ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 174/ मन्त्र 4
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
शेष॒न्नु त इ॑न्द्र॒ सस्मि॒न्योनौ॒ प्रश॑स्तये॒ पवी॑रवस्य म॒ह्ना। सृ॒जदर्णां॒स्यव॒ यद्यु॒धा गास्तिष्ठ॒द्धरी॑ धृष॒ता मृ॑ष्ट॒ वाजा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठशेष॑न् । नु । ते । इ॒न्द्र॒ । सस्मि॑न् । योनौ॑ । प्रऽश॑स्तये । पवी॑रवस्य । म॒ह्ना । सृ॒जत् । अर्णां॑सि । अव॑ । यत् । यु॒धा । गाः । तिष्ठ॑त् । हरी॒ इति॑ । धृ॒ष॒ता । मृ॒ष्ट॒ । वाजा॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शेषन्नु त इन्द्र सस्मिन्योनौ प्रशस्तये पवीरवस्य मह्ना। सृजदर्णांस्यव यद्युधा गास्तिष्ठद्धरी धृषता मृष्ट वाजान् ॥
स्वर रहित पद पाठशेषन्। नु। ते। इन्द्र। सस्मिन्। योनौ। प्रऽशस्तये। पवीरवस्य। मह्ना। सृजत्। अर्णांसि। अव। यत्। युधा। गाः। तिष्ठत्। हरी इति। धृषता। मृष्ट। वाजान् ॥ १.१७४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 174; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजधर्मे संग्रामविषयमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र प्रशस्तये सस्मिन् योनौ ते पवीरवस्य मह्ना नु शेषन् सद्यः शत्रवः शयेरन्। यद्यस्मिन् संग्रामे सूर्योऽर्णांस्यवसृजदिव युधा गा हरी तिष्ठत्। हे मृष्ट धृषता वाजांश्च तिष्ठत् ॥ ४ ॥
पदार्थः
(शेषन्) शयेरन्। अत्र लेटि व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (नु) सद्यः (ते) (इन्द्र) सेनेश (सस्मिन्)। अत्र छान्दसो वर्णविपर्यासः। (योनौ) स्थाने (प्रशस्तये) उत्कृष्टतायै (पवीरवस्य) वज्रध्वनेः (मह्ना) महिम्ना (सृजत्) सृजेत् (अर्णांसि) जलानि (अव) (यत्) यस्मिन् संग्रामे (युधा) युद्धेन (गाः) भूमीः (तिष्ठत्) अतितिष्ठति (हरी) यौ यानानि हरतस्तौ (धृषता) दृढेन बलेन (मृष्ट) शत्रुबलं सह (वाजान्) शत्रुवेगान् ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये स्वप्रकृतिस्थाः शूरवीरास्सन्ति ते स्वस्वाधिकारे न्यायेन वर्त्तित्वा शत्रून्निःशेषान् कृत्वा धर्म्यं स्वमहिमानं प्रकाशयेयुः ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजधर्म में संग्राम विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) सेनापति ! (प्रशस्तये) तेरी उत्कर्षता के लिये (सस्मिन्) उस (योनौ) स्थान में वा संग्राम में (ते) तेरे (पवीरवस्य) वज्र की ध्वनि के (मह्ना) महिमा से (नु) शीघ्र (शेषन्) शत्रुजन सोवें। (यत्) जिस संग्राम में सूर्य जैसे (अर्णांसि) जलों को (अव, सृजत्) उत्पन्न करे अर्थात् मेघ से वर्षावे वैसे (युधा) युद्ध से (गाः) भूमियों और (हरी) जो यानों को लेजाते उन घोड़ों को (तिष्ठत्) अधिष्ठित होता और हे (मृष्ट) शत्रुबल को सहनेवाले ! (धृषता) दृढ़ बल से (वाजान्) शत्रुओं के वेगों को अधिष्ठित होता है ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो अपने स्वभावानुकूल शूरवीर हों वे अपने-अपने अधिकार में न्याय से वर्त्तकर शत्रुजनों को निःशेष कर धर्म के अनुकूल अपनी महिमा का प्रकाश करावें ॥ ४ ॥
विषय
उस समान योनि में
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता पुरुष ! (पवीरवस्य) = पवित्रीकरण के साधनभूत [पू-पवने] क्रियाशीलतारूप वज्र की (मह्ना) = महिमा से (ते) = तेरे 'मन, बुद्धि, इन्द्रिय' रूप सब साधन (सस्मिन् योनौ) = उस समान योनि में- सबके मूल उत्पत्तिस्थान ब्रह्म में (नु) = निश्चय से (शेषन्) = निवास [शयन] करते हैं। तेरी इन्द्रियाँ विषयों में नहीं भटकती रहतीं । तेरा मन विषयों की इच्छाओं से आन्दोलित नहीं होता रहता तथा तेरी बुद्धि विषयोपार्जन के साधनों को ही नहीं सोचती रहती। क्रियाशीलतारूप वज्र का यही महत्त्व है कि मनुष्य विषय-वासनाओं का विनाश करनेवाला बनकर अपने जीवन को पवित्र बनाये रखता है। इसका झुकाव प्रभु की ओर होता है, न कि प्रकृति की ओर । इस प्रकार इसका जीवन (प्रशस्तये) = प्रशस्ति के लिए होता है। यह प्रभु का शंसन करनेवाला बनता है। इससे इसका जीवन भी प्रशस्त होता है। २. (यत्) = जब यह (युधा) = युद्ध से (गाः) = गति करता है [गच्छसि - सा०] तब (अर्णांसि) = ज्ञान-जल के समुद्रों को (अर्णस्- the ocean) अवसृजत् उत्पन्न करता है । विषयवासनाओं से संग्राम करता हुआ यह ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करता है और इसका ज्ञान चमक उठता है। ३. यह (हरी) = ज्ञानेन्द्रियरूप व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों पर (तिष्ठत्) = अधिष्ठित होता है । इन्द्रियों को (पूर्णतया) = अपने वश में करता है और (धृषता) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले सामर्थ्य के द्वारा (वाजान्) = अपनी सब शक्तियों व गतियों को (मृष्ट) = शुद्ध कर डालता है। मलिनता का कारण वासना ही है। वासना गई और मलिनता दूर हुई ।
भावार्थ
भावार्थ – हमारी 'इन्द्रयाँ, मन व बुद्धि' प्रभु में निवास करें। हममें ज्ञानसमुद्रों की सृष्टि हो । वासनाओं को विनष्ट करके हम गतियों व शक्तियों को पवित्र करें ।
विषय
दुष्टों का दमन ।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! सेनापते ! शत्रुनाशकारिन् ! ( सस्मिन् योनौ ) एक ही संग्राम में, एक ही स्थान पर ( ते ) तेरे ( पवीरवस्य मन्हा ) वज्र की गर्जती ध्वनि के महान् सामर्थ्य से ही तेरे शत्रुगण ( शेषन् उ ) पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। यह सब (ते प्रशस्तये) तेरी ख्याति के लिये ही है। सूर्य या तीव्र वायु या विद्युत् जिस प्रकार ( अर्णांसि अवसृजत् ) जलों को नीचे बहाता है और ( गाः ) ध्वनि वाणियों या गर्जनाओं को भी ( अवसृजत् ) उत्पन्न करता है और वह ( धृषता ) बड़े बल से ( हरी तिष्ठत् ) गतिशील वायु और मेघ पर स्थित होकर ( वाजान् मृष्ट ) अन्नों को समृद्ध करता है उसी प्रकार राजा भी ( यत् ) जब ( अर्णांसि अव सृजत् ) अपने सैनिक बलों को अपने अधीन खड़ा कर लेता है तब ( युधा ) युद्ध द्वारा ( गाः च अवसृजत् ) आज्ञा वाणियों को प्रकट करता या भूमियों को अपने अधीन कर लेता है और ( हरी तिष्ठत् ) वेगवान् दो अश्वों पर स्थिर रहकर रथ में बैठकर, ( धृषता ) शत्रु पराजयकारी बल से ( वाजान् मृष्ट ) ऐश्वर्यो और संग्रामों पर विजय प्राप्त करता है । (२) अध्यात्म में—उत्तम स्तुति की वाणी के बल से अपने ही योनि, आत्मा में ( ते शेषन् ) इन्द्र आत्मा की सब वासनाएं या बाधक वृत्तियां प्रसुप्त हो जाती हैं। वह योग द्वारा वाणियों और कर्मों पर वश करता है। प्राण और अपान के बल पर ( वाजान् ) विभूतियों को जीतता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ निचृत् पङ्क्तिः । २, ३, ६, ८, १० भुरिक् पङ्क्तिः । ४ स्वराट् पङ्क्तिः। ५,७,९ पङ्क्तिः । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे आपल्या स्वभावाप्रमाणे शूरवीर असतात, त्यांनी आपापल्या अधिकारात न्यायाने वागून शत्रूंना निःशेष करून धर्मानुकूल वागून आपली महिमा प्रकट करावी. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of war for humanity, for your honour and glory, let the enemies fall and go to sleep on the battle-field by the awful roar of your thunderbolt, while you ride the chariot and release the floods of attack with the force of action, destroy the resistance of opposition and then hold the lands in peace and security.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The brave should protect the weaker sections on the basis of equality.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra ! you are Commander of the Army and so are humbled by the might of thunderbolt like the strong weapons, let your foes perish in the battlefield, and thus establish your glory. As the sun creates rains through the clouds, likewise, you subdue the enemies; check the aggressive speed of your enemy and their advances by strengthening your power.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All dutiful soldiers should deal firmly within their own right and authority. They should annihilate their enemies and should establish their glory by doing righteous deeds.
Foot Notes
(पबीरवस्य ) वज्रध्वनेः = By the sound of the thunderbolt or of the strong fierce weapon ( धुषता ) दृढेन बलेन = With strong force.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal