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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 151 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 151/ मन्त्र 9
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    रे॒वद्वयो॑ दधाथे रे॒वदा॑शाथे॒ नरा॑ मा॒याभि॑रि॒तऊ॑ति॒ माहि॑नम्। न वां॒ द्यावोऽह॑भि॒र्नोत सिन्ध॑वो॒ न दे॑व॒त्वं प॒णयो॒ नान॑शुर्म॒घम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रे॒वत् । वयः॑ । द॒धा॒थे॒ । रे॒वत् । आ॒शा॒थे॒ इति॑ । नरा॑ । मा॒याभिः॑ । इ॒तःऽऊ॑ति । माहि॑नम् । न । वा॒म् । द्यावः॑ । अह॑ऽभिः । न । उ॒त । सिन्ध॑वः । न । दे॒व॒ऽत्वम् । प॒णयः॑ । न । आ॒न॒शुः॒ । म॒घम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रेवद्वयो दधाथे रेवदाशाथे नरा मायाभिरितऊति माहिनम्। न वां द्यावोऽहभिर्नोत सिन्धवो न देवत्वं पणयो नानशुर्मघम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रेवत्। वयः। दधाथे। रेवत्। आशाथे इति। नरा। मायाभिः। इतःऽऊति। माहिनम्। न। वाम्। द्यावः। अहऽभिः। न। उत। सिन्धवः। न। देवऽत्वम्। पणयः। न। आनशुः। मघम् ॥ १.१५१.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 151; मन्त्र » 9
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे नरा यौ युवां मायाभिर्माहिनमितऊति वयो रेवद्दधाथे रेवदाशाथे च तयोर्वां देवत्वं द्यावो नाहभिरहानि नोत सिन्धवो नानशुः पणयो मघं च नानशुः ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (रेवत्) प्रशस्तधनवत् (वयः) कमनीयम् (दधाथे) धरथः (रेवत्) बह्वैश्वर्ययुक्तम् (आशाथे) (नरा) नायकौ (मायाभिः) प्रज्ञाभिः (इतऊति) इतः ऊतिः रक्षा यस्मात् तत् (माहिनम्) अत्यन्तं पूज्यं महच्च। माहिन इति महन्ना०। निघं० ३। ३। (न) निषेधे (वाम्) युवयोः (द्यावः) प्रकाशाः (अहभिः) दिनैः (न) (उत) (सिन्धवः) नद्यः (न) (देवत्वम्) विद्वत्त्वम् (पणयः) व्यवहरमाणाः (न) (आनशुः) व्याप्नुवन्ति (मघम्) महदैश्वर्यम् ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    यद्यद्विद्वांसः प्राप्नुवन्ति तत्तदितरे न यान्ति विदुषामुपमा विद्वांस एव भवन्ति नापरे इति ॥ ९ ॥अस्मिन् सूक्ते मित्रावरुणलक्षणोक्तत्वादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेदितव्या ॥इति एकपञ्चाशदुत्तरं शततमं सूक्तमेकविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे (नरा) अग्रगामी जनो ! जो तुम (मायाभिः) मानने योग्य बुद्धियों से (माहिनम्) अत्यन्त पूज्य और बड़ा भी (इतऊति) इधर से रक्षा जिससे उस (वयः) अति रम्य मनोहर (रेवत्) प्रशंसित धनयुक्त ऐश्वर्य को (दधाथे) धारण करते हो और (रेवत्) बहुत ऐश्वर्ययुक्त व्यवहार को (आशाथे) प्राप्त होते हो उन (वाम्) आपकी (देवत्वम्) विद्वत्ता को (द्यावः) प्रकाश (न) नहीं (अहभिः) दिनों के साथ दिन अर्थात् एकतार समय (न) नहीं (उत) और (सिन्धवः) बड़ी-बड़ी नदी-नद (न) नहीं (आनशुः) व्याप्त होते अर्थात् अपने-अपने गुणों से तिरस्कार नहीं कर सकते, जीत नहीं सकते, अधिक नहीं होवे तथा (पणयः) व्यवहार करते हुए जन (मघम्) तुम्हारे महत् ऐश्वर्य को (न) नहीं व्याप्त होते, जीत सकते ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    जिस जिस को विद्वान् प्राप्त करते हैं, उस उस को इतर सामान्य जन प्राप्त नहीं होते, विद्वानों के उपमा विद्वान् ही होते हैं और नहीं होते ॥ ९ ॥इस सूक्त में मित्र-वरुण के लक्षण अर्थात् मित्र-वरुण शब्द से लक्षित अध्यापक और उपदेशक आदि का वर्णन किया, इससे इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ एकावनवाँ सूक्त और इक्कीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    देवत्व व मघ

    पदार्थ

    १. हे प्राणापानो! आप (रेवत्) = ऐश्वर्ययुक्त (वयः) = जीवन को (दधाथे) = धारण करते हो । (रेवत् आशाथे) = ऐश्वर्य सम्पन्न जीवन को ही व्याप्त करते हो। (नरा) = हमें जीवन में आगे ले चलनेवाले प्राणापानो! (मायाभिः) = प्रज्ञानों के साथ (इतः ऊति) = इधर से रक्षणवाले, अर्थात् संसार में फँसने से बचानेवाले (माहिनम्) = [Sovereignty, power, dominion] सामर्थ्य को प्राप्त कराते हो । २. हे प्राणापानो ! (वाम्) = आपके (देवत्वम्) = देवत्व को- प्रकाश को तथा (मघम्) = ऐश्वर्य को (अहभिः) = कितने ही दिनों से- दिनोंदिन प्रयत्न करते हुए (न द्यावः) = न तो ज्ञानी लोग उत और (न सिन्धवः) = न कर्मों में चलनेवाले लोग और न ही (पणयः) = स्तुति की वृत्तिवाले लोग (आनशुः) = प्राप्त कर पाते हैं, यह बात (न) = नहीं है, अर्थात् आपकी साधना से देवत्व व मघ प्राप्त तो होता है, परन्तु कुछ देर में; दिनोंदिन प्रयत्न करते हुए ज्ञानी, क्रियाशील व उपासक लोग इस देवत्व व मघ को प्राप्त करते ही हैं। गीता में कहा गया है कि 'अनिर्विण्ण चित्त' से यह योग करते ही रहना चाहिए। अन्त में यह हमें प्रकाश व ऐश्वर्य को प्राप्त कराएगा ही। ऐश्वर्य व प्रकाश

    भावार्थ

    भावार्थ- यदि दीर्घकाल तक हम प्राणसाधना में प्रवृत्त होंगे तो यह हमें प्राप्त करानेवाली होगी। हम ज्ञानी, क्रियाशील व स्तुति की वृत्तिवाले बनेंगे।

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    विषय

    धनैश्वर्य, बुद्धि, सामर्थ्यादि प्राप्ति का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( रेवत् वयः ) ऐश्वर्य युक्त बल और ज्ञान और दीर्घ जीवन को ( दधाथे ) धारण करो और ( रेवत् ) उसको ऐश्वर्ययुक्त बना कर ( आशाथे ) उपभोग करो । आप दोनों (नरा) नायक होकर ( इतः-ऊति ) इस लोक में रक्षा करने वाले ( माहिनम् ) महान् सामर्थ्य को ( मायाभिः ) अपनी बुद्धियों से ( आशाथे ) प्राप्त करो । ( वां ) आप दोनों के ( देवत्वं ) दानशीलता और ज्ञानप्रकाश को ( अहभिः द्यावः ) प्रकाशों से युक्त सूर्य आदि प्रकाशवान् पदार्थ अथवा तीनों लोक भी ( न आनशुः ) नहीं व्याप सकते । ( उत ) और आपके ( देवत्वं ) विद्वत्तायुक्त ज्ञान-दानशीलता को ( सिन्धवः ) सदा प्रवाहशील नदियां वा समुद्र भी ( न आनशुः ) नहीं प्राप्त हो सकें और ( वां मधम् पणयः न आनशुः ) और आप दोनों के ऐश्वर्य को व्यवहार कुशल पुरुष भी न प्राप्त हो सकें । इत्येकविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः- भुरिक् त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ विराट् जगती । ६, ७ जगती ८, ९ निचृज्जगती च ॥ नवर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी गोष्ट विद्वान प्राप्त करतात ती सामान्य लोक प्राप्त करीत नाहीत विद्वानांची उपमा विद्वानच असतात इतर नव्हे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mitra and Varuna, eternal lord of love and spirit of justice and rectitude, you bear and bring the wealth of health and age of the natural world. Immanent spirits of divinity in the world, leaders of humanity, with your innate powers of protection here on earth, you bring us immense wealth and honour of life. The lights of the day to-day or tomorrow reach not the immensity of that grandeur. The rolling seas swell not to the heights of that immensity. The human voices fail to touch the fringe of that power and that glory.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Importance of enlightened and preachers emphasized.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O leaders ! you uphold ample, desirable and respectable great wealth, with your wisdom. It protects all and that is the purpose behind. Lights, days and nights are not able to measure your divinity nor the rivers. Your wealth can never be achieved by people attached to the worldly pleasures.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Whatever can be achieved by highly learned enlightened persons, cannot be compared with others who use unfair means to secure them.

    Foot Notes

    (मायाभिः) प्रज्ञाभि:- By wisdom With wise provisions. (Griffith). (वयः) कमनीयम् - Desirable. ( घाव:) प्रकाश :- Lights.

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