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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 151 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 151/ मन्त्र 8
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    यु॒वां य॒ज्ञैः प्र॑थ॒मा गोभि॑रञ्जत॒ ऋता॑वाना॒ मन॑सो॒ न प्रयु॑क्तिषु। भर॑न्ति वां॒ मन्म॑ना सं॒यता॒ गिरोऽदृ॑प्यता॒ मन॑सा रे॒वदा॑शाथे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वाम् । य॒ज्ञैः । प्र॒थ॒मा । गोभिः॑ । अ॒ञ्ज॒ते॒ । ऋत॑ऽवाना । मन॑सः । न । प्रऽयु॑क्तिषु । भर॑न्ति । वा॒म् । मन्म॑ना । स॒म्ऽयता॑ । गिरः॑ । अदृ॑प्यता । मन॑सा । रे॒वत् । आ॒शा॒थे॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवां यज्ञैः प्रथमा गोभिरञ्जत ऋतावाना मनसो न प्रयुक्तिषु। भरन्ति वां मन्मना संयता गिरोऽदृप्यता मनसा रेवदाशाथे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवाम्। यज्ञैः। प्रथमा। गोभिः। अञ्जते। ऋतऽवाना। मनसः। न। प्रऽयुक्तिषु। भरन्ति। वाम्। मन्मना। सम्ऽयता। गिरः। अदृप्यता। मनसा। रेवत्। आशाथे इति ॥ १.१५१.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 151; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अध्यापकोपदेशकौ ये यज्ञैर्गोभिरञ्जते ऋतावाना प्रथमा युवां मनसः प्रयुक्तिषु नेव व्यवहारेषु भरन्ति वां युवयोः सकाशात् शिक्षाः प्राप्य संयता मन्मनादृप्यता मनसा गिरो रेवच्च भरन्ति युवामाशाथे तान् नित्यमध्यापयतं शिक्षेथां च ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (युवाम्) (यज्ञैः) सत्करणैः (प्रथमा) आदिमौ (गोभिः) सुशिक्षिताभिर्वाणीभिः (अञ्जते) कामयन्ते (ऋतावाना) सत्याचारसंबन्धिनौ (मनसः) अन्तःकरणस्य (न) इव (प्रयुक्तिषु) प्रकृष्टेषु योजनेषु (भरन्ति) पुष्यन्ति (वाम्) युवयोः (मन्मना) विज्ञानेन (संयता) संयमयुक्तेन (गिरः) विद्यायुक्ता वाणी (अदृप्यता) हर्षमोहरहितेन (मनसा) अन्तःकरणेन (रेवत्) बहवो रायो विद्यन्ते यस्मिँस्तदैश्वर्यम् (आशाथे) प्राप्नुथः ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ये युष्मान् विद्याप्राप्तये श्रद्धयाप्नुयुः। ये च जितेन्द्रिया धार्मिकाः स्युस्तान् प्रयत्नेन विद्यावतो धार्मिकान् कुरुत ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे अध्यापकोपदेशक सज्जनो ! जो (यज्ञैः) यज्ञों से (गोभिः) और सुन्दर शिक्षित वाणियों से (अञ्जते) कामना करते हैं (ऋतावाना) और सत्य आचरण का सम्बन्ध रखनेवाले (प्रथमा) आदि में होनेवाले (युवाम्) तुम दोनों को (मनसः) अन्तःकरण के (प्रयुक्तिषु) प्रयोगों को उल्लासों में जैसे (न) वैसे व्यवहारों में (भरन्ति) पुष्ट करते हैं तथा (वाम्) तुम दोनों की शिक्षाओं को पाकर (संयता) संयम युक्त (अदृप्यता) हर्ष-मोहरहित (मन्मना) विज्ञानरूप (मनसा) मन से (गिरः) वाणियों और (रेवत्) बहुत धनों से भरे हुए ऐश्वर्य को (भरन्ति) पुष्ट करते हैं और तुमको (आशाथे) प्राप्त होते हैं, उनको तुम नित्य पढ़ाओ और सिखाओ ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! जो तुमको विद्या प्राप्ति के लिये श्रद्धा से प्राप्त होवें और जो जितेन्द्रिय, धार्मिक हों, उन सभों को अच्छे यत्न के साथ विद्यावान् और धार्मिक करो ॥ ८ ॥

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    विषय

    प्राणसाधना से लाभ

    पदार्थ

    १. हे प्राणापानो! आप (प्रथमा) = जीवन की साधना में प्रथम स्थान रखते हो। (ऋतावाना) = आप ही ऋतवाले होते हो। आपकी साधना से ही जीवन ऋतवाला बनता है। (युवाम्) = आपको ही (यज्ञैः) = यज्ञों के हेतु से तथा (गोभिः) = ज्ञानवाणियों के हेतु से साधक लोग (अञ्जते) = [अञ्ज् = कान्ति, इच्छा] चाहते हैं। उसी प्रकार चाहते हैं (न) = जैसे कि (मनसः प्रयुक्तिषु) = मन के प्रयोगों में, को प्रभु की ओर लगाने में जिस प्रकार प्राणापान साधन बनते हैं, इसी प्रकार प्राणसाधना से मनुष्य मन यज्ञों की वृत्तिवाला बनता है और ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करनेवाला होता है। २. (मन्मना) = स्तवनवाले (संयता) = आपकी ओर सम्यक् जाते हुए (चित्त) = से (वां गिरः) = आपके स्तुतिवचनों को ये साधक (भरन्ति) = धारण करते हैं। आप उन साधकों के लिए (अदृप्यता मनसा) = गर्वशून्य मन के साथ (रेवत्) = धन-सम्पन्न जीवन को (आशाथे) = व्याप्त करते हो– देते हो [ददाथे - सा०]।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से ज्ञान की वाणियाँ, नम्रता तथा ऐश्वर्य प्राप्त होता है और मनो निरोध होता है।

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    विषय

    उत्तम विद्वानों के सत्संग की आज्ञा ।

    भावार्थ

    जो पुरुष ( मनसः प्रयुक्तिषु ) मन के उत्तम प्रयोगों और व्यवहारों के समान ज्ञान के उत्तम प्रयोगों में भी ( प्रथमा ) सर्वश्रेष्ठ कुशल और ( ऋतावाना ) सत्य ज्ञान, धर्माचरण और ऐश्वर्यवान् ( वां ) तुम दोनों को ( यज्ञैः ) उत्तम सत्कार, मान, पूजा और सत्कर्मों द्वारा ( गोभिः ) वाणियों और भूमियों द्वारा ( अञ्जते ) प्रकट करते हैं, तुम्हें उज्ज्वल करते हैं। और जो ( वां ) आप दोनों को ( मन्मना ) मनन करने योग्य ज्ञान और ( संयता ) संयमशील ( अदृप्यता ) विना गर्व के ( मनसा ) चित्त से ( गिरः ) वेदवाणियों का ( भरन्ति ) उपदेश करते हैं वे आप दोनों उनके ( रेवत् ) ज्ञानैश्वर्य से युक्त, वचन और ज्ञान को ( आशाथे ) प्राप्त होवो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः- भुरिक् त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ विराट् जगती । ६, ७ जगती ८, ९ निचृज्जगती च ॥ नवर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! जे तुमच्याकडे विद्या प्राप्तीसाठी श्रद्धेने येतील व जे जितेन्द्रिय, धार्मिक असतील त्या सर्वांना प्रयत्नपूर्वक विद्यावान व धार्मिक करा. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mitra and Varuna, first and foremost lords of truth and rectitude, whoever approach you with respect and honour you with yajnas and noble words as the first choice of their heart and soul, and offer you tributes of love and reverence with controlled words of honesty and sincerity, you bless them with the wealth of knowledge and honour with a mind and spirit free from the pride of learning.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Guidelines for the teachers and preachers.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers ! you always teach and train well those persons who love and support the truthful persons and prominent among the enlightened, in all spheres. The application of mind to the objects of the senses with Yajnas, use of refined and cultured speech and who received education from you, these earn wealth. With the mind controlled, stuffed with knowledge and free from ignorance, attachment, pride and undue joy, people come and approach you with humility in order to attainment of the exalted state of mind.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The enlightened persons' duty is to select for training only those men, who approach with faith for the acquisition of knowledge and who are self controlled and righteous.

    Foot Notes

    ( अंजते ) कामयन्ते - Desire or love. ( अदृप्यता ) हर्षमोहर हितेन - Free from undue joy ( exultation ) ignorance and attachment.

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