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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 163 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 163/ मन्त्र 7
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अश्वोऽग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अत्रा॑ ते रू॒पमु॑त्त॒मम॑पश्यं॒ जिगी॑षमाणमि॒ष आ प॒दे गोः। य॒दा ते॒ मर्तो॒ अनु॒ भोग॒मान॒ळादिद्ग्रसि॑ष्ठ॒ ओष॑धीरजीगः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत्र॑ । ते॒ । रू॒पम् । उ॒त्ऽत॒मम् । अ॒प॒श्य॒म् । जिगी॑षमाणम् । इ॒षः । आ । प॒दे । गोः । य॒दा । ते॒ । मर्तः॑ । अनु॑ । भोग॑म् । आन॑ट् । आत् । इत् । ग्रसि॑ष्ठः । ओष॑धीः । अ॒जी॒ग॒रिति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्रा ते रूपमुत्तममपश्यं जिगीषमाणमिष आ पदे गोः। यदा ते मर्तो अनु भोगमानळादिद्ग्रसिष्ठ ओषधीरजीगः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अत्र। ते। रूपम्। उत्ऽतमम्। अपश्यम्। जिगीषमाणम्। इषः। आ। पदे। गोः। यदा। ते। मर्तः। अनु। भोगम्। आनट्। आत्। इत्। ग्रसिष्ठः। ओषधीः। अजीगरिति ॥ १.१६३.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 163; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे विद्वन् यदा ग्रसिष्ठो मर्त्तोऽनुभोगमानट् तदादिदोषधीरजीगः। यथाऽत्राऽहं ते जिगीषमाणमुत्तमं रूपमापश्यं गोः पदे तं इषः प्राप्नुयाम् तथा त्वमप्येवं विधायैतत्प्राप्नुहि ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (अत्र) अस्मिन् विद्यायोगाभ्यासव्यवहारे। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (ते) तव (रूपम्) स्वरूपम् (उत्तमम्) उत्कृष्टम् (अपश्यम्) पश्येयम् (जिगीषमाणम्) जेतुमिच्छन्तम् (इषः) अन्नानि (आ) (पदे) प्राप्तव्ये (गोः) पृथिव्याः (यदा) यस्मिन् काले (ते) तव (मर्त्तः) मनुष्यः (अनु) (भोगम्) (आनट्) प्राप्नोति। अत्र नक्षतेर्गतिकर्मणो लङि छन्दस्यपि दृश्यत इत्याडागमः। नक्षतीति गतिकर्मा। निघं० २। १४। (आत्) अनन्तरम् (इत्) एव (ग्रसिष्ठः) अतिशयेन ग्रसिता (ओषधीः) यवादीन् (अजीगः)। भृशं प्राप्नुयात् ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    उद्योगिनमेव भोगा उपलभन्ते नालसं ये प्रयत्नेन पदार्थविद्यां गृह्णन्ति तेऽत्युत्तमां प्रतिष्ठां लभन्ते ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! (यदा) जब (ग्रसिष्ठः) अतीव खानेवाला (मर्त्तः) मनुष्य (अनु, भोगम्) अनुकूल भोग को (आनट्) प्राप्त होता है तब (आत्, इत्) उसी समय (ओषधीः) यवादि ओषधियों को (अजीगः) निरन्तर प्राप्त हो, जैसे (अत्र) इस विद्या और योगाभ्यास व्यवहार में मैं (ते) तुम्हारे (जिगीषमाणम्) जीतने की इच्छा करनेवाले (उत्तमम्) उत्तम (रूपम्) रूप को (आ, अपश्यम्) अच्छे प्रकार देखूँ और (गोः) पृथिवी के (पदे) पाने योग्य स्थान में (ते) आपके (इषः) अन्नादिकों को प्राप्त होऊँ वैसे आप भी ऐसा विधान कर इस उक्त व्यवहारादि को प्राप्त होओ ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    उद्योगी पुरुष ही को अच्छे-अच्छे पदार्थ भोग प्राप्त होते हैं किन्तु आलस्य करनेवाले को नहीं। जो यत्न के साथ पदार्थविद्या का ग्रहण करते हैं, वे अति उत्तम प्रतिष्ठा को प्राप्त होते हैं ॥ ७ ॥

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    विषय

    प्रभु-दर्शन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्रानुसार सात्त्विक मार्ग से चलनेवाला व्यक्ति कहता है कि - (अत्र) = यहाँ, इस सात्त्विक मार्ग में ते आपके (उत्तमं रूपम्) = पुरुषोत्तमरूप को- सात्त्विक आनन्दरूप को (आ अपश्यम्) = समन्तात् देखता हूँ । (जिगीषमाणम्) = आपका यह रूप मेरी सब वासनाओं को जीतने की कामना करता है। आपके रूप को देखने पर मेरी सब वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं। आपके इस रूप को देखने पर (गो: पदे) = वेदवाणी के शब्दों में मैं (इषः आ) = [अपश्यम्] अपने जीवन के लिए प्राप्त होनेवाली प्रेरणाओं को देखता हूँ। २. इन प्रेरणाओं के अनुसार चलनेवाला (ते मर्तः) = तेरा व्यक्ति– तेरा उपासक (यदा) = जब (अनु) = यज्ञ करने के पश्चात् यज्ञशेष के रूप में (भोगम् आनट्) = भोगों को प्राप्त करता है (आत् इत्) = तो यह (ग्रसिष्ठः) = सर्वोत्तम भोजन करनेवाला होता है। बिना यज्ञ किये, स्वयं सब खा जानेवाला तो 'केवलाघो भवति केवलादी'– शुद्ध पाप को ही खाता है। यज्ञशेष का भोक्ता अमृत का सेवन करता है। यज्ञशेष ही अमृत है । ३. यह तेरा उपासक (ओषधीः अजीगः) = ओषधियों का ही सेवन करता है, वानस्पतिक भोजन ही इसे प्रिय होते हैं। प्रभु-भक्त कभी भी मांसाहार की ओर नहीं झुक सकता ।

    भावार्थ

    भावार्थ – सात्त्विक मार्ग पर चलनेवाला प्रभु के सर्वोत्तम रूप का दर्शन करता है। यह वेदवाणी की प्रेरणा के अनुसार यज्ञशेष का सेवन करता हुआ मांस-भोजन से सदा दूर रहता है।

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    विषय

    शिष्य का कर्त्तव्य अध्यात्म में भक्त का उपास्य-आत्मदर्शन ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुष, हे शिष्य ! ते आत्मन् ! ( अत्र ) इस गुरु गृह में ( गोः पदे ) वेद वाणी के प्राप्त करने के अवसर में और योग द्वारा (गोः पदे) इन्द्रिय गण को प्राप्त अर्थात् दमन करने के अवसर में ( इषः ) समस्त कामनाओं को ( जिगीषमाणम् ) विजय करने की इच्छा करते हुए, ( ते ) तेरे ( उत्तमम् ) सबसे उत्तम ( रूपम् ) कान्तिमान् स्वरूप को ( अपश्यम् ) देखूं, साक्षात् करूं । ( यदा ) जब ( मर्तः ) मनुष्य (ते) तेरे ( भोगम् ) भोजन करने योग्य पदार्थ को ( अनु आनट् ) अनुकूल होकर आदर से प्राप्त करावे ( आत् इत् ) तभी तू ( ग्रसिष्ठः ) उत्तम रीति से ग्रसने वाला, भूख से युक्त होकर ( ओषधीः ) उत्तम अन्नादि ओषधियों का ( अजीगः ) सेवन कर । आत्मा के पक्ष में—मैं कामनाओं पर विजय पाते हुए तेरे उत्तम रुचिकर स्वरूप का साक्षात् करूं । तेरा मरण स्वभाव वाला देह भी जब भोग, भोजन अथवा अपने पालन करने के साधन को प्राप्त करे तब तू अन्नादि ओषधियों का भोजन कर । राजा के पक्ष में देखो ( यजु० २९। १८)

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्वोऽग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ६, ७, १३ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, १०, १२ भुरिक् पङ्क्तिः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उद्योगी पुरुषाला चांगल्या चांगल्या पदार्थांचे भोग प्राप्त होतात, परंतु आळशी माणसाला नाही. जे प्रयत्नपूर्वक पदार्थविद्येचे ग्रहण करतात त्यांना अत्यंत प्रतिष्ठा लाभते. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, O vital fire and creativity of life, I have seen that higher form, spirit and character of yours which is eager to conquer, consume and create the food and energy on the floor of the earth since, when the mortal humanity blest with food and enjoyment, and as a result of your holy ambition, eats their fill, then, O consumer and creator, you beget the herbs and juices for rectification of the human faults and weaknesses.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The scholars are addressed here.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! when a man with good appetite and normal digestive power receives delicious edibles, like the barley and other grains you swallow them. O wise person ! I behold your beautiful form in this dealing of the acquisition of knowledge and practice of Yoga, eager to get victory over internal and external foes and to enjoy the food produced here from the earth. Likewise, you should also do.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Only industrious persons receive proper enjoyment and not lazy men. Those who acquire scientific knowledge with labor, are honored everywhere.

    Foot Notes

    (अत्र) अस्मिन् विद्यायोगाभ्यासव्यवहारे अत्र ऋचि तुनधेति दीर्घः = In this dealing of the acquisition of knowledge and practice of yoga. (इष:) अन्नानि = Barley and other grains.

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