मन्म॑नामिरज्यथः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वा॒म् । ऋ॒ताय॑ । के॒शिनीः॑ । अ॒नू॒ष॒त॒ । मित्र॑ । यत्र॑ । वरु॑ण । गा॒तुम् । अर्च॑थः । अव॑ । त्मना॑ । सृ॒जत॑म् । पिन्व॑तम् । धियः॑ । यु॒वम् । विप्र॑स्य । मन्म॑नाम् । इ॒र॒ज्य॒थः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वामृताय केशिनीरनूषत मित्र यत्र वरुण गातुमर्चथः। अव त्मना सृजतं पिन्वतं धियो युवं विप्रस्य मन्मनामिरज्यथः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वाम्। ऋताय। केशिनीः। अनूषत। मित्र। यत्र। वरुण। गातुम्। अर्चथः। अव। त्मना। सृजतम्। पिन्वतम्। धियः। युवम्। विप्रस्य। मन्मनाम्। इरज्यथः ॥ १.१५१.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 151; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मित्र वरुण च विद्वांसौ यत्रर्ताय केशिनीः सुन्दरस्त्रियो वां युवामनूषत तत्र युवं गातुमार्चथः। त्मना विप्रस्य धियोवसृजतं पिन्वतं च मन्मनामिरज्यथः ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (आ) (वाम्) युवाम् (ऋताय) सत्याचाराय (केशिनीः) रश्मिमतीः (अनूषत) स्तुवत (मित्र) सखे (यत्र) (वरुण) वर (गातुम्) सत्यां स्तुतिम् (अर्चथः) सत्कुरुथः (अव) (त्मना) आत्मना (सृजतम्) निष्पादयतम् (पिन्वतम्) सिञ्चतम् (धियः) प्रज्ञाः (युवम्) युवाम् (विप्रस्य) मेधाविनः (मन्मनाम्) मन्यमानाम् (इरज्यथः) ऐश्वर्ययुक्तां कुरुथः ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    या इह प्रशंसिताः स्त्रियो ये च पुरुषास्ते स्वसदृशैस्सह संयुज्यन्तां ब्रह्मचर्य्येण विद्यया विज्ञानमुन्नीयैश्वर्यं वर्द्धयन्तु ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे (मित्र) मित्र और (वरुण) श्रेष्ठ विद्वानो ! (यत्र) जहाँ (ऋताय) सत्याचरण के लिये (केशिनीः) चमक-दमकवाली सुन्दरी स्त्री (वाम्) तुम दोनों की (अनूषत) स्तुति करें वहाँ (युवम्) तुम दोनों (गातुम्) सत्य स्तुति को (आ, अर्चथः) अच्छे प्रकार प्रशंसित करते हो (त्मना) अपने से (विप्रस्य) धीरबुद्धि युक्त सज्जन की (धियः) उत्तम बुद्धियों को (अव, सृजतम्) निरन्तर उत्पन्न करो और (पिन्वतम्) उपदेश द्वारा सींचो (मन्मनाम्) और मान करती हुई को (इरज्यथः) ऐश्वर्ययुक्त करो ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    जो यहाँ प्रशंसायुक्त स्त्रियाँ और जो पुरुष हैं वे अपने समान पुरुष-स्त्रियों के साथ संयोग करें, ब्रह्मचर्य से और विद्या से विशेष ज्ञान की उन्नति कर ऐश्वर्य को बढ़ावें ॥ ६ ॥

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    विषय

    कर्म, ज्ञान, स्तवन [गातुं, धियः, मन्मनाम्]

    पदार्थ

    १. (ऋताय) = ॠत की प्राप्ति के लिए (केशिनी:) = ज्ञानरश्मियोंवाली प्रजाएँ (वाम्) = हे प्राणापानो ! आपका (अनूषत) = स्तवन करती हैं। प्राणसाधना से जीवन (ऋतमय) = बनता है । हे मित्र-प्राण ! (वरुण) = अपान ! आप यत्र जहाँ होते हो वहाँ (गातुम् अर्चथ:) = मार्ग को पूजित करते हो, अर्थात् प्राणसाधना करनेवाला पुरुष अमृत को छोड़ने के कारण सदा सन्मार्ग पर ही चलता है । हे प्राणापानो! आप त्मना स्वयं ही (अवसृजतम्) = सब वासनाओं को हमसे दूर करते हो । (धियः) = बुद्धियों को व ज्ञानपूर्वक होनेवाले कर्मों को (पिन्वतम्) = हममें पूरित करते हो। [वर्धयतम्सा० ]। प्राणसाधना करनेवाला पुरुष वासनाओं से ऊपर उठकर ज्ञानपूर्वक कर्म करनेवाला बनता है। हे प्राणापानो ! (युवम्) = आप दोनों (विप्रस्य) = [विप्रा] अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले पुरुष के (मन्मनाम्) = मननपूर्वक की गई स्तुतियों के (इरज्यथः) = स्वामी होते हो, अर्थात् प्राणसाधक पुरुष मननपूर्वक प्रभुस्तवन करनेवाला बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधक [क] सुमार्ग पर = चलता है, [ख] बुद्धि को बढ़ाता है, [ग] मननपूर्वक स्तवन करता है।

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    विषय

    परस्पर सभ्य व्यवहार और मधुर वचन बोलने का उपदेश

    भावार्थ

    हे (मित्र वरुण) मित्र ! और हे वरुण ! दिन रात्रि, सूर्य और सिन्धु के समान परस्पर स्नेह, प्राणरक्षा और भ्रष्ट गुणों से युक्त स्त्री पुरुषो ! ( वाम् ) तुम दोनों की (केशिनीः) उत्तम केशों से युक्त, सुसभ्य, गृहस्थ स्त्रियें (ऋताय) तुम्हारे सत्य आचार और व्यवहार के विषय में (अनूषत) स्तुति करें। और तुम दोनों परस्पर के ( गातुम् ) उत्तम वाणी और उत्तम भूमि और उत्तम मार्ग के उपदेष्टा और पोषक जानकर ( अर्चथः ) एक दूसरे का आदर करो । और आप दोनों ( त्मना ) स्वयं ( धियः ) उत्तम बुद्धियों और वाणियों को ( अवसृजतम् ) परस्पर प्रयोग करो । और ( धियः पिन्वतम् ) उत्तम कर्मों और स्तुतियों को देकर एक दूसरों को बढ़ाओ और प्रसन्न रखो। और ( वि प्रस्य मन्मनाम् ) विद्वान् पुरुष की मनन करने योग्य ज्ञान वाणी को ( इरज्यथः ) प्राप्त करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः- भुरिक् त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ विराट् जगती । ६, ७ जगती ८, ९ निचृज्जगती च ॥ नवर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रशंसायुक्त स्त्रिया व पुरुष यांनी आपल्या सारख्या पुरुष स्त्रियांबरोबर संयोग करावा. ब्रह्मचर्याने व विद्येने विशेष ज्ञानाचे उन्नयन करावे व ऐश्वर्य वाढवावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mitra and Varuna, powers of love and justice of society, where the lights of knowledge and the flames of yajnic fire in action serve and augment you for the advancement of truth and rule of law, there your powers of love and friendship and your power of justice serve, protect and enrich the earth and the character and conduct of her children. O light and shower of life, love and justice, with your heart and soul, create, protect and strengthen the native intelligence and refine and raise the knowledge and wisdom of the noble saints and scholars.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The men and women should have matching couples.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened person ! you are friendly and acceptable to all being virtuous. The beautiful and knowledgeable ladies sing in your praise, for your truthful conduct. You accept their praises with gratitude. You also heighten the level of intellect of wise men, and provoke them with noble suggestions. Thus you make them prosperous and fruitful in knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Really enlightened persons make efforts to unite admirable virgins and young men into wedlock. They examine the temperaments and merits of both and their areas of the observance of Brahmacharya (self restraint) and Vidya (wisdom).

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