ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 163/ मन्त्र 9
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अश्वोऽग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
हिर॑ण्यशृ॒ङ्गोऽयो॑ अस्य॒ पादा॒ मनो॑जवा॒ अव॑र॒ इन्द्र॑ आसीत्। दे॒वा इद॑स्य हवि॒रद्य॑माय॒न्यो अर्व॑न्तं प्रथ॒मो अ॒ध्यति॑ष्ठत् ॥
स्वर सहित पद पाठहिर॑ण्यऽशृ॒ङ्गः । अयः॑ । अ॒स्य॒ । पादाः॑ । मनः॑ऽजवाः॑ । अव॑रः । इन्द्रः॑ । आ॒सी॒त् । दे॒वाः । इत् । अ॒स्य॒ । ह॒विः॒ऽअद्य॑म् । आ॒य॒न् । यः । अर्व॑न्तम् । प्र॒थ॒मः । अ॒धि॒ऽअति॑ष्ठत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्यशृङ्गोऽयो अस्य पादा मनोजवा अवर इन्द्र आसीत्। देवा इदस्य हविरद्यमायन्यो अर्वन्तं प्रथमो अध्यतिष्ठत् ॥
स्वर रहित पद पाठहिरण्यऽशृङ्गः। अयः। अस्य। पादाः। मनःऽजवाः। अवरः। इन्द्रः। आसीत्। देवाः। इत्। अस्य। हविःऽअद्यम्। आयन्। यः। अर्वन्तम्। प्रथमः। अधिऽअतिष्ठत् ॥ १.१६३.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 163; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यो हिरण्यशृङ्गो यस्याऽस्य मनोजवा अयः पादाः सन्ति सोऽवर इन्द्र आसीत्। यः प्रथमोऽर्वन्तमध्यतिष्ठद्यस्याऽस्य हविरद्यमिद्देवा आयन् स बहुव्यापी विद्युद्विधोऽग्निरस्तीति विजानीत ॥ ९ ॥
पदार्थः
(हिरण्यशृङ्गः) हिरण्यानि तेजांसि शृङ्गाणीव यस्य सः (अयः) प्राप्तिसाधकाः धातवः (अस्य) विद्युद्रूपस्याऽग्नेः (पादाः) पद्यन्ते गच्छन्ति यैस्त इव (मनोजवाः) मनोवद्वेगवन्तः (अवरः) अर्वाचीनः (इन्द्रः) सूर्य्यः (आसीत्) अस्ति (देवाः) विद्वांसो भूम्यादयो वा (इत्) एव (अस्य) (हविरद्यम्) अत्तुं योग्यम् (आयन्) आप्नुवन्ति (यः) (अर्वन्तम्) वेगवन्तमग्निमश्वम् (प्रथमः) प्रख्यातः (अध्यतिष्ठत्) अधिष्ठाता भवति ॥ ९ ॥
भावार्थः
अस्मिञ्जगति त्रिधाऽग्निर्वर्त्तते एकोऽतिसूक्ष्मः कारणाख्यो द्वितीयः सूक्ष्मो मूर्त्तद्रव्यव्यापी तृतीयः स्थूलः सूर्यादिस्वरूपो य इमं गुणकर्मस्वभावतो विज्ञाय संप्रयुञ्जते ते सततं सुखिनो भवन्ति ॥ ९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो ऐसा है कि (हिरण्यशृङ्गः) जिसके तेजःप्रकाश शृङ्गों के समान हैं तथा जिस (अस्य) इस बिजुलीरूप अग्नि के (मनोजवाः) मन के समान वेगवाले (अयः) प्राप्तिसाधक धातु (पादाः) जिनसे चलें उन पैरों के समान है, वह (अवरः) एक निराला (इन्द्रः) सूर्य (आसीत्) है और (यः) जो (प्रथमः) विख्यात, (अर्वन्तम्) वेगवाले अश्वरूप अग्नि का (अध्यतिष्ठत्) अधिष्ठाता होता जिस (अस्य) इसके सम्बन्ध में (हविरद्यम्) खाने योग्य होमने के पदार्थ (इत्) ही को (देवाः) विद्वान् वा भूमि आदि तेंतीस देव (आयन्) प्राप्त हैं वह बहुतों में व्याप्त होनेवाला बिजुली के समान अग्नि है ऐसा जानो ॥ ९ ॥
भावार्थ
इस जगत् में तीन प्रकार का अग्नि है। एक अति सूक्ष्म जो कारण रूप कहाता, दूसरा वह जो सूक्ष्म मूर्त्तिमान् पदार्थों में व्याप्त होनेवाला और तीसरा स्थूल सूर्यादि स्वरूपवाला, जो इसको गुण, कर्म, स्वभाव से जानकर इसका अच्छे प्रकार प्रयोग करते हैं, वे निरन्तर सुखी होते हैं ॥ ९ ॥
विषय
'हिरण्यशृङ्ग, अयः पाद, मनोजवा'
पदार्थ
१. (यः) = जो (प्रथमः) = अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाला (अर्वन्तम् अधि अतिष्ठत्) = इन्द्रियाश्व का अधिष्ठाता बनता है, अर्थात् इन्द्रियों को अपने वश में करता है यह (हिरण्यशृङ्गः) = [हिरण्यं वै ज्योतिः] ज्योतिर्मय शिखरवाला होता है। इसका मस्तिष्क ज्ञान से परिपूर्ण होता है। (अस्य पाद:) = इसके पाँव (अयः) = लोहे के होते हैं, अर्थात् यह चलने में थक नहीं जाता। 'मस्तिष्क उज्ज्वल, पाँव दृढ़' यह इसका जीवन होता है। २. प्रभु परमैश्वर्यशाली होने से इन्द्र हैं, यह भी (अवरः इन्द्रः) = छोटा इन्द्र ही बनता है और (मनोजवा आसीत्) = मन के वेगवाला होता है। इसकी मानस शक्तियाँ शिथिल नहीं पड़ जातीं । ३. (देवा:) = विद्वान् अतिथि (इत्) = निश्चय से (अस्य) = इसके (अद्यं हविः) = खाने योग्य सात्त्विक भोजनों को आयन् प्राप्त होते हैं, अर्थात् इसके घर पर अतिथियों का आना-जाना बना रहता है। इनका आना-जाना इसे सदा उत्कृष्ट प्रेरणा प्राप्त कराता है।
भावार्थ
भावार्थ - जितेन्द्रिय पुरुष दीप्त ज्ञानवाला, दृढ़ शरीरवाला व प्रबल मानस शक्तियोंवाला बनता है।
विषय
आचार्य, सर्वोच्च पद । अश्व पक्ष की योजना ।
भावार्थ
( अस्य ) इस विद्वान् के (पादाः) प्राप्त होने योग्य (अयः) ज्ञान के साधन ( मनोजवाः ) मन के समान वेगवान् और ( मनोजवाः ) ज्ञान मार्ग में वेग से जाने वाले हों। (हिरण्यशृङ्गः इन्द्रः ) सुवर्णादि को शिरपर रखने वाला ऐश्वर्यवान् धनाढ्य पुरुष भी ( अस्य अवरः आसीत् ) इसके नीचे की श्रेणी का है । और ( यः ) जो आचार्य (प्रथमः) उससे भी अधिक श्रेष्ठ होकर ( अर्वन्तं ) ज्ञानवान् शिष्य के भी ( अधि अतिष्ठत् ) ऊपर अधिष्ठाता होकर विराजता है ( अस्य इत् ) उसको ( हविरद्यम् ) अन्नादि भोग्य पदार्थों को ( देवाः ) दानशील पुरुष ( आयन् ) प्राप्त करावें । अथवा—( यः प्रथमः अर्वन्तम् अधि अतिष्ठत् स इन्द्रः अवरः आसीत् ) जो प्रथम उस विद्वान् शिष्य पर अध्यक्ष होकर विराजता है (अवरः) उससे कोई अन्य श्रेष्ठ नही । अतः वह आचार्य ही सर्व श्रेष्ठ है वह (हिरण्य-शृङ्गः ) हित, रमणीय, शान्तिदायक स्वभाव का हो । ( अस्य पादा अयः ) उसके धारण या ज्ञान कराने वाले उपाय ‘अय’ अर्थात् ज्ञानदायी, और सब पुरुषार्थों को प्राप्त करानेवाले और ( मनोजवाः ) मनन द्वारा प्राप्त करने योग्य हैं । ( २ ) अश्व के पक्ष में—शिर पर सुवर्ण की कलगी, चरण वेगवान् हैं, राजा जो उस पर चढ़ता है वह भी ‘अ-वर’ है, उससे कोई उत्तम नहीं है। विजयेच्छुक जन उसके दिये अन्नादि भोग को प्राप्त करते हैं। राजा के पक्ष में—देखो (यजु० २९। २० )।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्वोऽग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ६, ७, १३ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, १०, १२ भुरिक् पङ्क्तिः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या जगात तीन प्रकारचे अग्नी आहेत. एक अति सूक्ष्म जो कारणरूप म्हणविला जातो. दुसरा सूक्ष्म मूर्तिमान पदार्थात व्याप्त असतो व तिसरा स्थूल सूर्य इत्यादी स्वरूपाच्या रूपात असतो जे त्याच्या गुण, कर्म स्वभावाला जाणून त्याचा चांगल्या प्रकारे उपयोग करतात ते निरन्तर सुखी होतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Golden headed and lustrous is this agni, energy and power of nature, with the wheels of metals of desired gravity for motion and speed. The noblest divinities love to win and enjoy the cherished gifts of this agni. Indra, constant, ancient and yet the latest lord of the speed of mind is the exceptional master who first of all rides and controls this dynamic energy of nature’s motive power.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should seek that Agni in the form of energy etc. which has splendors like the horse. It's feet (means of movement) are quick like the mind and are made of varying metals etc. It ( electricity or sun ) in lustrous like lightning. Learned scientists use it properly and methodically, when a famous person rides over this horse in the form of Agni (fire, electricity).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Agni of three kinds in this world. The first is in causal, very subtle form (2) The second is in its subtle form pervading gross objects like electricity (3) The third is gross in the form of material fire and the sun. Those men enjoy happiness who utilize it methodically, having known its attributes, working and nature.
Foot Notes
( अर्वन्तम् ) वेगवन्तम् अग्निम् अश्वम् = The rapid horse in the form of Agni (fire, electricity etc.)
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