ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 163/ मन्त्र 5
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अश्वोऽग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒मा ते॑ वाजिन्नव॒मार्ज॑नानी॒मा श॒फानां॑ सनि॒तुर्नि॒धाना॑। अत्रा॑ ते भ॒द्रा र॑श॒ना अ॑पश्यमृ॒तस्य॒ या अ॑भि॒रक्ष॑न्ति गो॒पाः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मा । ते॒ । वा॒जि॒न् । अ॒व॒ऽमार्ज॑नानि । इ॒मा । श॒फाना॑म् । स॒नि॒तुः । नि॒ऽधाना॑ । अत्र॑ । ते॒ । भ॒द्राः । र॒श॒नाः । अ॒प॒श्य॒म् । ऋ॒तस्य॑ । याः । अ॒भि॒ऽरक्ष॑न्ति । गो॒पाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा ते वाजिन्नवमार्जनानीमा शफानां सनितुर्निधाना। अत्रा ते भद्रा रशना अपश्यमृतस्य या अभिरक्षन्ति गोपाः ॥
स्वर रहित पद पाठइमा। ते। वाजिन्। अवऽमार्जनानि। इमा। शफानाम्। सनितुः। निऽधाना। अत्र। ते। भद्राः। रशनाः। अपश्यम्। ऋतस्य। याः। अभिऽरक्षन्ति। गोपाः ॥ १.१६३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 163; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे वाजिन् यानीमा ते शफानामवमार्जनानि यानिमा सनितुर्निधाना सन्ति यास्त ऋतस्य भद्रा रशना गोपा अभिरक्षन्ति च तान् पूर्वोक्तानत्राऽहमपश्यम् ॥ ५ ॥
पदार्थः
(इमा) इमानि (ते) तव (वाजिन्) विज्ञानवन् (अवमार्जनानि) शोधनानि (इमा) इमानि (शफानाम्) शं फणन्ति तेषाम्। अत्राऽन्येभ्योऽपि दृश्यत इति डः। (सनितुः) संविभाजकस्य (निधाना) निधानानि (अत्र) अत्र। ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (ते) तस्य (भद्राः) भजनीयाः (रशनाः) आस्वादनीयाः (अपश्यम्) पश्येयम् (ऋतस्य) सत्यस्य कारणस्य (याः) (अभिरक्षन्ति) सर्वतः पालयन्ति (गोपाः) रक्षकाः ॥ ५ ॥
भावार्थः
येऽनुक्रमात् सर्वेषां पदार्थानां कारणं संयोगं च जानन्ति ते पदार्थवेत्तारो भवन्ति ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वाजिन्) विज्ञानवान् सज्जन ! जो (इमा) ये (ते) आपके (शफानाम्) कल्याण को देनेवाले व्यवहारों के (अवमार्जनानि) शोधन वा जो (इमा) ये (सनितुः) अच्छे प्रकार विभाग करते हुए आपके (निधाना) पदार्थों का स्थापन करते हैं और (याः) जो (ते) आपके (ऋतस्य) सत्य कारण के (भद्राः) सेवन करने और (रशनाः) स्वाद लेने योग्य पदार्थों को (गोपाः) रक्षा करनेवाले (अभिरक्षन्ति) सब ओर से पालते हैं उन सब पदार्थों को (अत्र) यहाँ मैं (अपश्यम्) देखूँ ॥ ५ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य अनुक्रम अर्थात् एक के पीछे एक, एक के पीछे एक ऐसे क्रम से समस्त पदार्थों के कारण और संयोग को जानते हैं, वे पदार्थवेत्ता होते हैं ॥ ५ ॥
विषय
स्वर:व्रतों द्वारा पवित्रता व शान्ति
पदार्थ
१. गतमन्त्र में वर्णित व्रतबन्धनों द्वारा शक्तिशाली बननेवाले जीव ! (इमा) = ये व्रत ही तेरे (अवमार्जनानि) = जीवन को परिमार्जित करनेवाले हैं। व्रतों से जीवन पवित्र बनता है । (इमा) = ये व्रत ही (सनितुः) = संविभागपूर्वक खानेवाले (ते) = तुझमें (शफानाम्) = शान्तियों के (निधाना) = स्थापित करनेवाले होते हैं। व्रती जीवनवाला व्यक्ति लोभ से ऊपर उठ जाने के कारण सदा सबके साथ बाँटकर खाता है, परिणामतः लड़ाई-झगड़े होते ही नहीं और जीवन शान्त बना रहता है। २. (अत्र) = यहाँ, इन व्रतों में ही (ते) = तेरी (भद्राः) = कल्याणकर (रशनाः) = मेखलाओं– कटिबन्धनों को आ (अपश्यम्) = देखता हूँ, अर्थात् तू इन पुण्यव्रतों का दृढ़ता से पालन करता है। (याः) = ये कटिबन्धन- दृढ़ निश्चय (ऋतस्य) = तेरे सत्यव्रतों का (अभिरक्षन्ति) = रक्षण करते हैं और (गोपा:) = तेरी इन्द्रियों का रक्षण करनेवाले होते हैं। व्रत इन्द्रियों को विषयों में फँसने से बचाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ – व्रतों में ही जीवन की पवित्रता है, शान्ति है । इन व्रतों का दृढ़ निश्चय से पालन करने पर इन्द्रियाँ सुरक्षित रहती हैं और विषय पङ्क में फँसने से बच जाती हैं।
विषय
आत्म-शुद्धयर्थ व्रतों का आचरण
भावार्थ
हे ( वाजिन् ) बलवीर्यसम्पन्न ! हे ज्ञानवन् ! विद्वन् ! ( ते ) तेरे लिये ( इमा ) ये ( अवमार्जनानि ) पापों को दूर करने और आत्मा को शुद्ध करने वाले व्रत आदि नाना उपाय हैं। और (इमा) ये ( सनितुः ) तुझे शान्ति का ज्ञान प्रदान करने तथा तेरे सेवा करने योग्य उपास्य गुरु के (शफानां) शान्तिदायक उपदेश करने वाले ज्ञान वचनों या आचरणों के ( निधाना ) खजानों के समान ज्ञान भण्डार हैं । (अत्र) इस गुरु के अधीन, इस आश्रम में ही ( ते ) तेरे योग्य ( भद्रा ) सुख और कल्याणकारिणी, ( रशनाः ) रस्सियों के समान उत्तम मर्यादाओं और ( रशनाः ) व्यापक विद्याओं या वाणियों को मैं ( अपश्यम् ) साक्षात् देख रहा हूं । ( याः ) जिनका ( ऋतस्य ) सत्य ज्ञान और वेद की ( गोपाः ) रक्षा करने वाले विद्वान् जन ( अभिरक्षन्ति ) सब प्रकार से पालन करते हैं । ( राजा पक्ष में यजु० २९ । १६ ) । इत्यकादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
‘शफा’—शं फणन्ति इति शफाः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्वोऽग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ६, ७, १३ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, १०, १२ भुरिक् पङ्क्तिः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे अनुक्रमाने अर्थात् एका पाठोपाठ एक अशा क्रमाने संपूर्ण पदार्थांचे कारण व संयोग जाणतात ते पदार्थवेत्ते असतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Vajin, tempestuous power-input of the yajna of existence, these are the stages of your refinement, contentive concentrations of the applicable values of energy which are positive gifts of wealth and well-being for humanity. I wish and pray I may see those positive lines of natural and scientific developments of yours which observe, preserve and advance the process of life’s yajnic evolution.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of men of wisdom given.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned Commander of the army ! I look after the bath arrangements of these your horses and their stables for the protection of their horses. Moreover, in this army, I see the auspicious reins of your horses. They save us from misfortunes and direct the right passage. So you should also see them.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who know the origin and proper use of all objects, become well-versed in science.
Foot Notes
(अवमार्जनानि) शोधनानि (शफानाम् ) शंफणन्ति तेषाम् = Performers of the welfare. (रशना:) आस्वादनीया: = Tasteful purifying and powers or processes.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal