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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 151 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 151/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    म॒ही अत्र॑ महि॒ना वार॑मृण्वथोऽरे॒णव॒स्तुज॒ आ सद्म॑न्धे॒नव॑:। स्वर॑न्ति॒ ता उ॑प॒रता॑ति॒ सूर्य॒मा नि॒म्रुच॑ उ॒षस॑स्तक्व॒वीरि॑व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒ही । अत्र॑ । म॒हि॒ना । वार॑म् । ऋ॒ण्व॒थः॒ । अ॒रे॒णवः॑ । तुजः॑ । आ । सद्म॑न् । धे॒नवः॑ । स्वर॑न्ति । ताः । उ॒प॒रऽता॑ति । सूर्य॑म् । आ । नि॒ऽम्रुचः॑ । उ॒षसः॑ । त॒क्व॒वीःऽइ॑व ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मही अत्र महिना वारमृण्वथोऽरेणवस्तुज आ सद्मन्धेनव:। स्वरन्ति ता उपरताति सूर्यमा निम्रुच उषसस्तक्ववीरिव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मही। अत्र। महिना। वारम्। ऋण्वथः। अरेणवः। तुजः। आ। सद्मन्। धेनवः। स्वरन्ति। ताः। उपरऽताति। सूर्यम्। आ। निऽम्रुचः। उषसः। तक्ववीःऽइव ॥ १.१५१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 151; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अध्यापकोपदेशकौ युवां तक्ववीरिवात्र मही महिना उपरताति। सूर्यमा निम्रुच उषस इव या अरेणवस्तुजो धेनवः सद्मन्वारमास्वरन्ति ता ऋण्वथः ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (मही) महत्यां मह्याम् (अत्र) (महिना) महिम्ना (वारम्) वर्त्तुमर्हम् (ऋण्वथः) प्राप्नुथः (अरेणवः) दुष्टानप्राप्ताः (तुजः) आदत्ताः (आ) (सद्मन्) सद्मनि गृहे (धेनवः) या धयन्ति पाययन्ति ताः (स्वरन्ति) (ताः) (उपरताति) उपराणां मेघानामवकाशवत्यन्तरिक्षे (सूर्यम्) (आ) (निम्रुचः) नितरां गच्छन्तीः (उषसः) प्रभातान् (तक्ववीरिव) यस्तकान् सेनाजनान् व्याप्नोति तद्वत् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा दुग्धदात्र्यो गावः सर्वान् प्रीणयन्ति तथाऽध्यापकोदेशका विद्यासुशिक्षाः प्रदाय सर्वान् सुखयेयुः ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे पढ़ाने और उपदेश करनेवाले सज्जनो ! तुम दोनों (तक्ववीरिव) जो सेनाजनों को व्याप्त होता उसके समान (अत्र) इस (मही) पृथिवी में (महिना) बड़प्पन से (उपरताति) मेघों के अवकाशवाले अर्थात् मेघ जिसमें आते-जाते उस अन्तरिक्ष में (सूर्यम्) सूर्यमण्डल को (आ, निम्रुचः) मर्यादा माने निरन्तर गमन करती हुई (उषसः) प्रभात वेलाओं के समान (अरेणवः) जो दुष्टों को नहीं प्राप्त (तुजः) सज्जनों ने ग्रहण की हुई (धेनवः) जो दुग्ध पिलाती हैं वे गौयें (सद्मन्) अपने गोड़ों में (वारम्) स्वीकार करने योग्य (आ, स्वरन्ति) सब ओर से शब्द करती हैं (ताः) उनको (ऋण्वथः) प्राप्त होओ ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे दूध देनेवाली गौयें सब प्राणियों को प्रसन्न करती हैं, वैसे पढ़ाने और उपदेश करनेवाले जन विद्या और उत्तम शिक्षा को अच्छे प्रकार देकर सब मनुष्यों को सुखी करें ॥ ५ ॥

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    विषय

    वरणीय वस्तुओं की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (मही) = महनीय– महत्त्वपूर्ण प्राणापान (अत्र) = यहाँ, इस जीवन में (महिना) = अपनी महिमा से (वारम्) = वरणीय वस्तुओं को (ऋण्वथः) = प्राप्त कराते हैं। ये शरीर में स्वास्थ्य, मन में निर्मलता और मस्तिष्क में ज्ञानदीप्ति प्राप्त करानेवाले हैं। २. इस प्राणसाधना से (अरेणवः) = मलिनता से रहित (तुजः) = वासनाओं का संहार करनेवाली [तुज् = to kill] (धेनवः) = ये ज्ञानदुग्ध देनेवाली वेदरूपी गौएँ (सद्मन्) = इस शरीर गृह में (आ) = आश्रित होती हैं। (ताः) = वे वेदवाणीरूप धेनुएँ (उपरताति) = प्रभु की समीपता में [In proximity, near to] प्राप्त कराती हुई (सूर्यम्) = ज्ञानसूर्य को (आस्वरन्ति) = खूब ही दीप्त करती हैं। ये धेनुएँ (निम्रुचः) = सायंकालों में व (उषसः) = उषाकालों में (तक्ववीः इव) = अशुभ वासनारूप चोरों को हमसे दूर करनेवाली होती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ – प्राणसाधना हमें सब वरणीय वस्तुओं को प्राप्त कराती है। यह साधना उन ज्ञानवाणियों को प्राप्त कराती है जो वासनाओं को हमसे दूर भगा देती है ।

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    विषय

    पति पत्नी का शिष्य गुरु का परस्पर चरण, गौओं के समान आचायर्यों का शिष्यों का ज्ञान रसपान तथा पहरेदारवत् रक्षा करने का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे स्त्री पुरुषो ! और गुरु शिष्यजनो ! आप दोनों ( अत्र ) ( मही ) इस पृथ्वी में ( महिना ) महान् सामर्थ्य, विशेष महत्ता से ( वारम् ) वरण करने योग्य और दुःखों के वारण करने वाले एक दूसरे को ( ऋण्वथः ) प्राप्त होवो । और ( सद्मन् ) घर में ( अरेणवः ) दोष रहित, अहिंसक, ( तुजः ) दूध देने वाली और पालन करने वाली ( धेनवः ) दूध पिलाने वाली गौवें जिस प्रकार प्रातः सायं ( स्वरन्ति ) मेघोत्पादक वायु और सूर्य को लक्ष्य करके रंभाते हैं । उसी प्रकार और उनके समान ज्ञान रस का पान कराने वाले, ( अरेणवः ) अहिंसक, निर्दोष, ( तुजः ) व्रतपालक जन और अन्न आदि देने वाली स्त्रिों एवं गौओं के समान सुशील ज्ञान पिपासु शिष्यजन ( तक्वत्रीः इव ) चोरों से रक्षा करने वाले पहरे दारों के समान ( निम्रुचः उषसः ) सब रातों और सब दिनों ( उपरतातिम् ) मेघ के समान ज्ञानवर्षक और ( सूर्यम् ) सूर्य के समान तेजस्वी, ज्ञानप्रकाशक पालक पुरुष और आचार्य को ( स्वरन्ति ) सुखपूर्वक प्राप्त हों, परस्पर एक दूसरे को उत्तम वचन कहें और संकट से चेताते रहें । इधर शिष्यजन गुरुजन ज्ञान को प्राप्त कर विद्याध्ययन करें । इति विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः- भुरिक् त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ विराट् जगती । ६, ७ जगती ८, ९ निचृज्जगती च ॥ नवर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशा दूध देणाऱ्या गाई सर्व प्राण्यांना प्रसन्न करतात तसे अध्यापन करणाऱ्या व उपदेश देणाऱ्या लोकांनी विद्या व सुशिक्षण या द्वारे सर्व माणसांना सुखी करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mitra and Varuna, you come like sun and shower to the great earth here and bring choice gifts. Pure cows unsullied by dust, fertile and generous they are, come home lowing for their calves like the dawns returning with homage to the sun in the vault of heaven, or like the birds on the flight back to the nest.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    In the praise of teacher and preacher.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers ! like a Commander moving his army, you get on this great land and the cows which are not harmed by the wicked. Such cows are lovingly accepted and fed by good cattlemen. The cows give good milk to feed all at the time of sunrise and sunset. These cows on their return from the pastures make pleasant voice. They give the milk at dawn and that goes towards the sun in the sky.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As milch cows feed and please all by giving milk, likewise, the teachers and preachers should make all happy by giving them wisdom and good education.

    Foot Notes

    (अरेणव:) दुष्टान् अप्राप्ताः - Not touched or harmed by the wicked. (तुज :) आदत्ता: - Accepted or taken (उपरताति) उपराणाभववत्यन्तरिक्ष – In the firmament where there are clouds. ( तक्ववी: ) यस्तक्वान् सेनाजनान् व्याप्नोति तद्वत् - Like a commander who approaches his army men.

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