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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 16
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - आपः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒म्बयो॑ य॒न्त्यध्व॑भिर्जा॒मयो॑ अध्वरीय॒ताम्। पृ॒ञ्च॒तीर्मधु॑ना॒ पयः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒म्बयः॑ । य॒न्ति॒ । अध्व॑ऽभिः । जा॒मयः॑ । अ॒ध्व॒रि॒ऽय॒ताम् । पृ॒ञ्च॒तीः । मधु॑ना । पयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम्। पृञ्चतीर्मधुना पयः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अम्बयः। यन्ति। अध्वऽभिः। जामयः। अध्वरिऽयताम्। पृञ्चतीः। मधुना। पयः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 16
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जलगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    यथा बन्धूनां जामयो बन्धवोऽनुकूलाचरणैः सुखानि सम्पादयन्ति, तथैवेमा अम्बय आपो अध्वरीयतामस्माकमध्वभिर्मधुना पयः पृञ्चतीः स्पर्शयन्त्यो यन्ति॥१६॥

    पदार्थः

    (अम्बयः) रक्षणहेतव आपः (यन्ति) गच्छन्ति (अध्वभिः) मार्गैः (जामयः) बन्धव इव (अध्वरीयताम्) आत्मनोऽध्वरमिच्छतामस्माकम्। अत्र न छन्दस्यपुत्रस्य। (अष्टा०७.४.३५) अपुत्रादीनामिति वक्तव्यम् (अष्टा०वा०७.४.३५) इति वचनादीकारनिषेधो न भवति। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमात् कव्यध्वरपृतनस्यर्चि लोपः। (अष्टा०७.४.३९) इत्यकारलोपोऽपि न भवति (पृञ्चतीः) स्पर्शयन्त्यः। अत्र सुपां सुलुग्० इति पूर्वसवर्णादेशोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (मधुना) मधुरगुणेन सह (पयः) सुखकारकं रसम्॥१६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा बन्धवः स्वबन्धून् सम्पोष्य सुखयन्ति, तथेमा आप उपर्य्यधो गच्छन्त्यः सत्यो मित्रवत् प्राणिनां सुखानि सम्पादयन्ति, नैताभिर्विना केषांचित् प्राण्यप्राणिनामुन्नतिः सम्भवति, तस्मादेताः सम्यगुपयोजनीयाः॥१६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में जल के गुण प्रकाशित किये हैं-

    पदार्थ

    जैसे भाइयों को (जामयः) भाई लोग अनुकूल आचरण सुख सम्पादन करते हैं, वैसे ये (अम्बयः) रक्षा करनेवाले जल (अध्वरीयताम्) जो कि हम लोग अपने आप को यज्ञ करने की इच्छा करते हैं, उनको (मधुना) मधुरगुण के साथ (पयः) सुखकारक रस को (अध्वभिः) मार्गों से (पृञ्चतीः) पहुँचानेवाले (यन्ति) प्राप्त होते हैं॥१६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बन्धुजन अपने भाई को अच्छी प्रकार पुष्ट करके सुख करते हैं, वैसे ये जल ऊपर-नीचे जाते-आते हुए मित्र के समान प्राणियों के सुखों का सम्पादन करते हैं और इनके विना किसी प्राणी वा अप्राणी की उन्नति नहीं हो सकती। इससे ये रस की उत्पत्ति के द्वारा सब प्राणियों को माता पिता के तुल्य पालन करते हैं॥१६॥

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    विषय

    अब इस मन्त्र में जल के गुण प्रकाशित किये हैं।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यथा बन्धूनां जामयः बन्धवः अनुकूलाचरणैः सुखानि सम्पादयन्ति, तथा एव इमाः अम्बय आपः अध्वरीयताम् अस्माकम् अध्वभिः मधुना पयः पृञ्चतीः स्पर्शयन्त्यः यन्ति॥१६॥

    पदार्थ

    (यथा)=जैसे, (बन्धूनाम्)=भाइयों को, (जामयः) बन्धव इव=भाइयों जैसे, (अनुकूलाचरणैः)=अनुकूल आचरण के द्वारा, (सुखानि)=सुखों को, (सम्पादयन्ति)=सम्पादित करते हैं, (तथा)=वैसे, (एव)=ही, (इमाः)=ये, (अम्बयः) रक्षणहेतव आपः=रक्षा करनेवाले जल, (अध्वरीयताम्) आत्मनोऽध्वरमिच्छतामस्माकम्=जो हम लोग अपने आप को यज्ञ करने की इच्छा करते हैं, उनको, (अस्माकम्)=हमारे, (अध्वभिः) मार्गैः =मार्गों से, (मधुना) मधुरगुणेन सह=मधुरगुण के साथ, (पयः) सुखकारकं रसम्=सुखकारक रस को,  (पृञ्चतीः)=पहुँचानेवाले,  (यन्ति) गच्छन्ति=प्राप्त होते हैं॥१६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे बन्धुजन अपने बन्धुओं को अच्छी प्रकार पुष्ट करके सुखी होते करते हैं, वैसे ये जल ऊपर-नीचे जाते-आते हुए मित्र के समान प्राणियों के सुखों का सम्पादन करते हैं और इनके विना किसी प्राणी या अप्राणी की उन्नति नहीं हो सकती है। इसलिये ये अच्छी तरह से उपयोग किये जाने योग्य हैं॥१६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यथा) जैसे हम (बन्धूनाम्) भाइयों को (जामयः)  भाइयों जैसे, (अनुकूलाचरणैः) अनुकूल आचरण के द्वारा (सुखानि) सुखों को (सम्पादयन्ति) सम्पादित करते हैं, (तथा) वैसे (एव) ही (इमाः) ये (अम्बयः)  रक्षा करने वाले जल  (अध्वरीयताम्) जो हम लोग अपने यज्ञ करने की इच्छा करते हैं, उनको (अस्माकम्) हमारे (अध्वभिः) मार्गों से (मधुना) मधुर गुण के साथ (पयः) सुखकारक रस को  (पृञ्चतीः) पहुँचाने वाले  (यन्ति)  प्राप्त होते हैं॥१६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अम्बयः) रक्षणहेतव आपः (यन्ति) गच्छन्ति (अध्वभिः) मार्गैः (जामयः) बन्धव इव (अध्वरीयताम्) आत्मनोऽध्वरमिच्छतामस्माकम्। अत्र न छन्दस्यपुत्रस्य। (अष्टा०७.४.३५) अपुत्रादीनामिति वक्तव्यम् (अष्टा०वा०७.४.३५) इति वचनादीकारनिषेधो न भवति। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमात् कव्यध्वरपृतनस्यर्चि लोपः। (अष्टा०७.४.३९) इत्यकारलोपोऽपि न भवति (पृञ्चतीः) स्पर्शयन्त्यः। अत्र सुपां सुलुग्० इति पूर्वसवर्णादेशोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (मधुना) मधुरगुणेन सह (पयः) सुखकारकं रसम्॥१६॥
    विषयः- अथ जलगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- यथा बन्धूनां जामयो बन्धवोऽनुकूलाचरणैः सुखानि सम्पादयन्ति, तथैवेमा अम्बय आपो अध्वरीयतामस्माकमध्वभिर्मधुना पयः पृञ्चतीः स्पर्शयन्त्यो यन्ति॥१६॥

    भावार्थः(महर्षिकृत)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा बन्धवः स्वबन्धून् सम्पोष्य सुखयन्ति, तथेमा आप उपर्य्यधो गच्छन्त्यः सत्यो मित्रवत् प्राणिनां सुखानि सम्पादयन्ति, नैताभिर्विना केषांचित् प्राण्यप्राणिनामुन्नतिः सम्भवति, तस्मादेताः सम्यगुपयोजनीयाः॥१६॥

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    विषय

    उन्नति+माधुर्य

    पदार्थ

    १. उल्लिखित मन्त्र के अनुसार जब मनुष्य कृषि आदि सात्त्विक कमों को अपनाता है तो इन (अध्वरीयताम्) - [अध्वर] हिंसाशून्य कर्मों को अपनानेवाले लोगों की (अम्बयः) - माताएँ तथा (जामयः) - बहिनें (अध्वभिः यन्ति) - मार्गों से चलती हैं , अर्थात् इनके घरों में सदाचरण बना रहता है , सबकी वृत्ति सुन्दर बनी रहती है । गीता [१/४१] में 'अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः' - इन शब्दों में कहा गया है कि 'अधर्म का प्राबल्य होने पर कुलीन स्त्रियाँ भी दूषित हो जाती हैं । परन्तु इन अध्वरों के अपनानेवाले लोगों के घरों में ऐसी आशंका नहीं रहती । इन अध्वरों के अपनानेवालों की माताएँ व बहिनें सदा मार्ग पर चलती हैं , मार्ग से विचलित नहीं होती । 

    २. ये अपने जीवनों में (मधुना) - मधु के साथ (पयः) - दूध का (पृञ्चतीः) - सम्पर्क करती हुई होती हैं । इनका भोजन यवों के साथ दूध व शहद होता है । अथवा ये (पयः) -  आप्यायन को - अपने वर्धन को , अपनी उन्नतियों को (मधुना पृञ्चतीः) - मधु से सम्पृक्त करती हुई होती हैं । उन्त्रत होकर ये मधुर बनी रहती हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - यज्ञशील पुरुषों की माताएँ व बहिनें सदा सुमार्ग से चलती हैं और अपनी उन्नति को माधुर्य से जोड़े रखती हैं । इनका भोजन यव , मधु व दूध आदि सात्त्विक पदार्थ होते हैं । 

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    विषय

    आप्त पुरुषों, जलों और प्रजाजनों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( अम्बयः ) जीवन की रक्षा करनेवाली जलधारायें शरीर में रक्त या प्राण की धाराएँ ( जामयः ) भगिनियों के समान ( अध्वरीयतां ) अपने अहिंसित जीवन को चाहनेवाले हम जीवों के ( अध्वभिः ) मार्गों से ( मधुना ) मधुर गुण से युक्त ( पयः ) पुष्टिकर रस को ( पृञ्चतीः ) युक्त करती हुई ( यन्ति ) गति करती हैं । प्रजापक्ष में—(अध्वरीयतां अध्वभिः) प्रजा का नाश न चाहने वाले प्रजापति राजाओं के बनाये मार्गों से (अम्बयः) एक दूसरे की रक्षक (जामयः) प्रजाएँ बन्धु, भगिनियों के समान ( मधुना पयः पृञ्चतीः यन्ति ) अन्न से राष्ट्र को पुष्ट करती रहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. जसे बंधुगण आपल्या बंधूंना चांगल्या प्रकारे पुष्ट करून सुखी करतात तशा जलधारा वर-खाली प्रवाहित होऊन मित्राप्रमाणे सुखी करतात. त्यांच्या शिवाय कोणत्याही प्राण्याची व अप्राण्याची उन्नती होऊ शकत नाही. त्यामुळे हे जल रसाची उत्पत्ती करून सर्व प्राण्यांना माता व पित्याप्रमाणे पालन करते. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May the motherly waters, protectors of humanity, flow by the same paths, the flow mixing with honey-sweets of the earth, performing part of the creative yajna for us.

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    Subject of the mantra

    Now, in this mantra qualities of water have been elucidated.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā)=As, (bandhūnām)=to brothers, (jāmayaḥ)=brother like, (anukūlācaraṇaiḥ)=by friendly conduct, (sukhāni)=the delights, (sampādayanti)=execute, (tathā)=in the same way, (eva)=only, (imāḥ)=these, (ambayaḥ)=protecting water, (adhvarīyatām)=to those of us who desire to have their yajnas, (asmākam)=our, (adhvabhiḥ)=through paths, (madhunā)=with sweet quality, (payaḥ)=to pleasant juice, (pṛñcatīḥ)=deliverers, (yanti)=are received.

    English Translation (K.K.V.)

    As we bring out the delights to brothers, with brother like friendly conduct, in the same way only, these protecting waters do to those of us who desire to have their yajan, get deliverers of the pleasant juice through the paths with sweet quality.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is latent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as kinsmen make their kinsmen happy by strengthening them well, in the same way these waters, moving up and down, like friends, provide the happiness of living beings and without them, no creature or non-living can progress. That's why they are well usable.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the properties of water are taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As kinsmen always cause happiness to their kith and kin by their suitable conduct, in the same manner, these waters which are protectors of the people who are desirous of offering non-violent sacrifices, flow by the paths of the Yajnas qualifying or mixing with their sweetness a sap causing happiness to us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अम्बयः) रक्षणहेतवः आपः । Waters with protective powers. Rishi Dayananda derives the word अम्बयः from अवरक्षणदिषु | Sayanacharya interprets the word अम्बयः as मातृस्थानीयाप: Mother like waters. He derives it from अबि-शब्दे though the meaning of sound or speech is not found in the term. Rishi Dayananda's interpretation seems more close to the root meaning. (अध्वरीयताम् ) आत्मन: अध्वरमिच्छताम् = Desiring non-violent sacrifices. (अव्वर इति यज्ञ नाम ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधः इति यास्काचार्यो निरुक्ते १.७ ) (पंचती:) स्पर्शयन्त्यः- Causing to touch or mixing. (पय:) सुखकारकं रसम् = Sap causing happiness.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As kinsmen always nourish and gladden their relatives, in the same manner, these waters going up and down cause happiness to all beings like friends. Without them, it is not possible for any living or non-living (inanimate) object to grow. Therefore they should be properly utilized by all.

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