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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 24
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    सं मा॑ग्ने॒ वर्च॑सा सृज॒ सं प्र॒जया॒ समायु॑षा। वि॒द्युर्मे॑ अस्य दे॒वा इन्द्रो॑ विद्यात्स॒ह ऋषि॑भिः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । मा॒ । अ॒ग्ने॒ । वर्च॑सा । सृ॒ज॒ । सम् । प्र॒ऽजया॑ । सम् । आयु॑षा । वि॒द्युः । मे॒ । अ॒स्य॒ । दे॒वाः । इन्द्रः॑ । वि॒द्या॒त् । स॒ह । ऋषि॑ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा। विद्युर्मे अस्य देवा इन्द्रो विद्यात्सह ऋषिभिः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। मा। अग्ने। वर्चसा। सृज। सम्। प्रऽजया। सम्। आयुषा। विद्युः। मे। अस्य। देवाः। इन्द्रः। विद्यात्। सह। ऋषिऽभिः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 24
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    सोऽग्निः कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    मनुष्यैर्ऋषिभिः सह देवाः विद्वांसः परमात्मा च यदग्ने अग्निर्वर्चसा प्रजयाऽऽयुषा मा मां सृजति संयुनक्ति, यन्मे मम पापपुण्यात्मकं कर्म जन्मनः कारणं विद्युर्विदन्ति विद्यात् वेत्ति च तस्मान्मया तत्सङ्गस्तदुपासना च नित्यं कार्य्या॥२४॥

    पदार्थः

    (सम्) योगार्थे (मा) माम् (अग्ने) विद्युदाख्यः (वर्चसा) दीप्त्या (सृज) सृजति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (सम्) मेलनार्थे (प्रजया) सन्तानादिना (सम्) एकीभावे (आयुषा) जीवनेन (विद्युः) विदन्ति। अत्र लडर्थे लिङ्। (मे) मम जीवस्य (अस्य) मनुष्यपशुवृक्षादिस्थस्य (देवाः) विद्वांसः (इन्द्रः) परमेश्वरः (विद्यात्) वेत्ति। अत्र लडर्थे लिङ्। (सह) सङ्गार्थे (ऋषिभिः) विचारशीलैर्मन्त्रार्थदृष्टिभिः॥२४॥

    भावार्थः

    यदा जीवः पूर्व शरीरं त्यक्त्वोत्तरं प्राप्नोति तदा तेन सह यः स्वाभाविको मानसोऽग्निर्गच्छति स एव पुनः शरीरादिकं प्रकाशयति जीवानां यत्पापं पुण्यं च जन्मकारणमस्ति तदृषिसहिता विद्वांसो जानन्ति नेतरे, परमेश्वरस्तु खलु यथार्थतया सर्वं विदित्वा स्वस्वकर्मानुसारेण जीवान् शरीरसंयुक्तान् कृत्वा फलं भोजयतीति॥२४॥पूर्वसूक्तेनोक्तैरश्व्यादिभिर्वाय्वादीनामनुषङ्गिणामत्रोक्तत्वाद् द्वाविंशेनातीतेन सूक्तार्थेन सहास्य त्रयोविंशस्य सूक्तोक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    वह अग्नि किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि जो (ऋषिभिः) वेदार्थ जाननेवालों के (सह) साथ (देवाः) विद्वान् लोग और (इन्द्रः) परमात्मा (अग्ने) भौतिक अग्नि (वर्चसा) दीप्ति (प्रजया) सन्तान आदि पदार्थ और (आयुषा) जीवन से (मा) मुझे (संसृज) संयुक्त करता है, उस और (मे) मेरे (अस्य) इस जन्म के कारण को जानते और (विद्यात्) जानता है, इससे उनका संग और उसकी उपासना नित्य करें॥२४॥

    भावार्थ

    जब जीव पिछले शरीर को छोड़कर अगले शरीर को प्राप्त होता है, तब उसके साथ जो स्वाभाविक मानस अग्नि जाता है, वही फिर शरीर आदि पदार्थों को प्रकाशित करता है, जो जीवों के पाप-पुण्य और जन्म का कारण है, उसको वे (ऋषि और विद्वान्) ही परमेश्वर के सिवाय जानते हैं, किन्तु परमेश्वर तो निश्चय के साथ यथायोग्य जीवों के पाप वा पुण्य को जानकर, उनके कर्म के अनुसार शरीर देकर, सुख दुःख का भोग कराता ही है॥२४॥पूर्व सूक्त से कहे हुए अश्वि आदि पदार्थों के अनुषङ्गी जो वायु आदि पदार्थ हैं, उनके वर्णन से पिछले बाईसवें सूक्त के अर्थ के साथ इस तेईसवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये॥

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    विषय

    वह अग्नि किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    मनुष्यैः ऋषिभिः सह देवाः विद्वांसः परमात्मा च यत् अग्ने (अग्निः) वर्चसा प्रजया आयुषा मा मां सृजति (संयुनक्ति), यन्मे मम पापपुण्यात्मकं कर्म जन्मनः कारणं विद्युः विदन्ति विद्यात् वेत्ति च तस्मात् मया तत् सङ्गः तत् उपासना च नित्यं कार्य्या॥२४॥

    पदार्थ

    (मनुष्यैः)=मनुष्यों के द्वारा, (ऋषिभिः) विचारशीलैर्मन्त्रार्थदृष्टिभिः=विचारशील वेदार्थ जाननेवालों (सह) सङ्गार्थे=के साथ, (देवाः) विद्वांसः=विद्वान् लोग (च) और (परमात्मा)=परमात्मा, (यत्)=जो, (अग्ने) अग्निः-विद्युदाख्यः=विद्युत् अग्नि, (वर्चसा) दीप्त्या= दीप्ति, (प्रजया)=सन्तान आदि (आयुषा) जीवनेन= जीवन से, (मा) माम्=मुझे, (सृजति) संयुनक्ति=संयुक्त करता है, (यत्)=जो, (मम)=मेरे, (पापपुण्यात्मकम्)=(पाप और पुण्यात्मक, (कर्म)=कर्म हैं, (जन्मनः)=जन्म के, (कारणम्)=कारण, (विद्युः) विदन्ति=जानते हैं, (तस्मात्)=इसलिये, (मया)=मेरे, (तत्)=उस, (सङ्गः)=साथ, (च)=और, (तत्)=उस, (उपासना)=उपासना को, (नित्यम्)=नित्य, (कार्य्या)=करना चाहिये॥२४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

     जब जीव पिछले शरीर को छोड़कर अगले शरीर को प्राप्त होता है, तब उसके साथ जो स्वाभाविक मानस अग्नि जाता है, वही फिर शरीर आदि पदार्थों को प्रकाशित करता है, जो जीवों के पाप-पुण्य और जन्म का कारण है, उसको वे (ऋषि और विद्वान्) ही परमेश्वर के सिवाय जानते हैं। किन्तु परमेश्वर तो निश्चय के साथ यथायोग्य जीवों के पाप वा पुण्य को जानकर, उनके कर्म के अनुसार शरीर देकर, सुख दुःख का भोग कराता ही है ॥२४॥

    विशेष

    पूर्व सूक्त से कहे हुए अश्वि आदि पदार्थों के अनुषङ्गी जो वायु आदि पदार्थ हैं, उनके वर्णन से पिछले बाईसवें सूक्त के अर्थ के साथ इस तेईसवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये ॥२४

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (मनुष्यैः) मनुष्यों के द्वारा (च) और (ऋषिभिः) विचारशील वेदार्थ जाननेवालों (सह)  के साथ (देवाः) विद्वान् लोगों के द्वारा (परमात्मा) परमात्मा (यत्) जो (अग्ने) विद्युत् अग्नि की (वर्चसा)  दीप्ति से (प्रजया) सन्तान आदि (आयुषा)  जीवन से (मा) मुझे (सृजति) संयुक्त करता है। (यत्) जो (मम) मेरे (पापपुण्यात्मकम्) पाप और पुण्यात्मक (कर्म) कर्म हैं, (जन्मनः) जो जन्म के (कारणम्) कारण (विद्युः) जाने जाते हैं, (तस्मात्) इसलिये (मया) मेरे द्वारा (तत्) उस (सङ्गः) सत्सङ्गः (च) और (तत्) उस (उपासना) उपासना को (नित्यम्) नित्य (कार्य्या) किया जाना चाहिये॥२४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सम्) योगार्थे (मा) माम् (अग्ने) विद्युदाख्यः (वर्चसा) दीप्त्या (सृज) सृजति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (सम्) मेलनार्थे (प्रजया) सन्तानादिना (सम्) एकीभावे (आयुषा) जीवनेन (विद्युः) विदन्ति। अत्र लडर्थे लिङ्। (मे) मम जीवस्य (अस्य) मनुष्यपशुवृक्षादिस्थस्य (देवाः) विद्वांसः (इन्द्रः) परमेश्वरः (विद्यात्) वेत्ति। अत्र लडर्थे लिङ्। (सह) सङ्गार्थे (ऋषिभिः) विचारशीलैर्मन्त्रार्थदृष्टिभिः॥२४॥
    विषयः- सोऽग्निः कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- मनुष्यैर्ऋषिभिः सह देवाः विद्वांसः परमात्मा च यदग्ने अग्निर्वर्चसा प्रजयाऽऽयुषा मा मां सृजति संयुनक्ति, यन्मे मम पापपुण्यात्मकं कर्म जन्मनः कारणं विद्युर्विदन्ति विद्यात् वेत्ति च तस्मान्मया तत्सङ्गस्तदुपासना च नित्यं कार्य्या॥२४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यदा जीवः पूर्व शरीरं त्यक्त्वोत्तरं प्राप्नोति तदा तेन सह यः स्वाभाविको मानसोऽग्निर्गच्छति स एव पुनः शरीरादिकं प्रकाशयति जीवानां यत्पापं पुण्यं च जन्मकारणमस्ति तदृषिसहिता विद्वांसो जानन्ति नेतरे, परमेश्वरस्तु खलु यथार्थतया सर्वं विदित्वा स्वस्वकर्मानुसारेण जीवान् शरीरसंयुक्तान् कृत्वा फलं भोजयतीति॥२४॥

    सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)-  पूर्वसूक्तेनोक्तैरश्व्यादिभिर्वाय्वादीनामनुषङ्गिणामत्रोक्तत्वाद् द्वाविंशेनातीतेन सूक्तार्थेन सहास्य त्रयोविंशस्य सूक्तोक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥२४॥

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    विषय

    वर्चस् - प्रजा व आयुष्य

    पदार्थ

     

    १. हे (अग्ने) - अग्निदेव ! गतमन्त्र में वर्णित पयस्वान् अग्ने ! (मा) - मुझे (वर्चसा) - वर्चस् से (संसृज) - संसृष्ट कीजिए , (प्रजया संसृज) - उत्तम प्रजा से संसृष्ट कीजिए , (आयुषा संसृज)  उत्तम आयु व दीर्घजीवन से संसृष्ट कीजिए । सूर्य - रश्मि - भावित जल के ठीक प्रयोग से 'वर्चस् , प्रजा व आयुष्य' की प्राप्ति होती है । 

    २. सूक्त की समाप्ति पर केवल 'अग्ने' शब्द के प्रयोग से यहाँ 'परमात्मा का ग्रहण भी उचित हो सकता है कि हे प्रभो ! मुझे वर्चस , प्रजा व आयुष्य से संसृष्ट कीजिए । यह प्रार्थना सुनकर प्रभु कहते हैं कि (मे) - मेरे (अस्य) - इस 'वर्चस , प्रजा व आयुष्य' को (देवाः) - देव लोग ही (विद्युः) - जान , अर्थात् देव - जलाग्नि - गुण - ज्ञाता बनकर ही कोई व्यक्ति इस प्रकार वर्चस्वी , प्रजावान् व दीर्घायु बन सकता है । ऐसा बनने के लिए मन में दिव्य भावनाओं का होना आवश्यक है । विपरीताग्नियों मनुष्य को अन्दर - ही - अन्दर जला देती हैं । 

    ३. (इन्द्रः) - जितेन्द्रिय पुरुष (ऋषिभिः सह), - [सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे - यजुः । कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम् - अथर्व ०] श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रियों के साथ विद्यात् - इन वर्चस् , प्रजा व आयुष्य वर्द्धक जलाग्नि - विज्ञान को जानें । इनकी प्राप्ति के लिए जितेन्द्रिय और ज्ञानप्रधान बनना आवश्यक है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - देव बनकर मैं वर्चस्वी बनूं । इन्द्र बनकर मैं प्रजावान् बनें और ऋषि बनकर मैं दीर्घायु को प्राप्त करूं । 

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का प्रारम्भ प्राणसाधना द्वारा तथा क्रियाशील बने रहकर सोमपान करने से हुआ है [१] । इस सोमपान के लिए जितेन्द्रिय बनना आवश्यक है [२] । स्नेह व अद्वेष इस सोमपान में सहायक हैं [४] । इन्द्र [जीवात्मा] मरुतों [प्राणों के साथ सोमपान द्वारा आनन्दित होता है [६] । इन प्राणों ने ही सब आसुरी भावनाओं को पराजित करना है [११] । हम इस सात्त्विक वृत्ति के लिए जौ - शहद - दूधादि का प्रयोग करें [१५ - १६] । और जलों के ठीक प्रयोग से नीरोगता व निर्मलता को प्राप्त करते हुए [२१ - २३] वर्चस , प्रजा व आयुष्य से संयुक्त हों [२४] । इस प्रकार जीवन को उत्तम बनाकर प्रजापति के नाम का मनन करें ।

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    विषय

    गुरु शिष्य का वर्णन

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) अग्ने ! परमेश्वर ! अचार्य ! तू ( प्रजया ) प्रजा, और (आयुषा) दीर्घ जीवन से (मा) मुझे (संसृज) वर्चस्वी, प्रजावान् और दीर्घायु कर । ( अस्य मे ) इस मेरे तप, प्रजा और ब्रह्मचर्य के शुभ कर्म को ( देवा: ) विद्वान् गण और ( इन्द्रः ) परमेश्वर और आचार्य भी ( ऋषिभिः सह ) वेदमन्त्रार्थ के वेत्ता गुरुजनों सहित ( विद्यात् ) जाने । इति द्वादशो वर्गः ॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा जीव पूर्वीचे शरीर सोडून पुढचे शरीर प्राप्त करतो तेव्हा त्याच्याबरोबर स्वाभाविक मानस अग्नी जातो तोच पुन्हा शरीर इत्यादी पदार्थांना प्रकाशित करतो. जो जीवाचे पाप व पुण्य आणि जन्माचे कारण आहे, त्यांना परमेश्वरानंतर विद्वान जाणतात; परंतु परमेश्वर निश्चयपूर्वक जीवांच्या पाप-पुण्यांना जाणून त्यांच्या कर्मानुसार शरीर देतो व सुखदुःखांचा भोग करवितो. ॥ २४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, Lord omniscient and omnipotent, recreate me with power and splendour, with family, with good health and age. May the divinities know me as I am. May Indra, lord of splendour and honour, know me, along with all the seers of the universal eye. They know.

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    Subject of the mantra

    What kind of that fire is, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (manuṣyaiḥ)=By the men, (ca)=and, (ṛṣibhiḥ)=thoughtful scholars discerning Vedas, (saha)=with, (devāḥ=by scholars, (paramātmā)=God, (yat)=which, (agne)=electric fire, (varcasā)=by brightness, (prajayā) =with descendants etc. (āyuṣā)=by life, (mā)=to me, (sṛjati)=combine, (yat)=which,(mama)=my, (pāpapuṇyātmakam)=of sins and sacrosanct, (karma)=deeds are, (janmanaḥ)=of birth, (kāraṇam)=cause, (vidyuḥ) =are known, (tasmāt)=so, (mayā)=by me, (tat)=that, (saṅgaḥ)=company of gentlemen, (ca)=and, (tat)=that, (upāsanā)=worship, (nityam)=daily, (kāryyā)=must be done.

    English Translation (K.K.V.)

    Through humans and learned people with thoughtful knowers of Veda’s meanings, God who unites me with descendants etc. and life with the light of electric fire. Which are my sins and virtuous deeds, which are known to be cause of birth, that's why that association of worshipers and that worship should be done regularly by me.

    Footnote

    Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand- The association of the translation of this twenty-third hymn with the translation of the previous twenty-second hymn should be known from the description of the substances like air etc., which are the subsidiary substances of term ‘aśvi’ etc. said from the previous hymn.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    When the living entity leaves the previous body and attains the next body, then the natural mental, born from the mind energy goes with him, that then manifests the body etc., which is the cause of the sins and virtues and birth of the living beings, only they (sages and scholars) know that except the Supreme Lord. But God knows with certainty the sins and virtues of the deserving living beings, by giving them bodies according to their deeds, and makes them suffer from happiness and sorrow.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the nature of this Agni is taught in the 24th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    God and enlightened seers and men know that the fire in the form of electricity confers upon me vigor, progeny and life. They also know that the good or bad actions done by me are the cause of my birth. Therefore I should always keep company with such enlightened persons and have communion with God.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्ने) अग्नि:-विद्युदाख्यः = Fire in the form of electricity. (देवा:) विद्वांसः = Englightened persons. (इन्द्रः) परमेश्वर: = God. (ऋषिभिः) विचार शीलैर्मन्त्रार्थदृष्टिभिः = Thoughtful seers of the Mantras with their secret meanings.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When the soul leaves former body and enters the next, the natural mental fire that accompanies it manifests or reveals the body again. The merits or the sins of the souls that cause birth are known only to the seers or other enlightened persons. Other ordinary or ignorant persons can never know it. It is God alone who thoroughly and perfectly knows all and enables the souls to enjoy the good or bad fruit of those actions uniting them with suitable bodies. This twenty-third hymn has got direct connection with the provirus one.

    Translator's Notes

    विद्वांसो हि देवा: (शत० ३.७.३.१० ) = Learned or enlightened persons. The word Indra stands primarily for God as it is derived from इदि परमैश्वर्ये The Lord of all. In the Rigveda 1.164.46 it is stated Un-ambiguously. इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निभाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ॥ (ऋ० १.१६४.४६ ) Wise men call one God by various names like Indra, Mitra, Varuna, Agni etc. to denote His different attributes. In the Kaushitaki Brahmana of the Rigveda 6. 14 it is clearly stated. तस्मादाह इन्द्रो ब्रह्मेति (कौषी० ६.१४) = Therefore a wise teacher says by the word Indra God is primarily meant. ऋषयो मन्त्र द्रष्टारः अथवा ऋषीणां मन्त्रदृष्टयो भवन्ति (Nirukta 1.20 ). ऋषिदर्शनात् स्तोमान् ददर्शति (निरुक्ते २.११) = Seers of the mantras.

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