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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 174 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 174/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वम॒स्माक॑मिन्द्र वि॒श्वध॑ स्या अवृ॒कत॑मो न॒रां नृ॑पा॒ता। स नो॒ विश्वा॑सां स्पृ॒धां स॑हो॒दा वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒स्माक॑म् । इ॒न्द्र॒ । वि॒श्वध॑ । स्याः॒ । अ॒वृ॒कऽत॑मः । न॒रान् । नृ॒ऽपा॒ता । सः । नः॒ । विश्वा॑साम् । स्पृ॒धाम् । स॒हः॒ऽदाः । वि॒द्याम॑ । इ॒षम् । वृ॒जन॑म् । जी॒रऽदा॑नुम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमस्माकमिन्द्र विश्वध स्या अवृकतमो नरां नृपाता। स नो विश्वासां स्पृधां सहोदा विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अस्माकम्। इन्द्र। विश्वध। स्याः। अवृकऽतमः। नरान्। नृऽपाता। सः। नः। विश्वासाम्। स्पृधाम्। सहःऽदाः। विद्याम। इषम्। वृजनम्। जीरऽदानुम् ॥ १.१७४.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 174; मन्त्र » 10
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र त्वमस्माकं मध्ये विश्वध नरां नृपातावृकतमः स्याः स नो विश्वासां स्पृधां सहोदाः स्या यतो वयं जीरदानुं वृजनमिषं च विद्याम ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (अस्माकम्) (इन्द्र) सुखप्रदातः (विश्वध) विश्वैस्सर्वैः प्रकारैरिति विश्वध। अत्र छान्दसो ह्रस्वः। (स्याः) भवेः (अवृकतमः) न सन्ति वृकाश्चौरा यस्य सम्बन्धे सोऽतिशयित इति (नराम्) नराणाम् (नृपाता) नृणां रक्षकः (सः) (नः) अस्माकम् (विश्वासाम्) सर्वासाम् (स्पृधाम्) युद्धक्रियाणाम् (सहोदाः) बलप्रदाः (विद्याम) विजानीयाम (इषम्) शास्त्रविज्ञानम् (वृजनम्) धर्म्यं मार्गम् (जीरदानुम्) जीवस्वरूपम् ॥ १० ॥

    भावार्थः

    ये यमान्विता नियतेन्द्रियाः प्रजारक्षकाश्चौर्यादिकर्मत्यक्तवन्तो निवसेरँस्ते महदैश्वर्यमाप्नुवन्ति ॥ १० ॥अत्र राजकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥इति चतुस्सप्तत्युत्तरं शततमं सूक्तं सप्तदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सुख देनेवाले ! (त्वम्) आप (अस्माकम्) हमारे बीच (विश्वध) सब प्रकार से (नराम्) मनुष्यों में (नृपाता) मनुष्यों की रक्षा करनेवाले अर्थात् प्रजाजनों की पालना करनेवाले और (अवृकतमः) जिनके सम्बन्ध में चोरजन नहीं ऐसे (स्याः) हूजिये तथा (सः) सो आप (नः) हमारे (विश्वासाम्) समस्त (स्पृधाम्) युद्ध की क्रियाओं के (सहोदाः) बल देनेवाले हूजिये जिससे हम लोग (जीरदानुम्) जीव के रूप को (वृजनम्) धर्मयुक्त मार्ग को और (इषम्) शास्त्रविज्ञान को (विद्याम) प्राप्त होवें ॥ १० ॥

    भावार्थ

    जो यम-नियमों से युक्त नियत इन्द्रियोंवाले प्रजाजनों के रक्षक चौर्यादि कर्मों को छोड़े हुए अपने राज्य में निवास करते हैं, वे अत्यन्त ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं ॥ १० ॥इस मन्त्र में राजजनों के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ चौहत्तरवाँ सूक्त और सत्रहवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥

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    विषय

    संग्राम-विजय

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (अस्माकम्) = हमारे (विश्वध) = सब प्रकार से (अवृकतम:) = [not hurting] हिंसा न करनेवाले (स्याः) = होओ। (नरां नृपाता) = आप नेतृत्व करनेवाले सर्वोत्तम रक्षक नेता हैं। आपके नेतृत्व में हमारी हिंसा नहीं होती। २. (सः) = वे आप (न:) = हमारे लिए (विश्वासां स्पृधाम्) = [स्पृधः = संग्रामनाम- नि०] सब संग्रामों के (सहोदा:) = बल को देनेवाले हैं। आप हमें वह शक्ति प्राप्त कराते हैं जिससे हम सब संग्रामों में विजयी हो पाते हैं। हम (इषम्) = प्रेरणा को, प्रेरणा के द्वारा (वृजनम्) = पाप के वर्जन को तथा पापवर्जन द्वारा (जीरदानुम्) = दीर्घजीवन को विद्याम प्राप्त करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु से शक्ति प्राप्त करके ही हम संग्रामों में विजयी होते हैं। विशेष-सूक्त का मूलभाव यही है कि हम प्रभु के उपासक बनकर प्रभु से शक्ति प्राप्त करके वासना-संग्राम में विजयी हों। अगले सूक्त में शक्ति की प्राप्ति के लिए सोम-पान का उल्लेख है-

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    विषय

    सैन्य बल की वृद्धि ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! ( त्वम् ) तू ( अस्माकम् ) हमारे में से ( विश्वध ) सब प्रकार से ( अवृकतमः ) सबसे अधिक ईमानदार और कृपालु, चौर्य वृत्ति से रहित, और ( नरां ) समस्त नायक पुरुषों में सबसे उत्तम ( नृपाता ) मनुष्यों का पालक ( स्याः ) होकर रह। ( सः ) वह तू ( नः ) हमारी ( विश्वासां ) समस्त ( स्पृधाम् ) स्पर्धाओं, युद्धक्रियाओं और संग्रामकारी सेनाओं के बीच में ( सहोदाः ) शत्रुविजयकारी बल को देने वाला हो । जिससे हम लोग ( इषं ) अन्न, अभिमत पदार्थ, ( वृजनं ) शत्रुवर्जक बल, और ( जीरदानुम् ) जीवनप्रद सामर्थ्य ( विद्याम ) लाभ करें । ( २ ) वृक इति वज्र नाम । हे परमेश्वर ! तू हमारे लिये सबसे अधिक सौम्य और हमारा निःशस्त्र रक्षक, सब का पालक है, हमारी (स्पृधां) इच्छाओं का तू बलप्रद हो । हम अन्न, बल, जीवन प्राप्त करें । इति सप्तदशो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ निचृत् पङ्क्तिः । २, ३, ६, ८, १० भुरिक् पङ्क्तिः । ४ स्वराट् पङ्क्तिः। ५,७,९ पङ्क्तिः । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे यम-नियमांनी युक्त इंद्रिय दमन करणारे असतात ते चोरी इत्यादी कर्मांचा त्याग करून प्रजेचे रक्षक बनून आपल्या राज्यात निवास करतात, ते अत्यंत ऐश्वर्यशाली बनतात. ॥ १० ॥

    टिप्पणी

    या मंत्रात राजाच्या कृत्याचे वर्णन केल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वोक्त सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of power and force, honour and glory, justice and generosity, be every way the most giving, most protecting and least wolfish greedy ruler of us all. And as such, be the giver of strength, courage and constancy in all our endeavour for the good life and joint competitive and cooperative living so that we are blest with food, energy and prosperity, the right path of living and the right spirit of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a ruler are again defined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra! Chief Commander of the Army! you be at all the times and by all the means our defender. Preserve our people in whose sway there are no thieves at all. You are the bestower of strength of all these our heroic acts in the battle, so that we may know the real immortal nature of the soul. We may possess the knowledge of the Shastras and the path of the righteousness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons become prosperous who do not apply unnecessary violence, and follow other restraints. They control their senses, and are protectors of the subjects. With application of this, such wicked have entirely given up theft and other evil habits.

    Foot Notes

    (अवृकतमः ) न सन्ति वृकाः चौरा: यस्य सम्बन्धे सोऽतिेशयितः = In whose sway, there are no thieves and other bad persons. (स्पृधाम्) युद्धक्रियाणाम् = Of the activities connected with the battle. (इषम् ) शास्त्रविज्ञानम् == The knowledge of the Shastras.

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