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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 8
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रोमरुत्वान् छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्र॑ज्येष्ठा॒ मरु॑द्गणा॒ देवा॑सः॒ पूष॑रातयः। विश्वे॒ मम॑ श्रुता॒ हव॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ऽज्येष्ठाः । मरु॑त्ऽगणाः । देवा॑सः । पूष॑ऽरातयः । विश्वे॑ । मम॑ । श्रु॒त॒ । हव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रज्येष्ठा मरुद्गणा देवासः पूषरातयः। विश्वे मम श्रुता हवम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रऽज्येष्ठाः। मरुत्ऽगणाः। देवासः। पूषऽरातयः। विश्वे। मम। श्रुत। हवम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कीदृशा मरुद्गणा इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    ये पूषरातय इन्द्रज्येष्ठा देवासो विश्वे मरुद्गणा मम हवं श्रुत श्रावयन्ति ते युष्माकमपि॥८॥

    पदार्थः

    (इन्द्रज्येष्ठाः) इन्द्रः सूर्य्यो ज्येष्ठः प्रशंस्यो येषां ते (मरुद्गणाः) मरुतां समूहाः (देवासः) दिव्यगुणविशिष्टाः (पूषरातयः) पूष्णः सूर्याद् रातिर्दानं येषां ते (विश्वे) सर्वे (मम) (श्रुत) श्रावयन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थो बहुलं छन्दसि इति शपो लुग् द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (हवम्) कर्तव्यं शब्दव्यवहारम्॥८॥

    भावार्थः

    नैव कश्चिदपि वायुगणेन विना कथनं श्रवणं पुष्टिं च प्राप्तुं शक्नोति। योऽयं सूर्य्यलोको महान् वर्त्तते यस्य य एव प्रदीपनहेतवः सन्ति, योऽग्निरूप एवास्ति नैतैर्विद्युता च विना कश्चिद्वाचमपि चालयितुं शक्नोतीति॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब वे पवनों के समूह किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    जो (पूषरातयः) सूर्य्य के सम्बन्ध से पदार्थों को देने (इन्द्रज्येष्ठाः) जिनके बीच में सूर्य्य बड़ा प्रशंसनीय हो रहा है और (देवासः) दिव्य गुणवाले (विश्वे) सब (मरुद्गणाः) पवनों के समूह (मम) मेरे (हवम्) कार्य्य करने योग्य शब्द व्यवहार को (श्रुत) सुनाते हैं, वे ही आप लोगों को भी॥८॥

    भावार्थ

    कोई भी मनुष्य जिन पवनों के विना कहना, सुनना और पुष्ट होनादि व्यवहारों को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता। जिन के मध्य में सूर्य्य लोक सब से बड़ा विद्यमान, जो इसके प्रदीपन करानेवाले हैं, जो यह सूर्य्य लोक अग्निरूप ही है, जिन और जिस बिजुली के विना कोई भी प्राणी अपनी वाणी के व्यवहार करने को भी समर्थ नहीं हो सकता, इत्यादि इन सब पदार्थों की विद्या को जान के मनुष्यों को सदा सुखी होना चाहिये॥८॥

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    विषय

    अब वे पवनों के समूह किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    ये पूषरातयः इन्द्रज्येष्ठा देवासो विश्वे मरुद्गणाः मम हवं श्रुत (श्रावयन्ति) ते युष्माकम् अपि॥८॥

    पदार्थ

    (ये)=जो, (पूषरातयः) पूष्णः सूर्याद् रातिर्दानं येषां ते= सूर्य्य के सम्बन्ध से पदार्थों को देने, (इन्द्रज्येष्ठाः) इन्द्रः सूर्य्यो ज्येष्ठः प्रशंस्यो येषां ते=जिनके बीच में सूर्य्य बड़ा प्रशंसनीय हो रहा है और (देवासः) दिव्यगुणविशिष्टाः=विशिष्ट दिव्य गुणवाले, (विश्वे) सर्वे=सब, (मरुद्गणाः) मरुतां समूहाः=पवनों के समूह, (मम)=मेरे, (हवम्) कर्तव्यं शब्दव्यवहारम्=कार्य्य करने योग्य शब्द व्यवहार को, (श्रुत-श्रावयन्ति)=सुनाते हैं, (ते)=वे ही, (युष्माकम्)=आप लोगों को, (अपि)=भी॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    किसी भी पवन के समूह के विना कहने और सुनने की पुष्टि प्राप्त नहीं हो सकती है।  जो यह महान् सूर्यलोक है, इसके जो प्रदीपन कराने के कारण हैं, जो अग्निरूप ही है। इसकी बिजली के विना  कोई वाणी भी संचालित नहीं कर सकता है ॥८॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (ये) जो (पूषरातयः)  सूर्य के सम्बन्ध से पदार्थों को देने वाले हैं, (इन्द्रज्येष्ठाः) जिनके बीच में सूर्य बड़ा प्रशंसनीय हो रहा है और (देवासः)  विशिष्ट दिव्य गुणवाले हैं। वे (विश्वे)  सब (मरुद्गणाः) पवन खण्डों के समूह (मम) मेरे (हवम्) कार्य करने योग्य शब्द व्यवहार को (श्रुत) सुनाते हैं। (ते) वे ही (युष्माकम्) आप लोगों को (अपि) भी उस [कार्य करने योग्य शब्द व्यवहार को सुनावें]॥८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रज्येष्ठाः) इन्द्रः सूर्य्यो ज्येष्ठः प्रशंस्यो येषां ते (मरुद्गणाः) मरुतां समूहाः (देवासः) दिव्यगुणविशिष्टाः (पूषरातयः) पूष्णः सूर्याद् रातिर्दानं येषां ते (विश्वे) सर्वे (मम) (श्रुत) श्रावयन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थो बहुलं छन्दसि इति शपो लुग् द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (हवम्) कर्तव्यं शब्दव्यवहारम्॥८॥
    विषयः- अथ कीदृशा मरुद्गणा इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- ये पूषरातय इन्द्रज्येष्ठा देवासः विश्वे मरुद्गणा मम हवं श्रुत श्रावयन्ति ते युष्माकमपि॥८॥

    भावार्थः( महर्षिकृतः)- नैव कश्चिदपि वायुगणेन विना कथनं श्रवणं पुष्टिं च प्राप्तुं शक्नोति। योऽयं सूर्य्यलोको महान् वर्त्तते यस्य य एव प्रदीपनहेतवः सन्ति, योऽग्निरूप एवास्ति नैतैर्विद्युता च विना कश्चिद्वाचमपि चालयितुं शक्नोतीति ॥८॥ 

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    विषय

    'देवासः पूषरातयः'

    पदार्थ

    १. प्रभु कहते हैं कि हे (इन्द्रज्येष्ठाः) - इन्द्र जिनमें श्रेष्ठ है ऐसे (मरुद्गणाः) - प्राणसमूहो ! (विश्वे) - तुम सब (मम) - मेरी (हवम्) - इस पुकार को - आवाज को (श्रुत) - सुनो । (देवासः) - तुम्हें देव बनना है , (पूषरातयः) - दान को पोषण करनेवाला बनना है 'पूषा रातिर्येषाम्' - जिनका दान निरन्तर बढ़ रहा है , ऐसा बनना है और दानवृत्ति को बढ़ाते हुए 'पूषराति' होना है । 'अरातित्व' न देने की वृत्ति हमारी सब दिव्यताओं को समाप्त कर देती है । लोभ सब व्यसनों को पनपानेवाला होता है । 'असुर अपने ही मुख में आहुति देते हैं - वे कभी किसी दूसरे को नहीं खिलाते । यह अदान ही उनके असुरत्व का कारण है । वे देते तो देव बन जाते । देव क्या बन जाते , देव तो वे थे ही , 'पूर्वदेवाः ' उनका नाम ही है - देते रहते तो असुर न बनते । 'देवासः पूषरातयः' देव निरन्तर दान व पोषण करते हैं । देव यही प्रार्थना करते हैं कि - 'यथा नः सर्व इज्जनः संगत्यां सुमना असद् दानकामश्च नो भुवत्' - हे प्रभो ! ऐसी कृपा कीजिए कि हमारे परिवार के सभी व्यक्ति सत्संग से उत्तम मनवाले हों और हमारे ये पुरुष सदा दानवृत्तिवाले हों । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधक जितेन्द्रिय पुरुष को प्रभु का आदेश है कि दानवृत्ति का पोषण करते हुए देव बने रहो । 

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    विषय

    मरुद्गण वीर पुरुष, इनकी वायु से तुलना ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रज्येष्ठाः ) राजा, और सेनापति जिनमें सबसे श्रेष्ठ और ज्येष्ठ पद पर विराजता है वे (मरुद्गणाः) मरुद्गण, वीर पुरुष ( देवासः ) विजय की कामना करने वाले ( पूषरातयः ) सबके पोषक, स्वामी द्वारा वेतनादि दान प्राप्त करने हारे ( विश्वे ) सब ( मम ) मेरे (हवम् ) स्तुति और आह्वान को ( श्रुत ) श्रवण करें । वायुपक्ष में—सूर्य को प्रबल रूप में धारण करने वाले, सूर्य की शक्ति को प्राप्त करने वाले तेजोगुण से युक्त वायुगण ही मेरे शब्द को श्रवण कराते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणताही माणूस वायूशिवाय कथन, श्रवण व संवर्धन इत्यादी व्यवहार करण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. सूर्यलोक सर्वात मोठा असून प्रदीपनाचे कारण आहे. सूर्य हा अग्निरूप आहे. विद्युतशिवाय कोणताही प्राणी आपल्या वाणीचे व्यवहार करण्यासाठी समर्थ होऊ शकत नाही. या सर्व पदार्थांची विद्या जाणून माणसांनी सदैव सुखी झाले पाहिजे. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May all the divine powers of nature, of which the sun is the chief, especially the winds blissfully working in unison with sun-rays, listen to our invocation and bless us with power and prosperity.

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    Subject of the mantra

    Now, what type of groups of the air segments are, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ye)=Those, (pūṣarātayaḥ)=who give substances in association of the sun, (indrajyeṣṭhāḥ)=among whom the sun is becoming praiseworthy, (devāsaḥ)=are having specific divine virtues, (viśve)=all, (marudgaṇāḥ) =groups of the air segments, (mama)=my, (havam)=actionable word practice, (śruta)=narrate, (te)=they only, (yuṣmākam)=to you (api)=as well, [usa kārya karane yogya śabda vyavahāra ko sunāveṃ]= =must narrate that actionable word practice.

    English Translation (K.K.V.)

    Those who give the substances in association of the Sun; among whom the Sun is becoming praiseworthy and are having specific divine virtues. They all groups of the air segments narrate my actionable word practice. They only must narrate that actionable word practice to you as well.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Confirmation cannot be obtained of any saying and listening without group of air segments. That is this great Sun-world, which is the cause for its illumination, which is only in the form of fire. Without its electricity, no speech can be executed.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the nature of the Maruts is taught in the 8th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The divine winds which have the sun as their Chief and benefactor, cause my invocations or sounds to hear. The same is the case with the sounds produced by you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्रज्येष्ठाः) इन्द्रः सूर्यो ज्येष्ठ: प्रशंस्यो येषां ते = Among whom, the sun is the greatest and the most admirable. (पूषारातयः) पूष्णः सुर्याद्रातिः-दानं येषां ते = Which have the sun as their benefactor. (श्रुत) श्रावयन्ति । अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् अन्तर्गतव्यर्थः, बहुल छन्दसीति शंपो लुग् द्वयचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च (हवम् ) कर्तव्यं शब्दव्यवहारम् - The function of speech.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    No one can speak, hear and grow without the aid and attributes of the air. The solar world is so great and is the embodiment or mass of fire which the winds cause to shine. Without the sun and the winds and electricity one can not perform one's speaking function properly.

    Translator's Notes

    In this commentary on this Mantra, Rishi Dayananda has taken Indra and Pooshan in the sense of the sun, for which, the following authority from the Brahmanas is clearly available. In the Jaiminceyopanishad Brahamana U. 1. 44.5. it is stated while explaining the Vedic Text. युक्ता ह्यस्य (इन्द्रस्य) हरयः शता दशेति । सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः । इन्द्रः - आदित्यः (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण उ० १.४४.५) = In the Shatapath Brahmana 8.5.3.2. it is stated. = अथ यः इन्द्रोऽसौ स आदित्यः । (शतपथ ८.५.३.२) In the Jaimineeyopanishad Brahmana U. of 1.28.21.32.5 it is stated— स यः स इन्द्रः एष एव स य एष ( सूर्य:) एव तपति (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे उ० १.२८.२ ॥ १.३२.५) As for the meaning of पूषा as the sun, the following passages from Kausheetaki Brahmana 5.2. and Gopatha Brahmana U. 1.20 are significant. असौ वै पूषा योऽसौ (सूर्यः) तपति ॥ (कौषीतकी ब्राह्मणे ५.२ गोपथ ब्राह्मण उत्तरार्द्ध १.२२ )= In the sense of the function of the speech or sound is from हृञ् स्पर्धायाम् ।

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