ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 18
अ॒पो दे॒वीरुप॑ ह्वये॒ यत्र॒ गावः॒ पिब॑न्ति नः। सिन्धु॑भ्यः॒ कर्त्वं॑ ह॒विः॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पः । दे॒वीः । उप॑ । ह्व॒ये॒ । यत्र॑ । गावः॑ । पिब॑न्ति । नः॒ । सिन्धु॑ऽभ्यः । कर्त्व॑म् । ह॒विः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपो देवीरुप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः। सिन्धुभ्यः कर्त्वं हविः॥
स्वर रहित पद पाठअपः। देवीः। उप। ह्वये। यत्र। गावः। पिबन्ति। नः। सिन्धुऽभ्यः। कर्त्वम्। हविः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 18
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
यस्मिन् व्यवहारे गावः सिन्धुभ्यो देवीरपः पिबन्ति, ता नोऽस्माकं हविः कर्त्वमहमुपह्वये॥१८॥
पदार्थः
(अपः) या आप्नुवन्ति सर्वान् पदार्थान् ताः (देवीः) दिव्यगुणवत्त्वेन दिव्यगुणप्रापिकाः (उप) उपगमार्थे (ह्वये) स्वीकुर्वे (यत्र) (गावः) किरणाः (पिबन्ति) स्पृशन्ति (नः) अस्माकम् (सिन्धुभ्यः) समुद्रेभ्यो नदीभ्यो वा (कर्त्वम्) कर्तुम्। अत्र कृत्यार्थे तवै० इति त्वन्प्रत्ययः। (हविः) हवनीयम्॥१८॥
भावार्थः
सूर्य्यस्य किरणा यावज्जलं छित्त्वा वायुनाभित आकर्षन्ति, तावदेव तस्मान्निवृत्य भूम्योषधीः प्राप्नोति, विद्वद्भिस्तावज्जलं पानस्नानशिल्पकार्यादिषु संयोज्य नानाविधानि सुखानि सम्पादनीयानि॥१८॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी वे जल किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
(यत्र) जिस व्यवहार में (गावः) सूर्य की किरणें (सिन्धुभ्यः) समुद्र और नदियों से (देवीः) दिव्यगुणों को प्राप्त करनेवाले (अपः) जलों को (पिबन्ति) पीती हैं, उन जलों को (नः) हम लोगों के (हविः) हवन करने योग्य पदार्थों के (कर्त्वम्) उत्पन्न करने के लिये मैं (उपह्वये) अच्छे प्रकार स्वीकार करता हूँ॥१८॥
भावार्थ
सूर्य की किरणें जितना जल छिन्न-भिन्न अर्थात् कण-कण कर वायु के संयोग से खैंचती हैं, उतना ही वहाँ से निवृत्त होकर भूमि और ओषधियों को प्राप्त होता है। विद्वान् लोगों को वह जल, पान, स्नान और शिल्पकार्य आदि में संयुक्त कर नाना प्रकार के सुख सम्पादन करने चाहिये॥१८॥
विषय
फिर भी वे जल किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यस्मिन् व्यवहारे गावः सिन्धुभ्यः देवीः अपः पिबन्ति, ता नः अस्माकं हविः कर्त्वम् अहम् उपह्वये॥१८॥
पदार्थ
(यस्मिन्)=जिस, (व्यवहारे)=व्यवहार में, (गावः) किरणाः=सूर्य की किरणें, (सिन्धुभ्यः) समुद्रेभ्यो नदीभ्यो वा= समुद्र और नदियों से, (देवीः) दिव्यगुणवत्त्वेन दिव्यगुणप्रापिकाः=दिव्यगुणों को प्राप्त करने वाले, (अपः) या आप्नुवन्ति सर्वान् पदार्थान् ताः=जो सब पदार्थों को प्राप्त कराते हैं, वे जल, (पिबन्ति)=पीती हैं, (ता)=उनको, (नः-अस्माकम्)=हम लोगों के, (हविः) हवनीयम्=हवन करने योग्य पदार्थों के, (कर्त्वम्) कर्तुम्=उत्पन्न करने के लिये, (अहम्)=मैं, (उप) उपगमार्थे=समीप से, (ह्वये) स्वीकुर्वे= स्वीकार करता हूँ॥१८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
सूर्य की किरणें जितना जल छिन्न-भिन्न करके वायु के द्वारा हर ओर से आकर्षित करती हैं, उतना ही उस से द्वारा वह जल, पान, स्नान और शिल्पकार्य आदि में संयुक्त कर नाना प्रकार के सुखों को सम्पादित करना चाहिये॥१८॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यस्मिन्) जिस (व्यवहारे) व्यवहार में (गावः) सूर्य की किरणें (सिन्धुभ्यः) समुद्र और नदियों से (देवीः) दिव्यगुणों को प्राप्त करने वाले (अपः) जो सब पदार्थों को प्राप्त कराते हैं, वे जल (पिबन्ति) पीती हैं। (ता) उनको (नः) हम लोगों के (हविः) हवन करने योग्य पदार्थों के (कर्त्वम्) उत्पन्न करने के लिये (अहम्) मैं (उप) समीप से (ह्वये) स्वीकार करता हूँ॥१८॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अपः) या आप्नुवन्ति सर्वान् पदार्थान् ताः (देवीः) दिव्यगुणवत्त्वेन दिव्यगुणप्रापिकाः (उप) उपगमार्थे (ह्वये) स्वीकुर्वे (यत्र) (गावः) किरणाः (पिबन्ति) स्पृशन्ति (नः) अस्माकम् (सिन्धुभ्यः) समुद्रेभ्यो नदीभ्यो वा (कर्त्वम्) कर्तुम्। अत्र कृत्यार्थे तवै० इति त्वन्प्रत्ययः। (हविः) हवनीयम्॥१८॥
विषयः- पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- यस्मिन् व्यवहारे गावः सिन्धुभ्यो देवीरपः पिबन्ति, ता नोऽस्माकं हविः कर्त्वमहमुपह्वये॥१८॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- सूर्य्यस्य किरणा यावज्जलं छित्त्वा वायुनाभित आकर्षन्ति, तावदेव तस्मान्निवृत्य भूम्योषधीः प्राप्नोति, विद्वद्भिस्तावज्जलं पानस्नानशिल्पकार्यादिषु संयोज्य नानाविधानि सुखानि सम्पादनीयानि॥१८॥
विषय
गौवों के पान के लिए जल
पदार्थ
१. गतमन्त्र के (देवीः अपः) - दिव्य गुणोंवाले जलों को उस स्थान पर (उपह्वये) - पुकारते हैं (यत्र) - जहाँ (नः) - हमारी (गावः) - गौएँ (पिबन्ति) - इन जलों का पान करती हैं । स्थान - स्थान पर गौ आदि पशुओं के लिए शुद्ध जल पी सकने की व्यवस्था होनी ही चाहिए । वेद कहता है कि 'शुद्धा आपः सुप्रपाणो पिबन्ति' - हमारी गौएँ उत्तम पानस्थलों में शुद्ध जलों को पीनेवाली हों । जल का प्रभाव दूध पर निश्चित रूप से होना ही है , अतः उनके लिए शुद्ध जल का अत्यधिक महत्त्व है ।
२. 'गावः' शब्द का अर्थ 'भूमियाँ' भी है । हम जलों को (सिन्धुभ्यः) - नदियों व नहरों के द्वारा वहाँ पुकारते हैं (यत्र) - जहाँ कि (नः गावः) - हमारी भूमियाँ (हविः कर्त्वम्) - यज्ञिय अन्नों को उत्पन्न करने के लिए इनको (पिबन्ति) - पीती हैं । इन नहरों द्वारा भूमि की सिंचाई करके हम यज्ञिय अन्नों को उत्पन्न करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - जलों को नहरों के द्वारा हम उन स्थलों में पहुँचाएँ जहाँ कि हमारी भूमियाँ इन जलों से सिक्त होकर हविरूप अन्नों को उत्पन्न करें तथा हम ऐसी व्यवस्था करें कि गौओं को शुद्धजल सुप्राप्य हो ।
विषय
आप्त पुरुषों, जलों और प्रजाजनों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( यत्र ) जिन नदियों और नहरों के आश्रय ( नः ) हमारी (गावः) गौवें या भूमिथें (पिबन्ति) जल-पान करती हैं, सींची जाती हैं । हे विद्वान् पुरुषो ! मैं उन (देवीः अपः) गतिशील, उत्तम गुणों वाले जलों को (उप ह्वये) प्राप्त करूँ । और उन ही ( सिन्धुभ्यः ) बड़े बहनेवाले नदी नहरों से ( हविः ) अन्न को ( कर्त्त्वम् ) करने का यत्न करो । आप्त पुरुषों के पक्ष में— मैं उन आप्त पुरुषों को आदर से बुलाऊँ जहाँ हमारी इन्द्रियां और वाणियां सुख प्राप्त करती हैं, उपदेश श्रवण करती हैं। उन समुद्र समान अगाध ज्ञान-सागरों से उपादेय ज्ञान और सुख प्राप्त करने के लिए यत्न करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्यकिरणे जितके जल नष्ट करतात अर्थात सूक्ष्म करून वायूच्या संयोगाने वर खेचतात तितकेच ते तेथून निघून भूमी व औषधींना प्राप्त होते. विद्वान लोकांनी ते पिणे, स्नान करणे व शिल्पकार्य करणे इत्यादीमध्ये संयुक्त करून नाना प्रकारचे सुख प्राप्त केले पाहिजे. ॥ १८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
I invoke the celestial waters whereby the rays of the sun suck up the vapours in order to create holy materials for our yajna.
Subject of the mantra
Even then, what kind of those waters are, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yasmin)=In which, (vyavahāre)=proceeding, (gāvaḥ)=the sun rays, (sindhubhyaḥ)=from the ocean and rivers, (devīḥ)=providers of divine qualities, (apaḥ) =those water, which provide all substances, (pibanti)=absorb, (tā)=to them, (naḥ)=our, (haviḥ)=the substances suitable for yajan, (kartvam) =for producing, (aham)=I, (upa)= closely, (hvaye)=accept.
English Translation (K.K.V.)
In which proceeding the Sun rays absorb those waters from the ocean and rivers, providers of the divine virtues which provide all substances. I accept them closely for producing our substances suitable for yajan.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
As much as the Sun's rays scatter water and are attracted by the wind from all sides, equally by that mixing it in water various kinds of pleasures should be accomplished for drinking, bathing and crafts et cetera.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are those waters is again taught in the next Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I invoke the waters for the performance of Yajna where the rays of the sun touch from the oceans or rivers in order to enjoy happiness which they give.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(देवी:) दिव्यगुणवत्वेन दिव्यगुणप्रापिका: = Divine. (सिन्धुभ्यः) = From the seas and rivers., (कत्वम्) कर्तुम् । अत्र कृत्यार्थे तवैकेन् केन्यत्वनः | (अष्टा० ३. ४. १४) ।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The rays of the sun penetrate all waters and draw all around the waters. Then they get earth and herbs. Wise men should use some water for drinking, bathing and activities connected with arts and industries and thus should enjoy happiness.
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