ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 174/ मन्त्र 7
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
रप॑त्क॒विरि॑न्द्रा॒र्कसा॑तौ॒ क्षां दा॒सायो॑प॒बर्ह॑णीं कः। कर॑त्ति॒स्रो म॒घवा॒ दानु॑चित्रा॒ नि दु॑र्यो॒णे कुय॑वाचं मृ॒धि श्रे॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठरप॑त् । क॒विः । इ॒न्द्र॒ । अ॒र्कऽसा॑तौ । क्षाम् । दा॒साय॑ । उ॒प॒ऽबर्ह॑णीम् । क॒रिति॑ कः । कर॑त् । ति॒स्रः । म॒घऽवा॑ । दानु॑ऽचित्राः । नि । दु॒र्यो॒णे । कुय॑वाचम् । मृ॒धि । श्रे॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
रपत्कविरिन्द्रार्कसातौ क्षां दासायोपबर्हणीं कः। करत्तिस्रो मघवा दानुचित्रा नि दुर्योणे कुयवाचं मृधि श्रेत् ॥
स्वर रहित पद पाठरपत्। कविः। इन्द्र। अर्कऽसातौ। क्षाम्। दासाय। उपऽबर्हणीम्। करिति कः। करत्। तिस्रः। मघऽवा। दानुऽचित्राः। नि। दुर्योणे। कुयवाचम्। मृधि। श्रेत् ॥ १.१७४.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 174; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र यः कविरर्कसातौ दासायोपबर्हणीं क्षां कः स सत्यं रपद्यो मघवा तिस्रो दानुचित्राः करत्स दुर्योणे मृधि कुयवाचं निश्रेत् ॥ ७ ॥
पदार्थः
(रपत्) व्यक्तं वदेत् (कविः) सर्वशास्त्रवित् (इन्द्र) सूर्यवत् सभेश (अर्कसातौ) अन्नानां संविभागे (क्षाम्) भूमिम् (दासाय) शूद्रवर्गाय (उपबर्हणीम्) सुवर्द्धिकाम् (कः) करोति। अत्राडभावः। (करत्) कुर्यात् (तिस्रः) उत्तममध्यमनिकृष्टरूपेण त्रिविधा (मघवा) उत्तमधनसम्बन्धी (दानुचित्राः) अद्भुतदानाः (नि) (दुर्योणे) समराङ्गणे (कुयवाचम्) यः कुयवान्वक्ति प्रशंसति तम् (मृधि) युद्धे (श्रेत्) आश्रयेत् ॥ ७ ॥
भावार्थः
शास्त्रज्ञस्सभापतिः शूद्रवर्गाय शास्त्रशिक्षयोत्तमान्नादिवृद्धिकरीं भूमिं सम्पादयेत्। सत्यशीलदानवैचित्र्यसम्पादनायोत्तममध्यमनिकृष्टान् दानव्यवहारान् सम्पादयेत् सर्वदा संग्रामादिभूमौ शत्रून् संहृत्य राज्यं विवर्द्धयेत् ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य के समान सभापति ! जो (कविः) सर्वशास्त्रों का जाननेवाला (अर्कसातौ) अन्नों के अच्छे प्रकार विभाग में (दासाय) शूद्र वर्ग के लिये (उपबर्हणीम्) अच्छी वृद्धि देनेवाली (क्षाम्) भूमि को (कः) नियत करता वह सत्य स्पष्ट (रपत्) कहे जो (मघवा) उत्तम धन का सम्बन्ध रखनेवाला (तिस्रः) उत्तम, मध्यम और निकृष्ट कि (दानुचित्राः) अद्भुत दान जिनमें होता उन क्रियाओं को (करत्) नियत करे वह (दुर्योणे) समरभूमि विषयक (मृधि) युद्ध में (कुयवाचम्) कुत्सित यवों की प्रशंसा करनेवाले सामान्य जन का (नि, श्रेत्) आश्रय लेवे ॥ ७ ॥
भावार्थ
शास्त्र जाननेवाले सभापति शूद्र वर्ग के लिये शास्त्र की शिक्षा के साथ उत्तमान्नादि की वृद्धि करनेवाली भूमि को संपादन करावें और सत्यशील तथा दान की विचित्रता संपादन करने के लिये उत्तम, मध्यम, निकृष्ट दानव्यवहारों को सिद्ध करे और सब काल में संग्रामादि भूमियों में शत्रुओं का संहार कर अपने राज्य को बढ़ाता रहे ॥ ७ ॥
विषय
दास का भूमि-शयन
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विदारण करनेवाले प्रभो ! (कविः) = क्रान्तदर्शी ज्ञानी पुरुष (रपत्) = आपका स्तवन करता है। (अर्कसातौ) = अर्चनीय प्रभु-प्राप्ति के निमित्त दासाय-जीवन का नाश करनेवाली वृत्तियों के लिए (क्षाम्) = पृथिवी को (उपबर्हणीम्) = शय्या (कः) = करता है। अशुभवृत्तियों को भूमिशायी करके - समाप्त करके ही तो प्रभु-प्राप्ति के योग्य बना जाता है । २. यह (मघवा) = यज्ञशील पुरुष[मघ-मख] (तिस्त्रः) = असुरों की तीन पुरियों को (दानुचित्रा) = खण्डन से चित्रित करत् करता है। कामादि असुरवृत्तियाँ इन्द्रियों, मन व बुद्धि को अपना अधिष्ठान बनाती हैं। उस समय इन्द्रियों में बनी इनकी पुरी अयोमयी - लोहवत् दृढ़ कहलाती हैं। इनसे मन में खड़ी की गई पुरी राजतचाँदी के समान रञ्जन करनेवालो होती है तथा बुद्धि में स्थापित हुई पुरी हिरण्मयी- स्वर्ण के समान उज्ज्वल प्रतीत होती है। यज्ञशील पुरुष इन तीनों के ध्वंस का प्रयत्न करता है। ३. (दुर्योणे मृधि) = वासनाएँ हैं 'योनि' कारण जिनका, उस संग्राम में (कुयवाचम्) = कुत्सित शब्दों को करते हुए इन आसुर भावों को (निश्रेत्) = पूर्णरूप में हिंसित करता है। अशुभ वासनाएँ न हों तो यह युद्ध हो ही नहीं। इसलिए इस युद्ध को 'दुर्योनि' कहा गया है। ये असुर अशुभ वचनों का ही उच्चारण करते हैं—‘जगदाहुरनीश्वरम्' ईश्वर है ही नहीं, 'किमन्यत्कामहैतुकम्'– यह संसार केवल मौज के लिए है, 'ईश्वरोऽहम्' – मैं ही ईश्वर हूँ, 'कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया' – मेरे समान और कौन है ? इस प्रकार की व्यर्थ की बातें ये करते हैं। इन आसुर भावों को यह स्तोता समाप्त करता है। - -
भावार्थ
भावार्थ - अशुभ वासनाओं को समाप्त करके ही हम प्रभु को पाते हैं।
विषय
दुष्टों का दमन ।
भावार्थ
( कविः ) क्रान्तदर्शी, बुद्धिमान् पुरुष ( सातौ ) उत्तम अन्न को प्राप्त करने के निमित्त ( दासाय ) भृत्य वर्ग के लिये ( क्षाम् ) उत्तम और निवास करने की भूमि का उपदेश करे । वह ( क्षाम् ) पृथिवी को ( उपबर्हणीं ) खूब ऐश्वर्य बढ़ाने वाली ( कः ) बनावे । ( मघवा ) ऐश्वर्यवान्, उत्तम पूजनीय पुरुष ही ( तिस्रः ) तीनों प्रकार की पर्वतमय, सम, और जलमय स्थली, अथवा उत्तम, मध्यम और निकृष्ट तीनों को ( दानुचित्राः ) उत्तम अन्न, ऐश्वर्य और सुखप्रद पदार्थों से अद्भुत रूप से पूर्ण ( करत् ) करे । और वही ( दुर्योणे मृधि ) दुखदायी रणांगण में ( कुयवाचं ) कुत्सित वाणी के बोलने वाले को ( निः श्रेत् ) खूब मारे । अथवा—जो कवि विद्वान् ( अर्कसातौ ) पूज्य पुरुष प्रभु को प्राप्त करने का उपदेश करता है वही ( दासाय ) प्रजा के नाश करने वाले असुर के लिये ( क्षाम् उपबर्हिणी कः ) भूमि को उसका नाशकारणी बना देता है। इसी लिये जो तीनों प्रकार की भूमियों को कल्पबल्ली बनाता है वही कुवाच्य कहने वाले को दारुण संग्राम में कुचल डालता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ निचृत् पङ्क्तिः । २, ३, ६, ८, १० भुरिक् पङ्क्तिः । ४ स्वराट् पङ्क्तिः। ५,७,९ पङ्क्तिः । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
शास्त्र जाणणाऱ्या सभापतीने शूद्र वर्गासाठी शास्त्राच्या शिक्षणाबरोबरच उत्तम अन्न इत्यादीची वृद्धी करणाऱ्या भूमीचे संपादन करावे व सत्यशीलतेने तसेच अद्भुत दान प्राप्त करण्यासाठी उत्तम, मध्यम, निकृष्ट दानव्यवहार सिद्ध करावा. सर्वकाळी संग्राम भूमीवर शत्रूंचा संहार करून आपले राज्य वाढवीत जावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
In the distribution of food and land, let the man of knowledge and insight speak fully and freely, and then Indra, lord of land, should allot fertile land to the servant class. The lord of wealth and power should fix creative and productive duties and occupations for the other three, and him who is evil of tongue, he should take on in battle of arms or words in the open field.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Again tips to the rulers.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra! you are President of the Assembly, shining like the sun and like a sage or a wise man who turns the earth into a source of growth in food, for the groups of labors. A wealthy and wise man makes three areas-the best, middle and ordinary-marvelous. With his and might and contribution by common man, he achieves success in the farm fields and battlefields, both.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The President of the Assembly should be the knower of all the Shastras. He should give fertile land to the farm labourers and make them well educated in Shastras. He should be liberal in giving donations of all kinds for preaching truth, good character and liberality. He should extend his kingdom by destroying the enemies in the battlefields.
Foot Notes
(दुर्योणे) समराङ्गणे = On the battlefield. (मृधि) युद्धे = In the war.
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