ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 10
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
विश्वा॑न्दे॒वान्ह॑वामहे म॒रुतः॒ सोम॑पीतये। उ॒ग्रा हि पृश्नि॑मातरः॥
स्वर सहित पद पाठव्विश्वा॑न् । दे॒वान् । ह॒वा॒म॒हे॒ । म॒रुतः॑ । सोम॑ऽपीतये । उ॒ग्राः । हि । पृश्नि॑ऽमातरः ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वान्देवान्हवामहे मरुतः सोमपीतये। उग्रा हि पृश्निमातरः॥
स्वर रहित पद पाठविश्वान्। देवान्। हवामहे। मरुतः। सोमऽपीतये। उग्राः। हि। पृश्निऽमातरः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
हि यतो विद्यां चिकीर्षवो वयं य उग्राः पृश्निमातरः सन्ति, तस्मादेतान् विश्वान् देवान् मरुतो हवामहे॥१०॥
पदार्थः
(विश्वान्) सर्वान् (देवान्) दिव्यगुणसाहित्येनोत्तमगुणप्रकाशकान् (हवामहे) विद्यासिद्धये स्पर्द्धामहे। अत्र बहुलं छन्दसि इति सम्प्रसारणम्। (मरुतः) ज्ञानक्रियानिमित्तेन शिल्पव्यवहारप्रापकान्। मरुत इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते (सोमपीतये) पदार्थानां यथावद्भोगाय (उग्राः) तीव्रसंवेगादिगुणसहितः (हि) हेत्वर्थे (पृश्निमातरः) पृश्निराकाशमन्तरिक्षं मातोत्पत्तिनिमित्तं येषां ते। पृश्निरिति साधारणनामसु पठितम्। (निघं०१.४)॥१०॥
भावार्थः
यत एत आकाशादुत्पन्ना वायवो यत्र तत्र गमनागमनकर्त्तारस्तीक्ष्णस्वभावास्सन्त्यत एव विद्वांसः कार्य्यार्थं तान् स्वीकुर्वन्ति॥१०॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
विद्या की इच्छा करनेवाले हम लोग (हि) जिस कारण से जो ज्ञान क्रिया के निमित्त से शिल्प व्यवहारों को प्राप्त करानेवाले (उग्राः) तीक्ष्णता वा श्रेष्ठ वेग के सहित और (पृश्निमातरः) जिनकी उत्पत्ति का निमित्त आकाश वा अन्तरिक्ष है, इससे उन (विश्वान्) सब (देवान्) दिव्यगुणों के सहित उत्तम गुणों के प्रकाश करानेवाले वायुओं को (हवामहे) उत्तम विद्या की सिद्धि के लिये जानना चाहते हैं॥१०॥
भावार्थ
जिससे यह वायु आकाश ही से उत्पन्न आकाश में आने-जाने और तेज स्वभाववाले हैं, इसी से विद्वान् लोग कार्य्य के अर्थ इनका स्वीकार करते हैं॥१०॥
विषय
फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हि यतः विद्यां चिकीर्षवः वयं य उग्राः पृश्निमातरः सन्ति, तस्मात् एतान् विश्वान् देवान् मरुतः हवामहे॥१०॥
पदार्थ
(हि) हेत्वर्थे=क्योंकि, (विद्याम्)=विद्या की, (चिकीर्षवः)=इच्छा करने वाले, (वयम्)=हम लोग, (यः)=जो, (उग्राः) तीव्रसंवेगादिगुणसहितः=तीव्र संवेग आदि गुणों सहित और, (पृश्निमातरः) पृश्निराकाशमन्तरिक्षं मातोत्पत्तिनिमित्तं येषां ते=जिनकी उत्पत्ति का कारण आकाश वा अन्तरिक्ष है, इससे, (सन्ति)=हैं, (तस्मात्)=इसलिये, (एतान्)=इन, (विश्वान्) सर्वान्=सबको, (देवान्) दिव्यगुणसाहित्येनोत्तमगुणप्रकाशकान्=दिव्यगुणों के सहित उत्तम गुणों के प्रकाश कराने वाले, (मरुतः) ज्ञानक्रियानिमित्तेन शिल्पव्यवहारप्रापकान्=ज्ञान क्रिया के निमित्त शिल्प व्यवहारें को प्राप्त कराने वालों को, (हवामहे) विद्यासिद्धये स्पर्द्धामहे=विद्या की सिद्धि के लिये जानना चाहते हैं॥१०॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जिससे यह वायु आकाश से उत्पन्न वायु यहाँ से वहाँ आने-जाने वाले और तेज स्वभाववाले हैं, इसलिए विद्वान् लोग कार्य करने के लिए इनको स्वीकार करते हैं॥१०॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(हि) जिस कारण से जो ज्ञान क्रिया के कारण से शिल्प व्यवहारों को प्राप्त कराने वाले (उग्राः) तीक्ष्णता या श्रेष्ठ वेग के सहित हैं और (पृश्निमातरः) जिनकी उत्पत्ति का कारण आकाश वा अन्तरिक्ष है, उन (विश्वान्) सब (देवान्) दिव्यगुणों के सहित उत्तम गुणों के प्रकाश करानेवाले वायुओं से (हवामहे) विद्या की सिद्धि के लिये हम स्पर्धा करते हैं॥१०॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (विश्वान्) सर्वान् (देवान्) दिव्यगुणसाहित्येनोत्तमगुणप्रकाशकान् (हवामहे) विद्यासिद्धये स्पर्द्धामहे। अत्र बहुलं छन्दसि इति सम्प्रसारणम्। (मरुतः) ज्ञानक्रियानिमित्तेन शिल्पव्यवहारप्रापकान्। मरुत इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते (सोमपीतये) पदार्थानां यथावद्भोगाय (उग्राः) तीव्रसंवेगादिगुणसहितः (हि) हेत्वर्थे (पृश्निमातरः) पृश्निराकाशमन्तरिक्षं मातोत्पत्तिनिमित्तं येषां ते। पृश्निरिति साधारणनामसु पठितम्। (निघं०१.४)॥१०॥
विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हि यतो विद्यां चिकीर्षवो वयं य उग्राः पृश्निमातरः सन्ति, तस्मादेतान् विश्वान् देवान् मरुतो हवामहे॥१०॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- यत एत आकाशादुत्पन्ना वायवो यत्र तत्र गमनागमनकर्त्तारस्तीक्ष्णस्वभावास्सन्त्यत एव विद्वांसः कार्य्यार्थं तान् स्वीकुर्वन्ति॥१०॥
विषय
तेजस्विता व ज्ञानदीप्ति
पदार्थ
१. हम अपने जीवनों में (सोमपीतये) - सोम के पान के लिए , अर्थात् शरीर में वीर्य की रक्षा के लिए (विश्वान् देवान्) - सब दिव्यगुणों को (हवामहे) - पुकारते हैं । राक्षसीभाव ही सोम के विनाशक होते हैं ।
२. इन देवों में हम विशेषकर (मरुतः) - मरुतों को (हवामहे) - पुकारते हैं । शरीर में प्राण ही मरुत हैं । इन प्राणों को पुकारने का अभिप्राय "प्राणों की साधना" से है । मैं नियमपूर्वक प्राणसाधना व प्राणायाम करता हूँ । यह प्राणसाधना मुझे ऊध्वरेतस् बनाती है ।
३. इस ऊर्ध्वरेतस् बनने से मेरी शक्ति भी बढ़ती है और ज्ञान का प्रकाश भी , अतः मन्त्र में कहते हैं कि ये मरुत् (उग्राः) - तेजस्वी हैं तथा (हि) - निश्चय से (पृश्निमातरः) - उस हृदयान्तरिक्ष के निर्माण करनेवाले हैं जोकि 'संस्रष्टाभासं ज्योतिषाम्' [निरु० २/१५] विविध ज्ञानों की दीप्ति से युक्त है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम दिव्यगुणों को धारण करें । विशेषतः प्राणसाधना अवश्य करें । इन प्राणों के सहाय्य से ही हम ऊर्ध्वरेतस् बनते हैं और इस प्रकार ये प्राण हमें तेजस्वी व विज्ञान - दीप्तिमय हृदय - अन्तरिक्षवाला बनाते हैं ।
विषय
उग्रों का वर्णन
भावार्थ
हम लोग ( सोमपीतये ) पदार्थों के उत्तम भोग के लिए ( विश्वान् ) समस्त ( देवान् ) दिव्य गुणों से युक्त, (मरुतः) व्यवहार, व्यापारादि के साधक वायुगण को ( हवामहे ) उपयोग करें । वे ( पृश्निमातरः ) अन्तरिक्ष में उत्पन्न वायुगण ( उग्राः ) वेगवान् होते हैं । इसी प्रकार ( सोमपीतये ) ऐश्वर्यों के भोग के लिए ( विश्वान् देवान् मरुतः ) समस्त विजयशील सैनिक वीरपुरुषों को ( हवामहे ) हम आदर करें और वे ( पृश्निमातरः ) आदित्य के समान समस्त प्रजाओं से साररूप कर को लेने वाले राजा से बनाये गये अथवा पृथिवी माता से उत्पन्न होने हारे ( उग्राः हि ) निश्चय से बड़े बलवान् हों । अध्यात्म में—( सोमपीतये ) अध्यात्म आनन्द रस पान के लिए समस्त प्राणगणों को वश करें । वे वड़े बलवान् हैं । इति नवमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
वायू आकाशात उत्पन्न होऊन आकाशात गमनागमन करतात, ते तेजस्वी स्वभावाचे असतात. त्यामुळेच विद्वान लोक कार्यासाठी त्यांचा स्वीकार करतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
We invoke all the divinities of nature and humanity, and we invoke the Maruts, fierce children of mother skies, all for a drink of soma — to celebrate our creation of power by yajna and join our prayer for protection by Grace.
Subject of the mantra
Then, what kind of they are, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(hi)=Due to which reason craft practices are obtained with actionable knowledge , (ugrāḥ) =with sharpness or excellent velocity, [aura]=and, (pṛśnimātaraḥ)=whose cause of creation is sky or space, (viśvān)=all, (devān)=segments of the air enlightening excellent virtues, (havāmahe)=we compete for the accomplishment of knowledge.
English Translation (K.K.V.)
Due to which reason craft practices are obtained with actionable knowledge with excellent velocity and whose cause of creation is sky or space. We compete for the accomplishment of knowledge with those all segments of the air enlightening excellent virtues.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Due to which reason this air, originating from the sky, is coming and going from here to there and is of fast nature, so learned people accept them for work.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are they is taught in the tenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We desirous of knowledge, invoke the Maruts (winds) which are fierce, rapid and powerful and which are born out of the firmament, helpful in the functions of arts and industries with the combination of knowledge and action, in order to enjoy all objects properly
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मरुतः) ज्ञानक्रियानिमित्तेन शिल्पव्यवहारमापकान् । मरुत इति पदनामसु पठितम् ( निघ० ५.५ ) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते || = Winds which are helpful in the functions of arts, crafts and industries. (पृश्निमातरः) पृश्नि:-आकाशम् अन्तरिक्षं माता-उत्पत्ति निमित्तं येषां ते || = Having their origin in the firmament. (सोमपीतये) पदार्थानां यथावद् भोगाय = For the legitimate enjoyment of all articles. पृश्निरिति साधारणनामसु (निघ० १.४)
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Learned persons accept for various purposes, these winds which move from place to place and are of fierce and powerful nature born out of the sky.
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