ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 174/ मन्त्र 5
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
वह॒ कुत्स॑मिन्द्र॒ यस्मि॑ञ्चा॒कन्त्स्यू॑म॒न्यू ऋ॒ज्रा वात॒स्याश्वा॑। प्र सूर॑श्च॒क्रं वृ॑हताद॒भीके॒ऽभि स्पृधो॑ यासिष॒द्वज्र॑बाहुः ॥
स्वर सहित पद पाठवह॑ । कुत्स॑म् । इ॒न्द्र॒ । यस्मि॑न् । चा॒कन् । स्यू॒म॒न्यू इति॑ । ऋ॒ज्रा । वात॑स्य । अस्वा॑ । प्र । सूरः॑ । च॒क्रम् । वृ॒ह॒ता॒त् । अ॒भीके॑ । अ॒भि । स्पृधः॑ । या॒सि॒ष॒त् । वज्र॑ऽबाहुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वह कुत्समिन्द्र यस्मिञ्चाकन्त्स्यूमन्यू ऋज्रा वातस्याश्वा। प्र सूरश्चक्रं वृहतादभीकेऽभि स्पृधो यासिषद्वज्रबाहुः ॥
स्वर रहित पद पाठवह। कुत्सम्। इन्द्र। यस्मिन्। चाकन्। स्यूमन्यू इति। ऋज्रा। वातस्य। अश्वा। प्र। सूरः। चक्रम्। वृहतात्। अभीके। अभि। स्पृधः। यासिषत्। वज्रऽबाहुः ॥ १.१७४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 174; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र त्वं यस्मिंन् वातस्य वायोरिव स्यूमन्यू ऋज्रा न चाकँस्तस्मिन् कुत्सं वह सूर इव वज्रवाहुर्भवाँश्चकं प्रवृहतादभीके स्पृधोऽभियासिषत् ॥ ५ ॥
पदार्थः
(वह) प्रापय (कुत्सम्) वज्रम् (इन्द्र) सभेश (यस्मिन्) (चाकन्) कामयसे। अत्र कनी दीप्तिकान्तिगतिष्वित्यस्माल्लङो मध्यमैकवचने बहुलं छन्दसीति शपः स्थाने श्लुः श्लाविति द्वित्वं बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेपीत्यडभावः, संयोगान्तसलोपश्च। (स्यूमन्यू) आत्मनः स्यूमानं शीघ्रं गमनमिच्छू (ऋज्रा) ऋजुगामिनौ (वातस्य) वायोरिव (अश्वा) अश्वौ (प्र) (सूरः) सूर्यः (चक्रम्) स्वराज्यम् (वृहतात्) वर्द्धयन्तु (अभीके) संग्रामे (अभि) सन्मुखे (स्पृधः) स्पर्द्धमानान् शत्रून् (यासिषत्) यातुमिच्छतु (वज्रबाहुः) वज्रः शस्त्रास्त्रम्बाह्वोर्यस्य ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यस्तथा प्रतापवान् राजा शस्त्रास्त्रप्रहारैः संग्रामे शत्रून् विजित्य निजराज्यं वर्द्धयेत् ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) सभापति ! आप (यस्मिन्) जिस संग्राम में (वातस्य) पवन की सी शीघ्र और सरल गति (स्यूमन्यू) चाहने और (ऋज्रा) सरल चाल चलनेवाले (अश्वा) घोड़ों को (चाकन्) चाहते हैं उसमें (कुत्सम्) वज्र को (वह) पहुँचाओ वज्र चलाओ अर्थात् वज्र से शत्रुओं का संहार करो (सूरः) सूर्य के समान प्रतापवान् (वज्रबाहुः) शस्त्र-अस्त्रों को भुजाओं में धारण किये हुए आप (चक्रम्) अपने राज्य को (प्र, बृहताम्) बढ़ाओ और (अभीके) संग्राम में (स्पृधः) ईर्ष्या करते हुए शत्रुओं के (अभि, यासिषत्) सन्मुख जाने की इच्छा करो ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य प्रतापवान् है, वैसा प्रतापवान् राजा अस्त्र और शस्त्रों के प्रहारों से संग्राम में शत्रुओं को अच्छे प्रकार जीतकर अपने राज्य को बढ़ावे ॥ ५ ॥
विषय
प्रभु के समीप
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (कुत्सम्) = वासनाओं का संहार करनेवाले इस पुरुष को (स्यूमन्य) = [स्यूमं = Happiness] सुख प्राप्त करानेवाले, (ऋज्रा) = ऋजुगामी, (वातस्य अश्वा) = वायु के घोड़ों को– वायु के समान वेगवाले इन्द्रियाश्वों को वह प्राप्त कराइए । उन इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराइए (यस्मिन्) = जिसके होने पर (चाकन्) = [कन् दीप्तौ] यह चमक उठे। इसकी शोभा बढ़े, इसका जीवन सुन्दर हो । २. यह (सूरः) = ज्ञानी बनकर–सूर्य के समान ज्ञान से चमकता हुआ होकर (चक्रम्) = अपने शरीर-रथ को (अभीके) = आपके समीप (प्रवृहतात्) = उद्यत करनेवाला हो अर्थात् इस शरीर-रथ से उन्नति-पथ पर आगे और आगे बढ़ता हुआ आपके समीप पहुँचनेवाला हो और (वज्रबाहुः) = हाथ में क्रियाशीलतारूप वज्र को लिये हुए (स्पृधः) = संग्राम करते हुए काम-क्रोधादि शत्रुओं के प्रति (अभि यासिषत्) = जानेवाला हो, उनपर आक्रमण करनेवाला हो। इस अध्यात्मसंग्राम में विजयी बनकर ही तो यह आपके समीप पहुँचेगा। वस्तुत: आपका सतत स्मरण करता हुआ ही यह इन संग्रामों में विजयी भी हो सकेगा।
भावार्थ
भावार्थ - हमारे इन्द्रियाश्व उत्तम हों। हम अपने शरीर-रथ को प्रभु के समीप पहुँचने का साधन समझें । काम-क्रोधादि को जीतकर प्रभु के समीप हों ।
विषय
दुष्टों का दमन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् शत्रुनाशक सेनापते ! ( वातस्य ) के वेग से जाने वाले ( ऋज्रा ) सरल गति वाले, ( स्यूमन्यू ) सुख प्रद ( अश्वा ) दोनों अश्वों को और ( कुत्सम् ) शत्रु के सैन्यों को काट गिराने वाले शस्त्रास्त्र बल को भी ( यस्मिन् ) जिस पर तू ( चाकन् ) चाहे उस पर ( वह ) चढ़ाले, उस पर सेना बल और अस्त्र बल से चढ़ाई कर । तू ( सूरः ) सूर्य के समान तेजस्वी होकर ( अभीके ) अपने समीप अपने ( चक्रं ) राज्य चक्र को ( प्र वृहतात् ) खूब बढ़ा और उसका भार अपने ऊपर अच्छी प्रकार ले । तब ( वज्रबाहुः ) शस्त्र बल को हाथ में लेकर ( स्पृधः ) स्पर्धालु शत्रुओं पर ( अभि यासिषत् ) आक्रमण कर । (२) अध्यात्म में—दो ऋतुगामी अश्व प्राण अपान हैं जो वात अर्थात् मुख्य प्राण के दो रूप हैं। इन्द्र आत्मा है । वह जिस पर भी चाहे अपनी स्तुति कारी वाणी का प्रयोग और प्राणापान का बल रोककर करे । वह आत्मा सूर्य के समान तेजस्वी होकर मुख्य ‘चक्र’ सहस्र दल को पहुंचे और ज्ञान के वज्र को हाथों में लेकर ‘स्पृधः’ बाधक वृत्तियों पर विजय करे । इति षोडशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ निचृत् पङ्क्तिः । २, ३, ६, ८, १० भुरिक् पङ्क्तिः । ४ स्वराट् पङ्क्तिः। ५,७,९ पङ्क्तिः । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य तेजस्वी असतो तसे शक्तिसंपन्न राजाने अस्त्र-शस्त्रांच्या प्रहाराने संग्रामात शत्रूंना जिंकून आपले राज्य वाढवावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of world power, wielder of the force of thunder, keen for the reins and thirsting for the heart’s desire, take up the thunderbolt, ride the horses of the winds shooting straight to the target, and go to the battle you love to fight. So should the ruler, strong of arm and will, blazing as the sun, meet the contending enemies in battle and expand the wheel of the social order.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (President of the Assembly or Commander of the Army)! take your powerful and quick weapons like the lightning to that battlefield where the transport units are quick. Be mighty like the sun with strong arms in your hands; use them properly; keep them safely and expand the kingdom by making your adversaries to surrender.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A mighty king like the sun should preserve and expand his kingdom by conquering his enemies with his powerful weapons.
Foot Notes
(कुत्सम्) वज्रमू = Thunderbolt or strong weapon ( चाकन् ) कामयसे । कनी दीप्तिकान्तिगतिषु Desire = ( चक्रम् ) स्वराज्यम् = Self rule.
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