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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 163 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 163/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अश्वोऽग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    य॒मेन॑ द॒त्तं त्रि॒त ए॑नमायुन॒गिन्द्र॑ एणं प्रथ॒मो अध्य॑तिष्ठत्। ग॒न्ध॒र्वो अ॑स्य रश॒नाम॑गृभ्णा॒त्सूरा॒दश्वं॑ वसवो॒ निर॑तष्ट ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒मेन॑ । द॒त्तम् । त्रि॒तः । ए॒न॒म् । अ॒यु॒न॒क् । इन्द्रः॑ । ए॒न॒म् । प्र॒थ॒मः । अधि॑ । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । ग॒न्ध॒र्वः । अ॒स्य॒ । र॒श॒नाम् । अ॒गृ॒भ्णा॒त् । सूरा॑त् । अश्व॑म् । व॒स॒वः॒ । निः । अ॒त॒ष्ट॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो अध्यतिष्ठत्। गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात्सूरादश्वं वसवो निरतष्ट ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यमेन। दत्तम्। त्रितः। एनम्। अयुनक्। इन्द्रः। एनम्। प्रथमः। अधि। अतिष्ठत्। गन्धर्वः। अस्य। रशनाम्। अगृभ्णात्। सूरात्। अश्वम्। वसवः। निः। अतष्ट ॥ १.१६३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 163; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे वसवो यूयं यं यमेन दत्तमेनं त्रित इन्द्रोऽयुनक् प्रथम एनमध्यतिष्ठद्गन्धर्वोऽस्य रशनां सूराद्यमश्वं चागृभ्णात्तं निरतष्ट ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (यमेन) नियामकेन (दत्तम्) (त्रितः) संप्लावकः। अत्रौणादिकस्तॄधातोः कितच् प्रत्ययः। (एनम्) पूर्वोक्तमुपस्तुत्यम् (आयुनक्) शिल्पकार्ये नियुञ्जीत (इन्द्रः) विद्युत् (एनम्) अत्र वा छन्दसीत्यप्राप्तं णत्वम्। (प्रथमः) प्रख्यातिमान् (अधि) (अतिष्ठत्) तिष्ठेत् (गन्धर्वः) यो गां पृथिवीं धरति स वायुः (अस्य) (रशनाम्) स्नेहिकां क्रियाम् (अगृभ्णात्) गृह्णीयात् (सूरात्) सूर्यात् (अश्वम्) आशु गमयितारम् (वसवः) चतुर्विंशतिवार्षिकब्रह्मचर्येण कृतविद्याः (निः) (अतष्ट) तक्षेरन् ॥ २ ॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या विद्वदुपदेशप्राप्तां तां विद्यां गृहीत्वा विद्युज्जनितकारणाद्विस्तृतं वायुना धृतं सूर्योद्भावितमाशुगामिनमग्निं प्रयोजयन्ति ते दारिद्र्यच्छेत्तारो जायन्ते ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वसवः) चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य के सेवन से विद्या को प्राप्त हुए सज्जनो ! तुम जिस (यमेन) नियमकर्त्ता वायु से (दत्तम्) दिये हुए (एनम्) इस पूर्वोक्त प्रशंसित अग्नि को (त्रितः) अनेकों पदार्थ वा अनेकों व्यवहारों को तरनेवाला (इन्द्रः) बिजुलीरूप अग्नि (आयुनक्) शिल्प कामों में नियुक्त करे (प्रथमः) वा प्रख्यातिमान् पुरुष (एनम्) इस उक्त प्रशंसित अग्नि का (अध्यतिष्ठत्) अधिष्ठाता हो वा (गन्धर्वः) पृथिवी को धारण करनेवाला वायु (अस्य) इसकी (रशनाम्) स्नेह क्रिया को और (सूरात्) सूर्य से (अश्वम्) शीघ्रगमन करानेवाले अग्नि को (अगृभ्णात्) ग्रहण करे उसको (निरतष्ट) निरन्तर काम में लाओ ॥ २ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य विद्वानों के उपदेश से पाई हुई विद्या को ग्रहण कर बिजुली से उत्पन्न हुए कारण से फैले वायु से धारण किये सूर्य से प्रकट हुए शीघ्रगामी अग्नि को प्रयोजन में लाते हैं, वे दरिद्रपन के नाश करनेवाले होते हैं ॥ २ ॥

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    विषय

    'त्रित, इन्द्र, गन्धर्व, वसु'

    पदार्थ

    १. (यमेन) = उस सर्वनियामक प्रभु से (दत्तम्) = दिये हुए (एनम्) = इस [अश्वम्] इन्द्रियरूप अश्व को (त्रितः) = ज्ञान, कर्म, उपासना का विस्तार करनेवाला 'त्रि-त' [त्रीन् तनोति] (आयुनक्) = इस शरीररूप रथ में जोतता है, अर्थात् यह आलसी न होकर सदा क्रियाशील होता है। इसके इन्द्रियरूप अश्व चरते ही नहीं रहते, सदा जीवन-यात्रा में आगे और आगे बढ़ते हैं । वस्तुतः इस क्रियाशीलता के कारण ही वह 'त्रित' बन पाता है। २. (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (एनम्) = इस इन्द्रियाश्व पर (अध्यतिष्ठत्) = अधिष्ठातृत्व [आधिपत्य, अधिकार] करता है। इस अधिष्ठातृत्व के कारण ही यह (प्रथमः) = अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाला होता है [प्रथ विस्तारे] । ३. (गन्धर्वः) = [गां धारयति] ज्ञान की वाणियों को धारण करनेवाला अस्य = इस इन्द्रियाश्व की रशनाम्- मनरूप लगाम को अगृभ्णात् ग्रहण करता है। मन के धारण से ही इन्द्रियों का धारण होता है। मन को जीत लिया तो इन्द्रियाँ भी जीत ली जाती हैं। मन के द्वारा इन्द्रियों को वशीभूत करके ही यह 'गन्धर्व' बनता है, अर्थात् ज्ञान की वाणियों का धारण कर पाता है। ४. (वसवः) = अपने निवास को उत्तम बनानेवाले (वसु अश्वम्) = इस इन्द्रियाश्व को (सूरात्) = सूर्य से (निरतष्ट) = [to form, to create] बनाते हैं। सूर्य से इस अश्व के बनाने का अभिप्राय यह है कि जैसे सूर्य निरन्तर गतिशील है, उसी प्रकार इन इन्द्रियाश्वों को भी यह वसु गतिशील बनाता है। यह गतिशीलता ही इसके निवास को उत्तम बनाकर इसे वसु बनाती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - इन्द्रियाश्व को शरीर में जोतनेवाला 'त्रित' बनता है। इसका अधिष्ठाता 'इन्द्र' होता है। इसकी मनरूप लगाम को धारण करनेवाला 'गन्धर्व' बनता है, सूर्य की भाँति इसे गतिशील रखनेवाला 'वसु' होता है ।

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    विषय

    यम से दिये अश्व को त्रित का जोड़ना और इन्द्र का उस घर बैठने और गन्धर्व का लगाम पकड़ने का सत्यार्थ ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार अश्व को रथ में जोड़ा जाता है ऐश्वर्यवान् पुरुष उसकी सवारी करता है और एक उत्तम पुरुष उसकी लगाम थामता है, विद्वान्जन इस प्रकार अश्व को सधाने वाले से प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार ( यमेन ) उत्तम यम नियमों के पालन करने और उत्तम संयम कराने वाले गुरु या पिता द्वारा ( दत्तं ) दिये गये ( एनं ) इस योग्य शिष्य को ( त्रितः ) अज्ञान सागर से पार उतरने में समर्थ, और ( त्रितः ) ज्ञान और कर्म और उपासना तीनों में सिद्ध एवं तीनों वेदों में पारंगत गुरु, आचार्य ( एनम् ) इसको ( आयुनक् ) सन्मार्ग में लगावे । ( प्रथमः ) सबसे श्रेष्ठ (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान्, अज्ञान का नाशक, तेजस्वी आचार्य ही ( एनं ) इस पर ( अधि अतिष्ठत् ) शासन करे । और ( गन्धर्वः ) गौ अर्थात् वेद वाणी को धारण करने वाला विद्वान् आचार्य ही ( अस्य ) उसको ( रशनाम् ) व्यापक विद्या प्राप्त करावे और वश करने वाली मर्यादा को ( अगृभ्णात् ) अपने अधीन रखे । इस प्रकार ( वसवः ) जिन विद्वान् पुरुषों के अधीन शिष्यगण ब्रह्मचर्य व्रत पालन करते हुए निवास करें वे विद्वान् जन या प्रजाजन मिल कर ( सूरात् ) सूर्य के समान तेजस्वी, ज्ञानवान्, सबके प्रेरक, पिता के समान उत्पादक गुरु से ही ( अश्वं ) सर्व विद्या के ज्ञाता, विद्वान् ब्रह्मचारी को ( निर् अतष्ट ) उत्पन्न करते और प्राप्त करते हैं । ( राज्यपक्ष में देखो यजु० २९ । १३ )

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्वोऽग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ६, ७, १३ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, १०, १२ भुरिक् पङ्क्तिः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे विद्वानांच्या उपदेशाने प्राप्त झालेली विद्या ग्रहण करतात. विद्युतपासून उत्पन्न झालेल्या कारणामुळे विस्तृत वायू धारण करणाऱ्या सूर्यापासून प्रकट होणाऱ्या शीघ्रगामी अग्नीला प्रयोजनात आणतात ती दारिद्र्याचा नाश करणारी असतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This energy is the gift of the universal controller Yama, a product of Vayu, the first elemental form of energy bom of akasha, ether, in the process of primal evolution guided by the eternal law-giver, the creator. Let Trita, master of the three modes of nature, sattva, rajas and tamas, i.e., thought, energy and matter, plan the use of it in various ways. Let Indra, the electrical expert, use it as power first. Let Gandharva, specialist of earth sciences, hold the control of it in gravitational, magnetic and heat forms. And let the Vasus, graduate researchers of life sciences, extract this energy from the light of the sun.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of science and technology are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Vasus ( learned persons ) ! you have observed Brahmacharya at least up to the age of 24 years. The air creates fire from the earth, water, space and famous energy and yokes it to useful ends. In conjunction with air diffused and well understood energy, a distinguished scientist assumes sway everywhere. The air receives, the rays of the Sun, the protector of the earth, and thus makes subtle air with the touch of the Sun the fast moving.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons remove poverty who acquire knowledge of the fire energy and the air from great scientists and utilize it methodically for various purposes.

    Foot Notes

    ( विनतः ) संप्लावकः = That which accomplishes various works. ( त्नित्नभ्य: ) पृथिवीजलान्तरिक्षेभ्यः = From three-earth, water and space. (इन्द्रः) विद्युत् = Electricity (गन्धर्व:) म गां पृथिवीं धरति सः वायु = Air that upholds the earth. ( अश्वम् ) आशुगमयितारम् अग्निम् = Fire which enables a speedy locomotion.

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