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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रोमरुत्वान् छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    म॒रुत्व॑न्तं हवामह॒ इन्द्र॒मा सोम॑पीतये। स॒जूर्ग॒णेन॑ तृम्पतु॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒रुत्व॑न्तम् । ह॒वा॒म॒हे॒ । इन्द्र॒म् । आ । सोम॑ऽपीतये । स॒ऽजूः । ग॒णेन॑ । तृ॒म्प॒तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मरुत्वन्तं हवामह इन्द्रमा सोमपीतये। सजूर्गणेन तृम्पतु॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मरुत्वन्तम्। हवामहे। इन्द्रम्। आ। सोमऽपीतये। सऽजूः। गणेन। तृम्पतु॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वायुसहचारीन्द्रगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथाऽस्मिन् संसारे वयं सोमपीतये यं मरुत्वन्तमिन्द्रं हवामहे, यः सजूर्गणेनास्मानातृम्पतु समन्तात् तर्पयति तथा तं यूयमपि सेवध्वम्॥७॥

    पदार्थः

    (मरुत्वन्तम्) मरुतः सम्बन्धिनो विद्यन्ते यस्य तम्। अत्र सम्बन्धेऽर्थे मतुप्। तसौ मत्वर्थे। (अष्टा०१.४.१९) इति भत्वाज्जस्त्वाभावः। (हवामहे) गृह्णीमः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुर्न। (इन्द्रम्) विद्युतम् (आ) समन्तात् (सोमपीतये) प्रशस्तपदार्थभोगनिमित्ताय (सजूः) समानं सेवनं यस्य सः। इदं जुषी इत्यस्य क्विबन्तं रूपं, समानस्य छन्दस्य० इति समानस्य सकारादेशश्च। (गणेन) वायुसमूहेन (तृम्पतु) प्रीणयति। अत्र लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्नैव कदाचिदपि सहकारिणा वायुना विनाऽग्निः प्रदीपयितुं शक्यते, न चैवंभूतया विद्युता विना कस्यचित् पदार्थस्य वृद्धिः सम्भवतीति वेद्यम्॥७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में वायु के सहचारी इन्द्र के गुण उपदेश किये हैं-

    पदार्थ

    हे मनुष्य लोगो ! जैसे इस संसार में हम लोग (सोमपीतये) पदार्थों के भोगने के लिये जिस (मरुत्वन्तम्) पवनों के सम्बन्ध से प्रसिद्ध होनेवाली (इन्द्रम्) बिजुली को (हवामहे) ग्रहण करते हैं (सजूः) जो सब पदार्थों में एकसी वर्तनेवाली (गणेन) पवनों के समूह के साथ (नः) हम लोगों को (आतृम्पतु) अच्छे प्रकार तृप्त करती है, वैसे उसको तुम लोग भी सेवन करो॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जिस सहायकारी पवन के विना अग्नि कभी प्रज्वलित होने को समर्थ और उक्त प्रकार बिजुली रूप अग्नि के विना किसी पदार्थ की बढ़ती का सम्भव नहीं हो सकता, ऐसा जानें॥७॥

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    विषय

    अब इस मन्त्र में वायु के सहचारी इन्द्र के गुण उपदेश किये हैं।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्याः यथा अस्मिन् संसारे वयं सोमपीतये यं मरुत्वन्तम् इन्द्रम् हवामहे, यः सजूः गणेन अस्मान् आ तृम्पतु समन्तात् तर्पयति तथा तं यूयम् अपि सेवध्वम्॥७॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्याः)=मनुष्य लोगो ! (यथा)=जैसे, (अस्मिन्)=इस, (संसारे)=संसार में, (वयम्)=हम, (सोमपीतये) प्रशस्तपदार्थभोगनिमित्ताय=पदार्थों के भोगने के लिये, (यम्)=जिस, (मरुत्वन्तम्) मरुतः सम्बन्धिनो विद्यन्ते यस्य तम्=जिसमें पवनों के सम्बन्ध हों, ऐसे, (इन्द्रम्) विद्युतम्= विद्युत को, (हवामहे) गृह्णीमः=ग्रहण करते हैं, (यः)=जो, (सजूः) समानं सेवनं यस्य सः=सब पदार्थों में एकसी वर्तनेवाली, (गणेन) वायुसमूहेन=पवनों के समूह के साथ, (अस्मान्)=हम लोगों को, (आ) समन्तात्=अच्छे प्रकार से, (तृम्पतु) प्रीणयति=तृप्त करती है, (तथा)=वैसे ही, (तम्)=उसका, (यूयम्)=तुम, (अपि)=भी, (सेवध्वम्)=सेवन करो॥७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जिस सहायकारी पवन के विना अग्नि कभी प्रज्वलित नहीं हो सकती है। इसी प्रकार बिजली रूप के विना किसी पदार्थ की बढ़ती का सम्भव नहीं हो सकती है, ऐसा जानें॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्याः) मनुष्य लोगो ! (यथा) जैसे (अस्मिन्) इस (संसारे) संसार में (वयम्) हम (सोमपीतये) पदार्थों के भोगने के लिये (यम्) जिसमें (मरुत्वन्तम्) पवनों के सम्बन्ध हों ऐसे (इन्द्रम्) विद्युत को (हवामहे) ग्रहण करते हैं। (यः) जो (सजूः)  सब पदार्थों में एक से वर्तने वाले (गणेन) पवनों के समूह के साथ (अस्मान्) हम लोगों को (आ) अच्छे प्रकार से (तृम्पतु) तृप्त करती है, (तथा) वैसे ही (तम्) उसका (यूयम्) तुम (अपि) भी (सेवध्वम्) सेवन करो॥७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (मरुत्वन्तम्) मरुतः सम्बन्धिनो विद्यन्ते यस्य तम्। अत्र सम्बन्धेऽर्थे मतुप्। तसौ मत्वर्थे। (अष्टा०१.४.१९) इति भत्वाज्जस्त्वाभावः। (हवामहे) गृह्णीमः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुर्न। (इन्द्रम्) विद्युतम् (आ) समन्तात् (सोमपीतये) प्रशस्तपदार्थभोगनिमित्ताय (सजूः) समानं सेवनं यस्य सः। इदं जुषी इत्यस्य क्विबन्तं रूपं, समानस्य छन्दस्य० इति समानस्य सकारादेशश्च। (गणेन) वायुसमूहेन (तृम्पतु) प्रीणयति। अत्र लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥७॥
    विषयः- अथ वायुसहचारीन्द्रगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- हे मनुष्या यथाऽस्मिन् संसारे वयं सोमपीतये यं मरुत्वन्तमिन्द्रं हवामहे, यः सजूर्गणेनास्मानातृम्पतु समन्तात् तर्पयति तथा तं यूयमपि सेवध्वम्॥७॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्नैव कदाचिदपि सहकारिणा वायुना विनाऽग्निः प्रदीपयितुं शक्यते, न चैवंभूतया विद्युता विना कस्यचित् पदार्थस्य वृद्धिः सम्भवतीति वेद्यम्॥७॥

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    विषय

    मरुत्वान् इन्द्र

    पदार्थ

    १. आध्यात्मिक प्रकरण में 'इन्द्र' जीवात्मा है और 'मरुत्' प्राण हैं । आधिदैविक जगत् में 'इन्द्र' सूर्य था और 'मरुतः' वायुएँ थीं । आधिभौतिक क्षेत्र में 'इन्द्र' राजा है और 'मरुत्' उसके सैनिक । जैसे राजा सैनिकों के द्वारा ही विजय प्राप्त करता है और जैसे सूर्य विविध वायुओं के प्रकारों से ही शोधन व प्राणसंचार का कार्य करता है उसी प्रकार जीवात्मा भी प्राणसाधना से ही वासनाओं पर विजय पाता है । 

    २. इसलिए मन्त्र में कहते हैं कि (मरुत्वन्तम् इन्द्रम्) - प्राणापानोंवाले इन्द्र को - जितेन्द्रिय पुरुष को (सोमपीतये) - सोम के पान के लिए , शरीर में ही शक्ति के संरक्षण के लिए (आ , हवामहे) - सब प्रकार से पुकारते हैं , अर्थात् हमारी एक ही कामना है कि हम जितेन्द्रिय बनकर प्राणसाधना द्वारा वासनाओं पर विजय पाएँ और सोम का नाश न होने दें । यह 'इन्द्र' (गणेन) - मरुतों के गण के (सजूः) - साथ प्रीतिपूर्वक उत्तम कर्मों का सेवन करता हुआ (तृम्पतु) - सोम के पान से तृप्ति का अनुभव करे - जीवन में आनन्द प्राप्त करे । वस्तुतः इन प्राणों की साधना के बिना सोमपान सम्भव भी तो नहीं । सोमपान तो जब भी होगा , इनके साथ ही होगा । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रशस्त प्राणोंवाले बनें । इस प्राणगण के साथ शरीर में सोम का रक्षण करते हुए तृप्ति का अनुभव करें ।

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    विषय

    मरुत्वान् इन्द्र, सेनापति ।

    भावार्थ

    (सोमपीतये) उत्तम वैज्ञानिक पदार्थों के सुख भोग करने के लिए हम लोग (मरुत्वन्तम्) वायुओं के स्वामी (इन्द्रम) विद्युत् को ( हवामहे ) ग्रहण करें । वह ( गणेन सजूः ) वायुगण के साथ समान रूप से का सेवन करने योग्य होकर ( तृस्पतु ) सबको तृप्त करे । ( मरुत्वन्तं ) वायु के समान तीव्र, वेगवान्, बलवान्, धीर पुरुषों के स्वामी ( इन्द्रम् ) शत्रुहन्ता वीरपुरुष राजा सेनापति को (हवामहे) नियुक्त करें । (गणेन सजूः) अपने सैनिकगणों, दस्तों के साथ एक समान वेग से जाने वाला वह सदा ( तृम्पतु ) तृप्त, प्रसन्न रहे और राष्ट्र को भी पूर्ण करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. वायूच्या साह्याखेरीज अग्नी प्रज्वलित होऊ शकत नाही. विद्युतरूपी अग्नीशिवाय कोणत्याही पदार्थाची वाढ होऊ शकत नाही, हे माणसांनी जाणावे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    We invoke Indra, electric energy of nature which carries the energy of the Maruts, tempestuous winds of higher skies. May the electric energy, omnipresent in nature and co-operative with the winds, bless us with comfort and happiness in life.

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    Subject of the mantra

    Now, in this mantra the qualities of the associate of air, Indra (electricity) have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ)= human beings, (yathā)=as, (asmin)=this, (saṃsāre)=in the world, (vayam)=we, (somapītaye)=for consumption of the substances, (yam)=in which, (marutvantam)=having relations with air, such, (indram)=to electricity, (havāmahe)=accept,(yaḥ)=that, (sajūḥ)=alike in all substances, (gaṇena)=with the group of air segments, (asmān)=to us, (ā)=well, (tṛmpatu)=satisfies, (tathā)=in the same way, (tam) =that, (yūyam)=you all, (api)=also, (sevadhvam)=use.

    English Translation (K.K.V.)

    O human beings! As in this world, we for consumption of the substances, which are having relations with the air, accept such electricity. That alike in all the substances with the group of air segments satisfiy us well, in the same way, you also use that.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is latent vocal simile as a figurative in this mantra. Human beings deserve that without whose help wind and fire can never ignite. Similarly, without the form of electricity, it is not possible to grow any substance, know this.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the attributes of Indra (electricity) which is associated with Vayu (air) are taught in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As we invoke Indra (electricity) associated with Vayu (air) in this world for the legitimate enjoyment of all objects, which (electricity) gladdens us from all sides, along the band of winds, so you should also do.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मरुत्वन्तम् ) मरुतः सम्बन्धिनो विद्यन्ते यस्य तम् । अत्र सम्बन्धेऽर्थे मतुप् | तसौ मत्वर्थे (अष्टा० १.४.१९ ) इति भत्वाज्जस्त्वाभावः ॥ = Associated with winds (इन्द्रम्) विद्युतम् = Electricity. (सजू:) समानं सेवनं यस्य सः । इदं जुषी इत्यस्य क्विबन्तं रूपं समानस्य छन्दस्यमूर्द्धप्रभृत्युदर्केषु (अष्टा० ६.३.८४) इति समानस्य सकारादेशः । = Along with. (सोमपीतये) प्रशस्तपदार्थभोगनिमित्ताय = For the legitimate or admirable enjoyment of the things. (तृम्पतु ) मीणयति अत्र लडथे लोट् अन्तर्गतोण्यर्थश्च Satisfies or gladdens.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should know that it is not possible to kindle fire without the aid of the wind and the growth or development of substances is not possible without Indra or electricity.

    Translator's Notes

    जुषी-प्रीतिसेवनयोः सोमा:सूयन्ते उत्पद्यन्ते ये ते पदार्थाः षु प्रसवैश्वर्ययोः इतिधातोः अर्तिस्तु सु हु स ध क्षि क्षु भा या वा पदिय-क्षिनीभ्यो मन् (उणादि सू० १.१४०) इति मन्- Created objects तृप-प्रीणने To satisfy or gladden. Rishi Dayananda has taken Indra here in the sense of विद्युत or electricity for which the following authorities from the Brahmanas may be quoted. In the Kaushitaki Brahmana of the Rigveda, it is stated in 6.9 यदशनिरिन्द्रस्तेन (कौषीतकी० ६. ९) In the Shatapath Brahmana 11.6.3.9 it is stated रतनयित्नुरेवेन्द्रः So the word Indra is used for electricity as well as lightning.

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