ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 13
आ पू॑षञ्चि॒त्रब॑र्हिष॒माघृ॑णे ध॒रुणं॑ दि॒वः। आजा॑ न॒ष्टं यथा॑ प॒शुम्॥
स्वर सहित पद पाठआ । पू॒ष॒न् । चि॒त्रऽब॑र्हिष॒म् । आघृ॑णे । ध॒रुण॑म् । दि॒वः । आ । अ॒ज॒ । न॒ष्टम् । यथा॑ । प॒शुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ पूषञ्चित्रबर्हिषमाघृणे धरुणं दिवः। आजा नष्टं यथा पशुम्॥
स्वर रहित पद पाठआ। पूषन्। चित्रऽबर्हिषम्। आघृणे। धरुणम्। दिवः। आ। अज। नष्टम्। यथा। पशुम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सूर्यलोकगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः
यथा कश्चित्पशुपालो नष्टं पशुं प्राप्य प्रकाशयति तथाऽयमाघृण आघृणिः पूषन्पूषा सूर्यलोको दिवश्चित्रबर्हिषं धरुणमन्तरिक्षं प्राप्याज समतात् प्रकाशयति॥१३॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (पूषन्) पोषयतीति पूषा सूर्यलोकः। अत्रान्तर्गतो णिच्। श्वनुक्षन्पूषन्प्लीहन्। (उणा०१.१५९) अनेनायं निपातितः। (चित्रबर्हिषम्) चित्रमाश्चर्यं बर्हिरन्तरिक्षं भवति यस्मात्तत् (आघृणे) समन्तात् घृणयः किरणा दीप्तयो यस्य सः (धरुणम्) धारणकर्त्री पृथिवी (दिवः) स्वप्रकाशात् (आ) समन्तात् (अज) अजति प्रकाशं प्रक्षिप्य द्योतयति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (नष्टम्) अदृश्यम् (यथा) येन प्रकारेण (पशुम्) गवादिकम्॥१३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा पशुपाला अनेकैः कर्म्मभिः पशून् पोषित्वा दुग्धादिभिर्मनुष्यादीन् सुखयति तथैवायं सूर्यलोको विचित्रैर्लोकैर्युक्तमाकाशं तत्स्थान् पदार्थांश्च स्वस्य किरणैराकर्षणेन पोषित्वा सर्वान् प्राणिनः सुखयतीति॥१३॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अगले मन्त्र में सूर्य्यलोक के गुण प्रकाशित किये हैं-
पदार्थ
जैसे कोई पशुओं का पालनेवाला मनुष्य (नष्टम्) खो गये (पशुम्) गौ आदि पशुओं को प्राप्त होकर प्रकाशित करता है, वैसे यह (आघृणे) परिपूर्ण किरणों (पूषन्) पदार्थों को पुष्ट करनेवाला सूर्यलोक (दिवः) अपने प्रकाश से (चित्रबर्हिषम्) जिससे विचित्र आश्चर्य्यरूप अन्तरिक्ष विदित होता है (धरुणम्) धारण करनेहारे भूगोलों को (आज) अच्छे प्रकार प्रकाश करता है॥१३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पशुओं को पालनेवाले अनेक काम करके, गो आदि पशुओं को पुष्ट करके, उनके दुग्ध आदि पदार्थों से मनुष्यों को सुखी करते हैं, वैसे ही यह सूर्य्यलोक चित्र-विचित्र लोकों से युक्त आकाश वा आकाश में रहनेवाले पदार्थों को, अपनी किरण वा आकर्षण शक्ति से पुष्ट करके प्रकाशित करता है॥१३॥
विषय
अब इस मन्त्र में सूर्य्यलोक के गुण प्रकाशित किये हैं।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यथा कश्चित् पशुपालः नष्टं पशुं प्राप्य प्रकाशयति तथा अयम् आघृणे आघृणिः पूषन् पूषा सूर्यलोकः दिवः चित्रबर्हिषम् धरुणम् अन्तरिक्षम् प्राप्य अज समतात् प्रकाशयति॥१३॥
पदार्थ
(यथा) येन प्रकारेण= जिस प्रकार से (कश्चित्)=कोई, (पशुपालः) पशुपालः=पशु पालक, (नष्टम्) अदृश्यम्= खो गये, (पशुम्) गवादिकम्= गौ आदि पशुओं को, (प्राप्य)= प्राप्त करके, (प्रकाशयति)= प्रकाशित करता है, (तथा)=वैसे ही, (अयम्)=यह, (आघृणे-आघृणिः) समन्तात् घृणयः किरणा दीप्तयो यस्य सः=हर ओर से परिपूर्ण किरणों, (पूषन्) पोषयतीति पूषा सूर्यलोकः= पदार्थों को पुष्ट करनेवाला सूर्यलोक, (दिवः) स्वप्रकाशात्=अपने प्रकाश से, (चित्रबर्हिषम्) चित्रमाश्चर्यं बर्हिरन्तरिक्षं भवति यस्मात्तत्= जिससे विचित्र आश्चर्य्यरूप बाह्य अन्तरिक्ष विदित होता है, (धरुणम्) धारणकर्त्री पृथिवी= धारण करने वाली पृथिवी (अन्तरिक्षम्)=अन्तरिक्षम को, (प्राप्य)=प्राप्त होकर, (अज) अजति प्रकाशं प्रक्षिप्य द्योतयति=प्रकाश को प्रक्षेपित करके प्रकाशित करता है॥१३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पशुओं को पालनेवाला अनेक काम करके, पशुओं को पोषित करके, दुग्ध आदि से मनुष्यों को सुखी करता है, वैसे ही यह सूर्य्यलोक चित्र-विचित्र लोकों से युक्त आकाश को और उस स्थान के पदार्थों को, अपनी किरणों के आकर्षण से पोषित करके समस्त प्राणियों को सुखी करता है॥१३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यथा) जिस प्रकार से (कश्चित्) कोई (पशुपालः) पशु पालक, (नष्टम्) खो गये (पशुम्) गौ आदि पशुओं को, (प्राप्य) प्राप्त करके (प्रकाशयति) प्रकाशित करता है, (तथा) वैसे ही (अयम्) यह (आघृणे) हर ओर से परिपूर्ण किरणों से (पूषन्) पदार्थों को पुष्ट करनेवाला सूर्यलोक (दिवः) अपने प्रकाश (चित्रबर्हिषम्) जिससे विचित्र आश्चर्य्यरूप बाह्य अन्तरिक्ष विदित होता है, (धरुणम्) धारण करने वाली पृथिवी और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्षम को (प्राप्य) प्राप्त होकर (अज) प्रकाश को प्रक्षेपित करके प्रकाशित करता है॥१३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) समन्तात् (पूषन्) पोषयतीति पूषा सूर्यलोकः। अत्रान्तर्गतो णिच्। श्वनुक्षन्पूषन्प्लीहन्। (उणा०१.१५९) अनेनायं निपातितः। (चित्रबर्हिषम्) चित्रमाश्चर्यं बर्हिरन्तरिक्षं भवति यस्मात्तत् (आघृणे) समन्तात् घृणयः किरणा दीप्तयो यस्य सः (धरुणम्) धारणकर्त्री पृथिवी (दिवः) स्वप्रकाशात् (आ) समन्तात् (अज) अजति प्रकाशं प्रक्षिप्य द्योतयति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (नष्टम्) अदृश्यम् (यथा) येन प्रकारेण (पशुम्) गवादिकम्॥१३॥
विषयः- अथ सूर्यलोकगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः- यथा कश्चित्पशुपालो नष्टं पशुं प्राप्य प्रकाशयति तथाऽयमाघृणे आघृणिः पूषन्पूषा सूर्यलोको दिवश्चित्रबर्हिषं धरुणमन्तरिक्षं प्राप्याज समन्तात् प्रकाशयति॥१३॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा पशुपाला अनेकैः कर्म्मभिः पशून् पोषित्वा दुग्धादिभिर्मनुष्यादीन् सुखयति तथैवायं सूर्यलोको विचित्रैर्लोकैर्युक्तमाकाशं तत्स्थान् पदार्थांश्च स्वस्य किरणैराकर्षणेन पोषित्वा सर्वान् प्राणिनः सुखयतीति॥१३॥
विषय
पूषा - आघृणि [शरीर में पुष्टि , मस्तिष्क में दीप्ति]
पदार्थ
१. गतमन्त्रों में प्राणसाधना के द्वारा शरीर में सोम के संयम से एक व्यक्ति शरीर से पुष्ट बनता है , अतः 'पूषा' होता है । यही मस्तिष्क में देदीप्यमान ज्ञानवाला होता है , अतः यह 'आघृणि' रश्मियुक्त बनता है । इसका अन्तिम उद्देश्य प्रभु को पाना ही होना चाहिए , अतः मन्त्र में कहते हैं - हे (पूषन्) - एक - एक अंग के पोषण को प्राप्त करनेवाले जीव ! (आघृणे) - सर्वतः देदीप्यमान ज्ञान की किरणोंवाले साधक ! तू (चित्रबर्हिषम्) - हृदयान्तरिक्ष को उत्तम संज्ञायुक्त करनेवाले [चित्रं बहिः यस्मात्] , (दिवः धरुणम्) - सम्पूर्ण प्रकाश के धारक , सर्वज्ञ प्रभु को (आ अज) - सर्वथा प्राप्त हो [अज - गतौ] । तेरे सम्पूर्ण प्रयत्न प्रभु - प्राप्ति के लिए हैं , यही तेरा ध्येय है ।
२. (यथा( - जैसे एक माता (नष्टं पशुम्) - अदृष्ट हुए - हुए पशु को तन , मन , धन से पूर्ण प्रयास से ढूंढने में लग जाती है उसी प्रकार तू भी उस सर्वद्रष्टा [पश्यतीति पशुः , अभिचाकशीति] प्रभु को जो तेरे हृदयक्षेत्र में ही कहीं विलुप्त हो गया है , दूँढने का प्रयत्न कर और उसे सर्वथा प्राप्त कर ही । तुझे उसे प्राप्त किये बिना शान्ति न मिले । तू उसकी प्राप्ति के लिए अविरतश्रमवाला बन [आ अज] ।
३. वस्तुतः 'पूषन्' व 'आघृणे' - इन सम्बोधनों में प्रभु - प्राप्ति के उपायों का संकेत हो गया है । प्रभु को प्राप्त वही कर सकता है जो शरीर को सबल और मस्तिष्क को दीप्त बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम 'पूषा व आघृणि' बनकर 'चित्रबर्हिष् व दिवो धरुण' प्रभु को प्राप्त करें ।
विषय
राजा का वर्णन ।
भावार्थ
हे (पूषन् ) सबके पोषक ! हे (आघृणे) सब प्रकार से दीप्ति तेजो-युक्त सूर्य के समान तेजस्विन् ! पृथिवी-राष्ट्र ! ( यथा ) जिस प्रकार ( नष्टं पशुम् ) खोये हुए पशु को (आज) खोजकर लाया जाता है उसी प्रकार ( दिवः धरुणम् ) आकाश के धारण करनेवाले उसके आश्रयस्वरूप सूर्य के समान तेजस्वी ( दिवः धरुणम् ) ज्ञानवती राजसभा के आश्रय रूप ( चित्रबर्हिषम् ) विचित्र, अद्भुत वृद्धिशील ऐश्वर्य और प्रजाजन से, या लोकसमूह से युक्त तेजस्वी विद्वान् पुरुष को ( आ अज ) बड़े मान से प्राप्त कर । सूर्य के पक्ष में—( चित्र-बर्हिषम् ) आकाश को चित्रित करने वाले ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे पशुपालक अनेक कामे करून गाय वगैरे पशूंना पुष्ट करून त्यांच्या दूध इत्यादी पदार्थांनी माणसांना सुखी करतात तसेच हा सूर्यलोक आश्चर्यकारक गोलांनी युक्त आकाशात राहणाऱ्या पदार्थांना आपल्या किरणांनी व आकर्षणशक्तीने पुष्ट करून प्रकाशित करतो. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as a shepherd shows a once lost but later found animal, so the sun, lord of brilliant rays and supporter of life with nourishment, lights up and reveals the wondrous skies and spaces and lights up and moves around the stars and planets such as the earth.
Subject of the mantra
Now, in this mantra qualities of Sun sphere have been elucidated.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yathā)=In the manner, (kaścit)=certain, (paśupālaḥ)=herdsman, (naṣṭam)=lost, (paśum)= cow etc. animals, (prāpya)=by acquiring, (prakāśayati)=brings to the lime light, (tathā)=in the same way, (ayam)=this, (āghṛṇe)=with full of rays from every direction, (pūṣan) =sun sphere nourishing the substances, (divaḥ)=with it’s light, (citrabarhiṣam)=from which strange astonishing outer space is known, (dharuṇam)=holding earth, [aur]=and, (antarikṣam)=to space, (prāpya)=approaching, (aja)=illuminates by emitting light.
English Translation (K.K.V.)
In the manner certain herdsman by acquiring lost cow etc. animals brings to the lime light, in the same way, this Sun-sphere, nourishing the substances with full of its light from every direction, from which strange astonishing outer space is known and holding earth and space, approaching there, illuminates by emitting light.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Just as the one who takes care of animals makes human beings happy by doing many things, by feeding animals, with milk etc., similarly this Sun-sphere nourishes the sky with pictures and strange worlds and nourishes the objects of that place by the attraction of its rays and makes all living beings happy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the solar world are taught in the thirteenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As a shepherd brings back and reveals before others a lost animal, in the same way, this bright-rayed sun having made the firmament wondrous from its light, illuminates the earth by scattering its rays.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पूषन) पोषयतीति पूषा सूर्यलोकः अत्रान्तर्गतो णिच् श्वनुक्षन पूषन् प्लीहन् क्लेदन स्नेहन मूर्धन् मज्जन्नर्यमन् विश्वप्सन् परिज्मन् मातरिश्वन् मघवन्निति (उणादि १.१५७) अनेनायं निपातितः ॥ = Sun. (चित्रबर्हिषम्) चित्रम् आश्चर्य बर्हिः अन्तरिक्षं भवति यस्मात् तत् । (आघृणे) समन्तात घृणयः किरणा दीप्तयो यस्य सः । = The sun with bright rays (धरुणम्) धारणकर्त्री पृथिवीम् । = Earth. दिवः) स्वप्रकाशात् = From its light. (अज) अजति प्रकाशे प्रक्षिप्य द्योतयति । = Illuminates by throwing light.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankar or simile used in this Mantra. As shepherds and other feeders of animals, feed and nourish the beasts and by their milk etc. cause happiness to men, in the same manner, the sun having supported the sky and all substances therein, by its rays and gravitation, causes happiness to all beings.
Translator's Notes
Rishi Dayananda interprets Poosha ( पूषा ) here as the sun, for which besides the derivation pointed out by him as पोषयतीति पूषा सूर्यलोक: पुष-पुष्टौ there are two clear passages in the Brahmana substantiating his interpretation. असौ वै पूषा योऽसौ ( सूर्यः) तपति || ( कौषीतकीब्राह्मणे ऋग्वेदीये ५.२ गोपथ ब्राह्मणे उ० १.२० ) In the passages from the Kausheetaki Brahman and the Gopath Brahmana, it is clearly and un-ambiguously stated that the word (Poosha) stands for the sun. बर्हिरिति अन्तरिक्षनाम (निघ० १.३ ) घृणि is derived from घृ-क्षरणदीप्त्यो here it is in the second sense of illuminating. In the Nighantu 1.17 we read- घृणि:-ज्वलतो नाम (निघ० १.१७) = Shining or bright. धरुणम् is derived from घृञ्-धारणे hence Rishi Dayananda has taken it here for the earth which upholds all beings. अज गतिं क्षेपणयोः hence Rishi Dayananda's interpretation as. अजति-प्रकाशं प्रक्षिप्य द्योतयति ||
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