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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रवायू छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒न्द्र॒वा॒यू म॑नो॒जुवा॒ विप्रा॑ हवन्त ऊ॒तये॑। स॒ह॒स्रा॒क्षा धि॒यस्पती॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑ । म॒नः॒ऽजुवा॑ । विप्राः॑ । ह॒व॒न्ते॒ । ऊ॒तये॑ । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षा । धि॒यः । पती॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रवायू मनोजुवा विप्रा हवन्त ऊतये। सहस्राक्षा धियस्पती॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रवायू इति। मनःऽजुवा। विप्राः। हवन्ते। ऊतये। सहस्रऽअक्षा। धियः। पती इति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    विप्रा ऊतये यौ सहस्राक्षौ धियस्पती मनोजुवान्द्रिवायू हवन्ते, तौ कथं नान्यैरपि जिज्ञासितव्यौ॥३॥

    पदार्थः

    (इन्द्रवायू) विद्युत्पवनौ (मनोजुवा) यौ मनोवद्वेगेन जवेते। तौ अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः क्विप् च इति क्विप् प्रत्ययः। (विप्राः) विद्वांसः (हवन्ते) गृह्णन्ति। व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुर्न। (ऊतये) क्रियासिद्धीच्छायै (सहस्राक्षा) सहस्राण्यसंख्यातान्यक्षीणि साधनानि याभ्यां तौ (धियः) शिल्पकर्मणः (पती) पालयितारौ। अत्र षष्ठ्याः पति पु० (अष्टा०८.३.५३) अनेन विसर्जनीयस्य सकारादेशः॥३॥

    भावार्थः

    विद्वद्भिः शिल्पविद्यासिद्धये असंख्यातव्यवहारहेतू वेगादिगुणयुक्तौ विद्युद्वायू संसाध्याविति॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    (विप्राः) विद्वान् लोग (ऊतये) क्रियासिद्धि की इच्छा के लिये जो (सहस्राक्षा) जिन से असंख्यात अक्ष अर्थात् इन्द्रियवत् साधन सिद्ध होते (धियः) शिल्प कर्म के (पती) पालने और (मनोजुवा) मन के समान वेगवाले हैं, उन (इन्द्रवायू) विद्युत् और पवन को (हवन्ते) ग्रहण करते हैं, उनके जानने की इच्छा अन्य लोग भी क्यों न करें॥३॥

    भावार्थ

    विद्वानों को उचित है कि शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये असंख्यात व्यवहारों को सिद्ध करानेवाले वेग आदि गुणयुक्त बिजुली और वायु के गुणों की क्रियासिद्धि के लिये अच्छे प्रकार सिद्धि करनी चाहिये॥३॥

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    विषय

    फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    विप्रा ऊतये यौ सहस्राक्षौ धियस्पती मनोजुवा इन्द्रिवायू हवन्ते, तौ कथं न अन्यैः अपि जिज्ञासितव्यौ॥३॥

    पदार्थ

    (विप्राः) विद्वांसः=विद्वान् लोग,  (ऊतये) क्रियासिद्धीच्छायै=क्रियासिद्धि की इच्छा के लिये, (यौ)=जो,  (सहस्राक्षा) सहस्राण्यसंख्यातान्यक्षीणि साधनानि याभ्यां तौ= जिन से असंख्यात अक्ष अर्थात् इन्द्रियवत् साधन सिद्ध होते, (धियस्पती)=उत्तम प्रज्ञा के स्वामी, (मनोजुवा) यौ मनोवद्वेगेन जवेते, तौ=मन के समान वेगवाले हैं, वे दोनों, (इन्द्रवायू) विद्युत्पवनौ=विद्युत् और पवन, (हवन्ते) गृह्णन्ति= ग्रहण करते हैं, (तौ)=वे दोनों की, (कथम्)=क्यों, (न)=न, (अन्यैः)=अन्यों द्वारा, (अपि)=भी, (जिज्ञासितव्यौ)=जिज्ञासा की जानी चाहिए॥३॥
     

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    विद्वानों के द्वारा शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये असंख्यात व्यवहारों को सिद्ध करानेवाले वेग आदि गुणयुक्त बिजली और वायु के गुणों से युक्त करके अच्छे प्रकार से सिद्ध करना चीहिए॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यौ) जो  (विप्राः)  विद्वान् लोग (ऊतये) क्रियासिद्धि की इच्छा के लिये कर्म करते हैं (सहस्राक्षा) और जिन से असंख्यात अक्ष (जिस व्यावहारिक ज्ञान से) अर्थात् इन्द्रियवत् साधन सिद्ध होते हैं। (धियस्पती) वे उत्तम प्रज्ञा के स्वामी हैं (मनोजुवा) और  जो मन के समान वेगवाले हैं, [वे] (इन्द्रवायू) विद्युत् और पवन को (हवन्ते) ग्रहण करते हैं। (तौ) उन दोनों की (कथम्) क्यों (न) न (अन्यैः) अन्य लोगों द्वारा (अपि) भी (जिज्ञासितव्यौ) जिज्ञासा की जानी चाहिए॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रवायू) विद्युत्पवनौ (मनोजुवा) यौ मनोवद्वेगेन जवेते। तौ अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः क्विप् च इति क्विप् प्रत्ययः। (विप्राः) विद्वांसः (हवन्ते) गृह्णन्ति। व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुर्न। (ऊतये) क्रियासिद्धीच्छायै (सहस्राक्षा) सहस्राण्यसंख्यातान्यक्षीणि साधनानि याभ्यां तौ (धियः) शिल्पकर्मणः (पती) पालयितारौ। अत्र षष्ठ्याः पति पु० (अष्टा०८.३.५३) अनेन विसर्जनीयस्य सकारादेशः॥३॥
    विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- विप्रा ऊतये यौ सहस्राक्षौ धियस्पती मनोजुवेन्द्रिवायू हवन्ते, तौ कथं नान्यैरपि जिज्ञासितव्यौ॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- विद्वद्भिः शिल्पविद्यासिद्धये असंख्यातव्यवहारहेतू वेगादिगुणयुक्तौ विद्युद्वायू संसाध्याविति॥३॥

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    विषय

    ज्ञान व ज्ञानपूर्वक कार्य

    पदार्थ

    १. (विप्रा) - विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले मेधावी लोग (मनोजुवा) - मन के समान वेगवाले अथवा मन को सदा उत्तम प्रेरणा देनेवाले (इन्द्रवायू) - इन्द्र और वायुदेव को (ऊतये) - रक्षा के लिए (हवन्ते) - पुकारते हैं । इन्द्र और वायु के पुकारने का अभिप्राय है - 'जितेन्द्रिय व क्रियाशील' बनने का निश्चय व दृढ़ संकल्प । ये दोनों भावनाएँ मनुष्य को सदा उत्तम मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती हैं । इनके कारण मनुष्य आलस्य से शून्य तथा अत्यन्त वेगसम्पन्न बना रहता है । 

    २. ये इन्द्र और वायु (सहस्त्राक्षा) - अनन्त आँखोंवाले , अर्थात् अत्यधिक ज्ञानवाले तथा (धियस्पती) - ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्मों के पति हैं । जितेन्द्रियता ज्ञानवृद्धि का कारण बनती है और वायु की आराधना मनुष्य को सदा कर्मों में व्याप्त रहने का उपदेश करती है । 'इन्द्र' का उपासक मूर्ख नहीं होता तथा वायु का आराधक अकर्मण्य नहीं हो सकता । ये ज्ञान और कर्म हमारा पूरण करते हैं , हमें विप्र बनाते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम इन्द्र और वायु के उपासक बनकर अत्यधिक ज्ञानवाले व ज्ञानपूर्वक कर्मों को करनेवाले बनें । 

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    विषय

    सहस्राक्ष इन्द्र वायु, की व्याख्या

    भावार्थ

    (विप्राः) मेधावी बुद्धिमान् पुरुष (ऊतये) रक्षा ज्ञान और तेज के प्राप्त करने के लिए (सहस्राक्षा) सहस्रों ज्ञान साधनों से युक्त ( धियःपती ) ज्ञानों और कर्मों के पालक ( इन्द्रवायू ) विद्युत् और वायु के समान तेजस्वी और बलवान् (मनोजुवा) मन के समान वेगवान् अथवा मन या ज्ञान से चलने हारे दोनों को ( हवन्ते ) प्राप्त करते हैं । नाना दूत, सभासद् और प्रणिधि होने से सेनापति राजा दोनों ‘सहस्राक्ष’ हैं। नाना क्रिया साधनों से युक्त विद्युत् और पवन भी ‘सहस्राक्ष ‘ हैं । छत्रिन्याय से जीव ईश्वर दोनों सहस्राक्ष हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांनी शिल्पविद्येच्या सिद्धीसाठी असंख्य व्यवहार सिद्ध करणाऱ्या वेग इत्यादी गुणांनी युक्त विद्युत व वायूच्या गुणांना चांगल्या प्रकारे सिद्ध केले पाहिजे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    For the protection and progress of the world in a state of peace and happiness, scholars of vision and piety invoke Indra and Vayu, divine energies of wind and electricity, which move at the speed of the mind, and which are givers of a thousand powers of sensitivity and promoters of human intelligence and its creations.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of they are, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yau)=Which, (viprāḥ) =scholars, (ūtaye) =perform deeds for the desire of accomplishments of action, [aur]=and, (sahasrākṣā) =from whom enumerable a kșha (=by practicle knowledge), in other words, accomplishment by means of organs like sense are accomplished, (dhiyaspatī) =those are masters of excellent sapience, [aur]=and, (manojuvā)=those, who have mind like a speed,[ve]=they, (indravāyū)=to electricity and air, (havante)=accept, (tau)=of both of them, (katham)=why, (na)=not, (anyaiḥ)=by others, (api)=also, (jijñāsitavyau)=should be desired.

    English Translation (K.K.V.)

    Which scholars perform deeds for the desire of accomplishments of action and from whom enumerable akșha (by practical knowledge), in other words, accomplishment by means of organs like senses are accomplished. Those are masters of excellent sapience and those, who have mind like speed, accept electricity and air. Why both of them should not be desired by others?

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    For the accomplishment of craftsmanship by scholars, it should be accomplished well by having the qualities of lightning and air, which accomplish innumerable practices, et cetera.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is their nature is taught in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Wise men for preservation or the desire of accomplishment in action, invoke electricity and wind, possessing thousands of means and protectors of the Yajna of art and industries. Why should not others also try to understand their nature?

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्रवायू) विद्युत्पवनौ = Electricity and fire (विप्राः) विद्वांसः (विप्रा इति मेधाविनाम-निघ० २.१५ ) = Wise and learned men. (सहस्राक्षौ ) सहस्राणि-असंख्यातानि अक्षीणि-साधनानि याभ्यां तौ । = Possessing thousands of means.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Wise men should utilize electricity and wind possessing thousands of functions and endowed with rapidity and other attributes, for the accomplishment of arts and industries.

    Translator's Notes

    ऊतये has been explained as क्रियासिद्धीच्छायें For the desire of accomplishment of action. For the meaning of इन्द्र as electricity, passages like the follwoing may be cited. यदशनिरिन्द्रस्तेन ॥ (कौषीतकी ब्रा०६.९ ) स्तनयित्नुरेवेन्द्रः ॥ ) शतपथ ११.६.९. ३ ) In these passages, the meaning of the word Indra has been given as electricity.

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