ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 163/ मन्त्र 12
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अश्वोऽग्निः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
उप॒ प्रागा॒च्छस॑नं वा॒ज्यर्वा॑ देव॒द्रीचा॒ मन॑सा॒ दीध्या॑नः। अ॒जः पु॒रो नी॑यते॒ नाभि॑र॒स्यानु॑ प॒श्चात्क॒वयो॑ यन्ति रे॒भाः ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । प्र । अ॒गा॒त् । शस॑नम् । वा॒जी । अर्वा॑ । दे॒व॒द्रीचा॑ । मन॑सा । दीध्या॑नः । अ॒जः । पु॒रः । नी॒य॒ते॒ । नाभिः॑ । अ॒स्य॒ । अनु॑ । प॒श्चात् । क॒वयः॑ । य॒न्ति॒ । रे॒भाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप प्रागाच्छसनं वाज्यर्वा देवद्रीचा मनसा दीध्यानः। अजः पुरो नीयते नाभिरस्यानु पश्चात्कवयो यन्ति रेभाः ॥
स्वर रहित पद पाठउप। प्र। अगात्। शसनम्। वाजी। अर्वा। देवद्रीचा। मनसा। दीध्यानः। अजः। पुरः। नीयते। नाभिः। अस्य। अनु। पश्चात्। कवयः। यन्ति। रेभाः ॥ १.१६३.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 163; मन्त्र » 12
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यो दीध्यानोऽजो वाज्यर्वा देवद्रीचा मनसाऽस्य शसनमुपप्रागाद्येनाऽस्य नाभिः पुरः पश्चाच्च नीयते यं रेभाः कवयोऽनुयन्ति तं सर्वे संसेव्यन्ताम् ॥ १२ ॥
पदार्थः
(उप) (प्र) (अगात्) गच्छति (शसनम्) हिंसनं ताडनम् (वाजी) वेगवान् (अर्वा) अश्व इव (देवद्रीचा) देवान् विदुषोऽञ्चता (मनसा) (दीध्यानः) देदीप्यमानः (अजः) जन्मरहितः (पुरः) पुरस्तात् (नीयते) (नाभिः) बन्धनम् (अस्य) (अनु) (पश्चात्) (कवयः) मेधाविनः (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (रेभाः) विदितशब्दविद्याः ॥ १२ ॥
भावार्थः
नहि कर्षणताडनशिल्पविद्याभ्यो विना अग्न्यादयः पदार्थाः कार्यसाधका जायन्ते ॥ १२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (दीध्यानः) देदीप्यमान (अजः) कारणरूप से अजन्मा (वाजी) वेगवान् (अर्वा) घोड़े के समान अग्नि (देवद्रीचा) विद्वानों का सत्कार करते हुए (मनसा) मन से (अस्य) इस कलाघर के (शसनम्) ताड़न को (उप, प्रागात्) सब प्रकार से प्राप्त किया जाता है जिससे इसका (नाभिः) बन्धन (पुरः) प्रथम से और (पश्चात्) पीछे (नीयते) प्राप्त किया जाता है जिसको (रेभाः) शब्दविद्या को जाने हुए (कवयः) मेधावी बुद्धिमान् जन (अनु, यन्ति) अनुग्रह से चाहते हैं उसको सब सेवें ॥ १२ ॥
भावार्थ
खैचना वा ताड़ना आदि शिल्पविद्याओं के विना अग्नि पदार्थ कार्यों के सिद्ध करनेवाले नहीं हैं ॥ १२ ॥
विषय
प्रभु-स्मरणपूर्वक कार्य
पदार्थ
१. प्रभु का उपासक (वाजी) = शक्तिशाली बना हुआ (शसनम्) = वासनाओं के हिंसन को (उप प्रागात्) = समीपता से प्राप्त करता है। प्रभु की समीपता के कारण यह वासनाओं का संहार कर पाता है तथा (अर्वा) = यह वासनाओं का संहारक (देवद्रीचा मनसा) = प्रभु की ओर जानेवाले मन से- प्रभु में लगे हुए मन से (दीध्यान:) = दीप्त हो उठता है। प्रभु के तेज से उपासक भी तेजस्वी हो जाता है। २. अब इस उपासक से (अजः) = [अज गतिक्षेपणयोः] गति के द्वारा सब बुराइयों को दूर करनेवाला प्रभु (पुरः नीयते) = आगे प्राप्त कराया जाता है, अर्थात् यह सदा प्रभु को अपने सामने आदर्श के रूप में रखता है, उसके समान ही दयालु व न्यायकारी बनने का प्रयत्न करता है। प्रभु को स्मरण करता हुआ उसके गुणों को धारण करने के लिए यत्नशील होता है। यह प्रभु ही (अस्य नाभिः) = इस उपासक की सब क्रियाओं का केन्द्र होता है। इसकी सब क्रियाएँ उसी से सम्बद्ध होती हैं- प्रभु प्राप्ति के उद्देश्य से ही की जाती हैं। यह भोजन भी इसी उद्देश्य से करता है कि प्रभु के इस शरीर को स्वस्थ रखता हुआ मैं प्रभु का प्रिय बनूँगा । ३. ये (कवयः) = क्रान्तदर्शी, तत्त्वज्ञानी (रेभाः) = स्तोता लोग (पश्चात्) = उस प्रभु के पीछे अनुयन्ति अनुकूलता से चलते हैं। अपने जीवन को प्रभु के आदर्श को सामने रखकर पालने का प्रयत्न करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ – शक्तिशाली बनकर हम वासनाओं का संहार करें। प्रभु में मन लगाकर हम दीप्तजीवनवाले हों। प्रत्येक कार्य को प्रभु-स्मरण से प्रारम्भ करें। प्रभु ही हमारे केन्द्र हों। हम ज्ञानी 'स्तोता बनकर अनुकूलता से कार्यों को करनेवाले बनें ।
विषय
सर्वोपास्य प्रभु ।
भावार्थ
( अर्वा ) सर्व व्यापक (वाजी) ज्ञानवान् आत्मा, ( देवद्रीचा मनसा ) विद्वानों को प्राप्त होने योग्य ज्ञान से ( दीध्यानः ) देदीप्यमान होता हुआ ( शसनं उप प्र अगात् ) स्तुति को प्राप्त होता है । वह स्तुति करने योग्य है । वह ( अजः ) जन्म रहित होने से ‘अज’ है । वह ( नाभिः ) सबका प्रबन्धक और बन्धु होने से ‘नाभि’ है । वही ( पुरः नीयते ) सब यज्ञों में पुरोहित के समान सब से आगे मुख्य पद या उपास्य पद पर प्राप्त कराया जाता है । ( अस्य अनु ) उसी को लक्ष्य करके ( रेभाः ) स्तुति कर्त्ता ( कवयः ) विद्वान् जन ( यन्ति ) आगे बढ़ते हैं । विद्वान् जन उस परमात्मा की ही स्तुति करते, उसी को प्राप्त करने का यत्र करते हैं। राजा के पक्ष में देखो ( यजु० २९ । २३ )।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्वोऽग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ६, ७, १३ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, १०, १२ भुरिक् पङ्क्तिः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
आकर्षण व ताडन इत्यादी शिल्पविद्येशिवाय अग्नी पदार्थ कार्याना सिद्ध करू शकत नाही. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, warlike courser, impetuous on the wing goes forward. It goes by all, in advance of all, moving the worlds on the march, inspiring, enlightening, elevating the divinities, thinking, meditating, shining by the light of its own intelligence. Unborn eternal is the source and centre of its power by which it is ignited, geared and steered on the way, and when it moves, poets follow singing and celebrating the beauty of existence, the glory of Divinity in action.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The use of Agni is underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The men should properly utilize the Agni (fire energy). A leading scientist active and quick going like a horse and knowing the eternal nature of his soul with attentive and concentrated mind in order to approach and benefit other enlightened persons-strikes (uses) machinery for various purposes. Its Centre or middle portion is brought forward and backward. Other genius scientists of sound knowledge also follow the footpath of that leading scientist.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Without deep study, striking and technical utilization of elements like fire and electricity etc. can not be used in the accomplishment of various works.
Foot Notes
(शसनम् ) हिंसनम्, ताडनम् = Striking, beating. (रेभा:) विडितशब्दविद्याः = Knowers of the science of sound. (कवयः ) मेधाविनः = Geniuses.
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