ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 163/ मन्त्र 3
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अश्वोऽग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
असि॑ य॒मो अस्या॑दि॒त्यो अ॑र्व॒न्नसि॑ त्रि॒तो गुह्ये॑न व्र॒तेन॑। असि॒ सोमे॑न स॒मया॒ विपृ॑क्त आ॒हुस्ते॒ त्रीणि॑ दि॒वि बन्ध॑नानि ॥
स्वर सहित पद पाठअसि॑ । य॒मः । असि॑ । आ॒दि॒त्यः । अ॒र्व॒न् । असि॑ । त्रि॒तः । गुहे॑न । व्र॒तेन॑ । असि॑ । सोमे॑न । स॒मया॑ । विऽपृ॑क्तः । आ॒हुः । ते॒ । त्रीणि॑ । दि॒वि । बन्ध॑नानि ॥
स्वर रहित मन्त्र
असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन। असि सोमेन समया विपृक्त आहुस्ते त्रीणि दिवि बन्धनानि ॥
स्वर रहित पद पाठअसि। यमः। असि। आदित्यः। अर्वन्। असि। त्रितः। गुहेन। व्रतेन। असि। सोमेन। समया। विऽपृक्तः। आहुः। ते। त्रीणि। दिवि। बन्धनानि ॥ १.१६३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 163; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यो यमोऽस्यादित्योऽस्यर्वन्नसि गुह्येन व्रतेन त्रितोऽसि सोमेन समया विपृक्तोऽसि ते तस्य दिवि त्रीणि बन्धनान्याहुरेनं यूयं वित्त ॥ ३ ॥
पदार्थः
(असि) अस्ति। अत्र सर्वत्र पुरुषव्यत्ययः। (यमः) नियन्ता (असि) अस्ति (आदित्यः) अदितावन्तरिक्षे भवः (अर्वन्) सर्वत्र प्राप्तः (असि) अस्ति (त्रितः) सन्तारकः (गुह्येन) गोप्येन (व्रतेन) शीलेन (असि) अस्ति (सोमेन) चन्द्रेणौषधिगणेन वा (समया) सामीप्ये (विपृक्तः) स्वरूपेण संपर्करहितः (आहुः) कथयन्ति (ते) तस्य (त्रीणि) (दिवि) दिव्ये पदार्थे (बन्धनानि) प्रयोजनानि ॥ ३ ॥
भावार्थः
यो गूढोऽग्निः पृथिव्यादिवाय्वोषधीषु प्राप्तोऽस्ति यस्य पृथिव्यामन्तरिक्षे सूर्ये च बन्धनानि सन्ति तं सर्वे मनुष्या विजानन्तु ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (यमः) नियम का करनेवाला (असि) है (आदित्यः) अन्तरिक्ष में प्रसिद्ध होनेवाला सूर्यरूप (असि) है, (अर्वन्) सर्वत्र प्राप्त है, (गुह्येन) गुप्त करने योग्य (व्रतेन) शील से (त्रितः) अच्छे प्रकार व्यवहारों का करनेवाला (असि) है, (सोमेन) चन्द्रमा वा ओषधि गण से (समया) समीप में (विपृक्तः) अपने रूप से अलग (असि) है (ते) उस अग्नि के (दिवि) दिव्य पदार्थ में (त्रीणि) तीन (बन्धनानि) प्रयोजन अगले लोगों ने (आहुः) कहे हैं उसको तुम लोग जानो ॥ ३ ॥
भावार्थ
जो गूढ़ अग्नि पृथिव्यादि पदार्थों में वायु और ओषधियों में प्राप्त है, जिसके पृथिवी, अन्तरिक्ष और सूर्य में बन्धन हैं, उसको सब मनुष्य जानें ॥ ३ ॥
विषय
'यम, आदित्य , त्रित'
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार 'इन्द्र' बनकर जब तू इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनता है तब (यमः असि) = इन इन्द्रियों व मन को वश में करनेवाला होता है। इस नियमन से तू (आदित्यः असि) = सब दिव्यगुणों का आदान करनेवाला होता है । हे (अर्वन्) = बुराइयों का संहार करनेवाले ! तू (गुह्येन व्रतेन) हृदयरूप गुहा के साथ सम्बद्ध ब्रह्मचर्यव्रत को धारण करने से त्(रितः असि) = शरीर, मन व मस्तिष्क– तीनों की शक्ति का विस्तार करनेवाला हुआ है। २. इस गुह्य व्रत को धारण करने से तू (सोमेन) = सोम-शक्ति-वीर्यशक्ति से (समया) = समीपता से (विपृक्तः असि) = विशेषरूप से युक्त हुआ है और इस सोमरक्षण के कारण (दिवि) = मस्तिष्करूप द्युलोक में (ते) = तेरे (त्रीणि बन्धनानि) = तीन बन्धनों को (आहुः) = कहते हैं । 'सोम' ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और समिद्ध ज्ञानानि से 'ऋग्, यजुः, साम' के साक्षात्कार से प्रकृति, जीव और परमात्मा का ज्ञान होता है । यह त्रिविध ज्ञान ही तेरे मस्तिष्क के त्रिविध बन्धन हैं ।
भावार्थ
भावार्थ – इन्द्रियों का नियामक 'यम' है । यह गुणों का आदान करनेवाला 'आदित्य' कहलाता है। ब्रह्मचर्यव्रत के द्वारा यह 'शरीर, मन व मस्तिष्क' का विकास करके 'त्रित' होता है। यह मस्तिष्क में त्रिविध ज्ञान को सुबद्ध करता है ।
विषय
अश्व की उपमा से ब्रह्मचारी का वर्णन, शिष्य की पुत्र से तुलना ।
भावार्थ
हे विद्वन् ! हे ब्रह्मचारिन् ! तू ( यमः असि ) यम नियमों का पालन करने वाला, इन्द्रियों को दमन करने हारा होने से ‘यम’ है । ( आदित्यः असि ) तू भूतल से जल ग्रहण करने वाले सूर्य के समान आचार्य से ज्ञान ग्रहण करने वाला और ‘अदिति’ अर्थात् माता, पिता, आचार्य का पुत्र और शिष्य होने से भी ‘आदित्य’ है । हे ( अर्वन् ) अज्ञान के नाशक ! विद्वन् ! ज्ञानवन् ! तू ( गुह्येन व्रतेन ) पालन करने योग्य ब्रह्मचर्य व्रत के पालन से (त्रितः) तीनों वेदों के पार करने वाला और पुत्र और शिष्य रूप से माता पिता गुरु को भी इह और पर दोनों लोंको में तारने हारा ( असि ) है । और तू ( सोमेन ) अपने प्रेरणा करने वाले आचार्य और योग्य शिष्य के ( समया ) सदा साथ ( वि-पृक्तः ) विशेष प्रकार से स्नेहवान् और विद्यासम्बन्ध से सम्बद्ध और उसको विपरीत मार्ग से परे रखने हारा है। (दिवि) ज्ञान के प्राप्त से करने के लिये ( ते ) तेरे ऊपर ( त्रीणि ) तीन ( बन्धनानि ) बन्धन कहे गये हैं अर्थात् पितृ ऋण, देव ऋण, और ऋषि ऋण, ये तीनों ही बन्धन हैं। उनसे बद्ध ही ‘त्रित’ है । उनसे मुक्त और उनको पूर्ण कर पितरों को तराने वाला होने से भी ‘त्रित’ है । ( राष्ट्र और राजा के पक्ष में देखो यजुर्वेद २९ । १४ )।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्वोऽग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ६, ७, १३ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, १०, १२ भुरिक् पङ्क्तिः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो गूढ अग्नी पृथ्वी इत्यादी पदार्थात, वायू व औषधीत असतो तो पृथ्वी, अंतरिक्ष व सूर्यामध्येही असतो, हे सर्व माणसांनी जाणावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Cosmic energy, Yama you are the mover, the condition and control of all dynamics. You are the light and the sun. You are the energy in use. You are Trita, vitality, strength and power by virtue of your unseen and mysterious character. You are integrated with the life and joy of existence and yet you are distinct and exclusive. It is said that you are bonded with the regions of light in three ways.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Underlined three vows are placed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should know well the nature of that Agni which has controlling power. It is the firmament in the form of energy or lightening. It is in the sun and by a mysterious power is everywhere. It accomplishes various purposes. Though it is separate by its nature from the moon and the herbs, yet it is associated with them. They (the wise) say that it (Agni) has three bonds or connections in divine objects.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A man should know the exact nature of that secret Agni which pervades the earth, air, herbs and other articles. It has three bonds or connections in the earth (as fire) in the firmament as lightning or energy and in the sun. (These are the three forms of Agni, to be known and utilized for various works).
Foot Notes
(अर्वन्) सर्वत्नप्राप्तः = Pervading all. (विपुक्तः) स्वरूपेण सम्पर्करहतिः = Separate by its own nature. It is wrong on the part of Prof. Wilson, Griffith and others take अर्वन here as the horse, while both admit in the notes that Yama means Agni, Aditya-Sun and Trita-vayu. How can horse be identified with Agni (fire) sun and the air etc. none has cared to justify. To take (Arva) for Agni, there is the clear authority of the Taittireya Brahmana. (1.36,4)
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal